Friday, July 31, 2015

Junbishen 668



 नज़्म 
दस्तक

घूँघट तो उठा दे कभी, ऐ वहिदे मुतलक़1  ,
चिलमन पे खड़ा कब से हूँ, आमादए दस्तक .

बाज़ार तेरे खैर की बरकत की लगी है ,
अय्यार लगाए हैं दुकानें , जो ठगी है .

तुज्जार2  तेरी शक्लें हजारो बनाए हैं ,
आपस में मुक़ाबिल भी हैं , तेवर चढ़ाए हैं .

अल्लाह बड़ा है , तू बड़ा है , तू बड़ा है ,
शैतान है छोटा जो तेरे साथ खड़ा है .

कब तक यह फसानों की हवा छाई रहेगी ,
माजी3  की सियासत की वबा छाई रहेगी .

सर पे है खड़ा वक़्त चढ़ाए हुए तेवर ,
हो जाए न महशर4  से ही पहले कोई महशर .

अब सोच को बदलो भी क़दामत के पुजारी ,
मुंकिर तभी संवरेगी ज़रा नस्ल तुम्हारी . 

१-एकेश्वर २- व्यापारी ३-भूत काल ४-प्रलय 

Wednesday, July 29, 2015

Junbishen 667


क़तआत

बंधक

ऋण के गाहक बन बैठे हो,
शून्य के साधक बन बैठे हो,
किस से मोक्ष और कैसी मोक्ष,
ख़ुद में बंधक बन बैठे हो।

प्रेत आत्माएं

जेब में कुछ ले के आए हो कि बस दर्शन किया,
मैं हूँ मर्यादा पुरूष, है मूल्य मेरा रूपया,
तुम ने ही जन्मा है हम को, नाम ज्ञानेश्वर दिया,
जी रहा हूँ ऐश से ऐ बेवकूफ़ो! शुक्रया.

ढलान
हस्ती है अब नशीब१ में, सब कुछ ढलान पर,
कोई नहीं जो मेरे लिए, खेले जान पर,
ख़ुद साए ने भी मेरे, यूँ तकरार कर दिया,
सर पे है धूप, लेटो, मेरा क़द है आन पर।

Monday, July 27, 2015

Junbishen 666

रुबाईयाँ

आज़ादी है सभी को कोई कुछ माने ,
अजदाद* के जोगी को पयम्बर जाने ,
या अपने कोई एक खुदा को गढ़ ले ,
गुस्ताखी है औरों को लगे समझाने .
*पूर्वज 

है बात कोई गाड़ी यूँ चलती जाए ,
विज्ञान के युग में भी फिसलती जाए , 
ढ़ोती रहे सर पे , अवैज्ञानिक मिथ्या ,
पीढ़ी को लिए वहमों में ढलती जाए .

इक उम्र पे रुक जाए, जूँ बढ़ना क़द का,
कुछ लोगों में हश्र है, इसी तरह खिरद1 का,
मुजमिद2 खिरद को ढोते हैं सारी उम्र,
रहता है सदा पास मुसल्लत3 हद का.
1- बौधिक छमता 2-जमी हुई 3-थोपी हुई 

कुछ रुक तो ज़माने को जगा दूं तो चलूँ,
मैं नींद के मारों को हिला दूं तो चलूँ,
ऐ मौत किसी मूज़ी को जप कर आजा,
सोई हुई उम्मत* को उठा दूं तो चलूँ.
मुसलमानों  

औरत को गलत समझे कि आराज़ी* है,
यह आप के ज़ेहनों में बुरा माज़ी है,
यह माँ भी, बहन बेटी भी, शोला भी है,
पूछो कि भला वह भी कहीं राज़ी है.
 *खेतियाँ 


Sunday, July 26, 2015

Junbishen 665

रुबाईयाँ

दिल वह्यी ओ इल्हाम से मुड जाता है, 
हक शानासियों से जुड़ जाता है,
देख कर ये पामालिए सरे-इंसान,
'मुंकिर' का दिमाग़ भक्क से उड़ जाता है. 

मुझको क्या कुछ समझा, परखा तुम ने ,
या अपने जैसा ही जाना तुमने,
मेरे ईमान में फ़र्क़ लाने का ख़याल ,
चन्दन पे गोया सांप पाला तुमने . 

हो सकता है ठीक दमा, मिर्गी ओ खाज,
बख्श सकता है जिस्म को रोगों का राज,
तार्बियतों* की घुट्टी पिए है माहौल, 
मुश्किल है बहुत मुंकिर ज़ेहनों का इलाज.

