Wednesday, December 30, 2015

Junbishen 731



मेरी खुशियाँ

जा पहुँचता हूँ कभी डूबे हुए सूरज तक,
ऐसा लगता है मेरी ख़ुशियाँ वहीं बस्ती हैं,
जी में आता है,वहीं जा के रिहाइश कर लूँ ,
क्या बताऊँ कि अभी काम बहुत बाक़ी हैं।

मेरी  ख़ुशियाँ मुझे तन्हाई में ले जाती हैं,
क़र्ब ए आलाम1 से कुछ देर छुड़ा लेती हैं,
पास वह आती नहीं, बातें किया करती हैं,
बीच हम दोनों के इक सिलसिला ए लासिल्की2 है।

मेरी खुशियों की ज़रा ज़ेहनी बलूग़त3 देखो,
पूछती रहती हैं मुझ से मेरी बच्ची की तरह,
सच है रौशन तो ये तारीकियाँ४ ग़ालिब क्यूं हैं?
ज़िन्दगी गाने में सब को ये क़बाहत५ क्यूं है?

एक जुंबिश सी मेरी सोई खिरद६ पाती है,
अपनी लाइल्मी७ पे मुझ को भी मज़ा आता है,
देके थपकी मैं इन्हें टुक से सुला देता हूँ ,
इस तरह लोरियां मैं उनको सुना देता हूँ ----

"ऐ मेरी खुशियों! फलो,फूलो,बड़ी हो जाओ,
अपने मेराज८ के पैरों पे खड़ी हो जाओ,
इल्म आने दो नई क़दरें ९ ज़रा छाने दो,
साज़ तैयार है, नगमो को सदा१० पाने दो,

तुम जवाँ होंगी, बहारों की फ़िज़ा छाएगी,
ज़िन्दगी फ़ितरते आदम की ग़ज़ल जाएगी".
"रौशनी इल्मे नव११ की आएगी,
सारी तारीकियाँ मिटाएगी,

जल्दी सो जाओ सुब्ह उठाना है,
कुछ नया और तुमको पढ़ना है".


१- व्याकुळ २-वायर-लेस ३-बौधिक व्यसक्ता4-अंधकार ५ -विकार ६-अक्ल ७-अज्ञानता ८-शिखर ९-मान्यताएं१०-आवाज़ ११-नई शिक्षा

Monday, December 28, 2015

Junbishen 730



हक़ बजानिब

वहदानियत2 के बुत को गिराया तो ठीक था,
इस सेह्र किब्रिया३ में न आया तो ठीक था।

गर हुस्न को बुतों में उतारा तो ठीक था,
पत्थर में आस्था को तराशा तो ठीक था।

फरमूदः ए फ़लक़ ४ के तज़ादों५ छोड़ कर,
धरती के मूल मन्त्र को पाया तो ठीक था।

माटी सभी की जननी शिकम६ भरनी तू ही है,
पुरखों ने तुझ को माता पुकारा तो ठीक था।

ऐ आफ़ताब7! तेरी शुआएं ८ हैं ज़िन्दगी,
तुझ को किसी ने शीश नवाया तो ठीक था।

पेड़ों की बरकतों से सजी कायनात९ है,
उन पर खिरद१० ने पानी चढाया तो ठीक था।

आते हैं सब के काम मवेशी अज़ीज़ तर ११ ,
इन को जूनून के साथ जो चाहा तो ठीक था।

इक सिलसिला है, मर्द पयम्बर का आज तक,
औरत के हक़ को देवी बनाया तो ठीक था।

नदियों,समन्दरों, से हमे ज़िन्दगी मिली,
साहिल पे उनके जश्न मनाया तो ठीक था।

गुंजाइशें ही न हों, जहाँ इज्तेहाद१२ की,
ऐसे में लुत्फ़ ऐ कुफ़्र १३ जो भाया तो ठीक था।

फ़िर ज़िन्दगी को रक्स की आज़ादी मिल गई,
'मुंकिर' ने साज़े-नव१४ जो उठाया तो ठीक था।

१-सत्य की ओर २-एकेश्वर ३-महा ईश्वर का जादू ४-आकाश वाणी ५-दोमुही बातें ६-उदार पोषक ७-सूरज ८-किरने ०-ब्रह्मांड 
१०-बुद्धि ११-प्यारे १२-संशोधन १३-कुफ्र का मज़ा १४-नया साज़.

