Thursday, January 15, 2009

हिन्दी ग़ज़ल





तुम जाने किस युग के साथी, साथ मेरे क्यूं आए हो,

सर का भेद नहीं समझे, दाढ़ी-चोटी चिपकाए हो।



चमत्कार चतुराई है उसकी, तुम जैसा इंसान है वह,

करके महिमा मंडित उसको, तुम काहे बौराए हो।



माथा टेकू मस्तक वालो, यह भी कोई शैली है,

धोती ऊपर टोपी नीचे, इतना शीश नवाए हो।



मुझ तक अल्लह यार है मेरा, मेरे संग संग रहता है,

तुम तक अल्लह एक पहेली, बूझे और बुझाए हो।



चाहत की नगरी वालो, कुछ थोड़ा सा बदलाव करो,

तुम उसके दिल में बस जाओ, दिल में जिसे बसाए हो।



यह चिंतन, यह शोधन मेरे, मेरे ही उदगार नहीं,

अपने मन में इनके जैसा, तुम भी कहीं छुपाए हो।



चाँद, सितारे, सूरज, पर्बत, ज़ैतूनो-इन्जीरों१ की,

मौला! 'मुंकिर; समझ न पाया, इनकी क़समें खाए हो।


१-कुरान में अल्लाह इन चीज़ों की क़समें खा खा कर अपनी बातों का यकीन दिलाता है.




2 comments:

  1. चाहत की नगरी वालो, कुछ थोड़ा सा बदलाव करो,
    तुम उसके दिल में बस जाओ, दिल में जिसे बसाए हो।

    वाह। सुन्दर रचना है। एक तात्कालिक तुकबन्दी मेरी तरफ से भी-

    क्या है जरूरत चिल्लाने की धीरे धीरे बात करो।
    बात दिलों तक पहुँचेगी ही सुन्दर गजल सजाए हो।।


    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com

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