तहरीक सदाक़त1 हो दिलों में पैदा ,
तबलीग़ जिसारत2 हो दिलों में पैदा ,
बतला दो ज़माने को खुद भी बुत है ,
फितरत3 की अक़ीदत4 हो दिलों में पैदा। 
१ सच्चै २ साहस ३ लौकिक ४ आस्था 

सौ बार करो गौर ग़लत तुम तो नहीं ,
हो जाए अगर अपने ख़यालों पे यकीं ,
कंजोर बनो और न मुआफ़ी मांगो ,
बकती रहे दुन्या , बुलाता फिरे दीं .

Thursday, July 23, 2015

Junbishen 664



 नज़्म 
अपील

लिपटे-लिपटे सदियाँ गुज़रीं, वहेम् की इन मीनारों से ,
मन्दिर, मस्जिद, गिरजा, मठ और दरबारी दीवारों से ,
अन्याई उपदेशों से, और कपट भरे उपचारों से ,
दोज़ख, जन्नत की कल्पित, इन अंगारों ,उपहारों से .

बहुत अनोखा जीवन है ये, इन पर मत बरबाद करो ,
माज़ी के हैं मुर्दे ये सब, इनको मुर्दाबाद करो ,
इनका मंतर उनका छू, निज भाषा में अनुवाद करो .
निजता का काबा काशी, निज चिंतन में आबाद करो.

Tuesday, July 21, 2015

Junbishen 663



 नज़्म 

राज़ ए ख़ुदावन्दी

क़ैद ओ बंद तोड़ के निकलो, ऐ तालिबान ए फ़रेब,1
तुम हो इक क़ैदी, मज़ाहिब के ख़ुदा खानों के।
हम तुम्हें राज़ बताते हैं, ख़ुदा वन्दों के,
साकितो,२ सिफ़्र३ ओ नफ़ी४ ,अर्श के बाशिंदों के।

यह तसव्वर५ में जन्म पाते हैं,
बस कयासों६ में कुलबुलाते हैं।

चाह होते हैं यह, समाअत७ की,
रिज्क़८ होते हैं यह, जमाअत९ की।

यह कभी साज़िसों में पलते हैं,
जंग की भट्टियों में ढलते हैं.

डर सताए तो, यह पनपते हैं,
गर हो लालच तो, यह निखरते हैं.

यह सुल्ह नमाए फ़ातेह10 भी हुवा करते हैं,
पैदा होते हैं नए, कोहना11 मरा करते हैं.

हम ही रचते हैं इन्हें, और कहा करते हैं,
सब का ख़ालिक़12 है वही, सब का रचैता वह है.

१-छलावा की चाह वाले २-मौन ३-शुन्य ४-अस्वीक्र्ती५-कल्पना ६-अनुमान ७-श्रवण शक्ति ८-भोजन ९-टोली १०-विजेता की संधि ११-पुराना १२-जन्म -दाता

Saturday, July 18, 2015

Junbishen 662



ईद की महरूमियाँ 1

कैसी हैं ईद की खुशियाँ, यह नक़ाहत२ की तरह,
जश्न क़र्ज़े की तरह, नेमतें क़ीमत की तरह।
ईद का चाँद ये, कैसी खुशी को लाता है,
घर के मुखिया पे नए पन के सितम ढाता है।

ज़ेब तन कपड़े नए हों तो ख़ुशी ईद है क्या?
फिकरे-गुर्बा३ के लिए हक़ ४ की ये ताईद५ है क्या?
क़ौम पर लानतें हैं फ़ित्राओ-खैरातो-ज़कात६ ,
ठीकरे भीख की ठंकाए है, उमरा७ की जमाअत।

पॉँच वक़तों  की नमाज़ें हैं अदा रोज़ाना,
आज के रोज़ अज़ाफ़ी है सफ़र८ दोगाना।
इसकी कसरत से कहीं दिल में ख़ुशी होती है,
भीड़ में ज़िन्दगी तनहा सी पड़ी होती है।

ईद के दिन तो नमाज़ों से बरी करना था,
छूट इस दिन के लिए मय-ब-लबी करना था।
नव जवाँ देव परी के लिए मेले होते,
अपनी दुन्या में दो महबूब अकेले होते।

रक़्स होता, ज़रा धूम धडाका होता,
फुलझडी छूटतीं, कलियों में धमाका होता।
हुस्न के रुख़ पे शरीयत९ का न परदा होता,
मुत्तक़ी १०,पीर, फ़क़ीहों११, को ये मुजदा१२, होता।

हम सफ़र चुनने की यह ईद इजाज़त देती,
फ़ितरते ख़ल्क़ १३ को संजीदगी फ़ुर्सत देती।
ईद आई है मगर दिल में चुभी फांस लिए,
क़र्बे १४ महरूमी लिए, घुट्ती हुई साँस लिए।

१-वनचित्ता २-कमजोरी ३-गरीबों की चिंता ४-ईश्वर 5-समर्थन ६-दान की विधाएँ ७-धनाड्य ८-ईद की नमाज़ को दोगाना कहते 
९-धर्मं विधान १०-सदा चारी  11-धर्म-शास्त्री १३-खुश खबरी १3-जीव प्रवर्ति14-वंचित की पीड़ा

Tuesday, July 14, 2015

Junbishen 661



 नज़्म 
शक के मोती

शक जुर्म नहीं, शक पाप नहीं, शक ही तो इक पैमाना है ,
विश्वाश में तुम लुटते हो सदा, विश्वाश में कब तक जाना है .