Friday, December 25, 2015

Junbishen 729



आस्तिक और नास्तिक

बच्चों को लुभाते हैं परी देव के क़िस्से,
ज़हनों में यकीं बन के समाते हैं ये क़िस्से,

होते हैं बड़े फिर वह समझते हैं हक़ीक़त,
ज़ेहनों में मगर रहती है कुछ वैसी ही चाहत।

इस मौके पे तैयार खडा रहता है पाखण्ड,
भगवानो-खुदा, भाग्य, कर्म ओ  का क्षमा दंड।

नाकारा जवानों को लुभाती है कहानी,
खोजी को मगर सुन के सताती है कहानी।

कुछ और वह बढ़ता है तो बनता है नास्तिक,
जो बढ़ ही नहीं पारा वह रहता है आस्तिक।

Wednesday, December 23, 2015

Junbishen 728



  हिंदुत्व

सदियों से गढ़ते गढ़ते, गढ़ाया है ये हिदुत्व,
पलकों को मूंदते नहीं, आया है ये हिंदुत्व।

तबलीग़, जोर व् ज़ुल्म, जिहादों से दूर है,
सद भावी आचरण से, नहाया है ये हिंदुत्व।

तारीख़ का लिहाज़ है, जुग़राफ़िया का पास,
आब ओ हवा में अपने, नहाया है ये हिंदुत्व।

नदियों में तैरता है, पहाड़ों में बसा है,
सूरज को, चाँद तारों को, भाया है ये हिंदुत्व।  

आओ मियाँ कि देखें, ज़रा घुस के इसका हुस्न,
पुरखों का है, कहाँ से पराया है ये हिंदुत्व। 

क़द्रें नई समेट के, चलता है डगर पे,
हाँ, इर्तेकाई हुस्न की, काया है ये हिंदुत्व।

तहजीब ऍ अर्ज़ की ये, मुसलसल हयात है,
गर नाप तौल हो, तो सवाया है ये हिंदुत्व।

अरबों के फ़ल्सफ़े हि, न भाएँ ख़मीर को,
'मुंकिर' को भाए हिन्द, सुहाया है ये हिंदुत्व। 

Sunday, December 20, 2015

Junbishen 727



 ग़ज़ल
आज़माने की बात करते हो,
दिल दुखाने की बात करते हो।

उसके फ़रमान में, सभी हल हैं,
किस फ़साने की बात करते हो।

मुझको फुर्सत मिली है रूठों से,
तुम मनाने की बात करते हो।

ऐसी मैली कुचैली गंगा में,
तुम नहाने की बात करते हो।

मेरी तक़दीर का लिखा सब है,
मार खाने की बात करते हो।

झुर्रियां हैं जहाँ कुंवारों पर ,
उस घराने की बात करते हो।

हाथ 'मुंकिर' दुआ में फैलाएं,
क़द घटाने की बात करते हो।

Friday, December 18, 2015

Junbishen 726




 ग़ज़ल
है नहीं मुनासिब ये, आप मुझ को तडपाएँ,
ज़लज़ला न आने दें, मेह भी न बरसाएं।

बस कि इक तमाशा हैं, ज़िन्दगी के रोज़ ओ शब,
सुबह हो तो जी उठ्ठें, रात हो तो मर जाएँ।

आप ने ये समझा है ,हम कोई खिलौने हैं,
जब भी चाहें अपना लें, जब भी चाहें ठुकराएँ।

भेद भाव की बातें, आप फिर लगे करने,
आप से कहा था न, मेरे धर पे मत आएं।

वक़्त के बडे मुजरिम, सिर्फ धर्म ओ मज़हब हैं,
बेडी इनके पग डालें, मुंह पे टेप चिपकाएँ।

तीसरा पहर आया, हो गई जवानी फुर्र,
बैठे बैठे "मुंकिर" अब देखें, राल टपकाएं.

Wednesday, December 16, 2015

Junbishen 725



 ग़ज़ल

वह  जब क़रीब आए ,
इक खौफ़ दिल पे छाए।

जब प्यार ही न पाए,
महफ़िल से लौट आए।

दिन रत गर सताए,
फ़िर किस तरह निंभाए?