शक लाज़िम है भगवान ओ, ख़ुदा पर जिनकी सौ दूकानें हैं ,
औतार ओ पयम्बर पर शक हो, जो ज़्यादः तर अफ़साने1हैं .

शक हो सूफ़ी सन्यासी पर, जो छोटे ख़ुदा बन बैठे हैं ,
शक फूटे धर्म ग्रंथों पर, फ़ासिक़२ हैं दुआ बन बैठे हैं .

शक पनपे धर्म के अड्डों पर, जो अपनी हुकूमत पाये हैं ,
जो पिए हैं ख़ून  की गंगा जल, जो माले ग़नीमत3 खाए हैं .

शक थोड़ा सा ख़ुद पर भी हो, मुझ पर कोई ग़ालिब४ तो नहीं ?
जो मेरा गुरू बन बैठा है, वह बदों का ग़ासिब५ तो नहीं ?

शक के परदे हट जाएँ तो, 'मुंकिर' हक़ की तस्वीर मिले ,
क़ौमों को नई तालीम मिले, जेहनों को नई तासीर६ मिले .

१-कहानी २- मिथ्य  ३-युद्ध में लूटी सम्पत्ति ४-विजई ५ -अप्भोगी ६-सत्य

Saturday, July 11, 2015

Junbishen 658 Nazm



 नज़्म 
ग्यारहवीं  सदी की आहें

हमारे घर में घुसे, बस कि धड़धदाए हुए ,
वो डाकू कौन थे? इन वादियों में आए हुए ।

यक़ीन ओ खौफ़,सज़ा और तमअ1की तलवारें ,
अजीब रब था कोई, उनको था थमाए हुए ।

खुदाए सानी2 बने हुक्मरां,वज़ीर ओ सिपाह ,
सितम के तेग़ थे, हर शख्स में चुभाए हुए ।

जेहाद उनकी बज़िद थी, लडो या जज़या  दो ,
नहीं तो ज़ेहनी गुलामी, को थे जताए हुए ।

दलाल उसके, रिया कारियों3 का दीन लिए ,
दूकाने अपनी थे, हर कूंचे में सजाए हुए ।

दोबारा रोपे गए हैं, वह शजर4 हैं 'मुंकिर',
महद5 से माँ के हैं, ज़ालिम उसे उठाए हुए ।

१-लालच २-द्वतीय ईश्वर ३-ढोंगी ४-पेड़ ५-पालना

Thursday, July 9, 2015

Junbishen 657 Dhazal 20



 ग़ज़ल
सच्चाइयों ने हम से, जो तक़रार कर दिया,
हमने ये सर मुक़ाबिले, दीवार कर दिया.

अपनी ही कायनात से, बेज़ार जो हुए,
इनको सलाम, उनको नमरकर कर दिया।

तन्हाइयों का सांप, जब डसने लगा कभी,
खुद को सुपुर्दे गज़िए, गुफ़्तार कर दिया।

देकर ज़कात सद्का, मुख़य्यर अवाम ने,
अच्छे भले ग़रीब को बीमार कर दिया।

हाँ को न रोक पाया, नहीं भी न कर सका,
न करदा थे गुनाह, कि इक़रार कर दिया।

रूहानी हादसात ओ अक़ीदत के ज़र्ब ने,
फितरी असासा क़ौम का, बेकार कर दिया.

Friday, July 3, 2015

Junbishen 656 Ghazal 19



 ग़ज़ल

ख़ारजी हैं सब तमाशे, साक़िया इक जाम हो,
अपनी हस्ती में सिमट जाऊं, तो कुछ आराम हो।

खुद सरी, खुद बीनी, खुद दारी, मुझे इल्हाम है,
क्यूं ख़ुदा साज़ों की महफ़िल से, मुझे कुछ काम हो।

तुम असीरे पीर मुर्शिद हो, कि तुम मफ़रूर हो,
हिम्मते मरदां न आई, या कि तिफ़ले ख़ाम हो।

हाँ यक़ीनन एक ही, लम्हे की यह तख्लीक़ है,
वरना दुन्या यूं अधूरी, और तशना काम हो।

हम पशेमाँ हों कभी न फ़ख्र के आलम में हों,
आलम मासूमियत हो बे ख़बर अंजाम हो।

अस्तबल में नींद की, मारी हैं "मुंकिर" करवटें,
औने पौने बेच दे घोडे को खाली दाम हो.