इस दिल से निकली हाय!
अब तू रहे की जाए।

रातों की नींद खो दे,
गर दिन को न सताए।

ताक़त है यारो ताक़त,
गर सीधी रह पाए।

है बैर भी तअल्लुक़
दुश्मन को भूल जाए।

हो जा वही जो तू है,
होने दे हाय, हाय।

इक़रार्यों का काटा,
'मुंकिर' के पास आए.

Monday, December 14, 2015

Junbishen 724



 ग़ज़ल

कौन आमादाए फ़ना होगा,

कोई चारा न रह गया होगा।

लूट लूँ सोचता हूँ ख़ुद को मैं,

दूसरे लूट लें लूट लें बुरा होगा।

एडियाँ जूतियों की ऊँची थीं,

क़द बढ़ाने में गिर गया होगा।

दे रहे हो ख़बर क़यामत की,

कान में तिनका चुभ गया होगा।

अब तो तबलीग़१ वह चराता है,

पहले तबलीग़ को चरा होगा।

दफ़अतन२ वह उरूज3 पर आया,

कोई पामाल4 हो गया होगा।

मेरे बच्चे हैं कामयाब सभी,

मेरे आमाल का सिलह होगा।

आँखें राहों पे थीं बिछी 'मुंकिर',

किस तरह माहे-रू चला होगा।

१-धर्म प्रचार २-अचानक ३-शिखर ४-मलियामेt

Friday, December 11, 2015

Junbishen 723



 ग़ज़ल

आबला पाई है, दूरी है बहुत,
है मुहिम दिल की, ज़रूरी है बहुत.

कुन कहा तूने, हुवा दन से वजूद,
दुन्या ये तेरी, अधूरी है बहुत।

रहनुमा अपनी शुजाअत में निखर,
निस्फ़ मर्दों की हुजूरी है बहुत।

देवताओं की पनाहें बेहतर,
वह खुदा, नारी ओ नूरी है बहुत।

तेरे इन ताज़ा हिजाबों की क़सम,
तेरा यह जलवा, शुऊरी है बहुत।

इम्तेहां तुम हो, नतीजा है वजूद,
तुम को हल करना ज़रूरी है बहुत।

Tuesday, December 8, 2015

Junbishen 722




 ग़ज़ल

ज़िन्दगी है कि मसअला है ये,
कुछ अधूरों का, सिलसिला है ये।

आँख झपकी तो, इब्तेदा है ये,
खाब टूटे तो, इन्तहा है ये।

वक़्त की सूईयाँ, ये सासें हैं,
वक़्त चलता कहाँ, रुका है ये।

ढूँढता फिर रहा हूँ ,खुद को मैं,
परवरिश, सुन कि हादसा है ये।

हूर ओ गिल्मां, शराब, है हाज़िर,
कैसे जन्नत में सब रवा है ये।

इल्म गाहों के मिल गए रौज़न,
मेरा कालेज में दाखिला है ये।

दर्द ए मख्लूक़ पीजिए "मुंकिर"
रूह ए बीमार की दवा ये हो।

Friday, December 4, 2015

Junbishen 721



 ग़ज़ल
गर एतदाल हो, तो चलो गुफ्तुगू करें,
तामीर रुक गई है, इसे फिर शुरू करें.

इन कैचियों को फेकें, उठा लाएं सूईयाँ,
इस चाक दामनी को, चलो फिर रफ़ु करें।

इक हाथ हो गले में, तो दूजे दुआओं में,
आओ कि दोस्ती को, कुछ ऐसे रुजू करें।

खेती हो पुर खुलूस, मुहब्बत के बीज हों,
फ़सले बहार आएगी, हस्ती लहू करें।

रोज़ाना के अमल ही, हमारी नमाजें हों,
सजदा सदक़तों पे, सहीह पर रुकु करें।

ए रब कभी मोहल्ले के बच्चों से आ के खेल,
क़हर ओ ग़ज़ब को छोड़, तो "मुंकिर"वजू करें.


*एतदाल=संतुलन *तामीर=रचना *पुर खुलूस=सप्रेम *रुकु=नमाज़ में झुकना *वजू=नमाज़ कि तय्यारी को हाथ मुंह धोना

(क़ाफ़ियाओं में हिंदी अल्फ़ाज़ मुआज़रत के साथ )

Thursday, December 3, 2015

Junbishe 720



 ग़ज़ल



सुममुम बुक्मुम उमयुन कह के, फ़हेम के देते हो ताने,
दिल में मरज़ बढा के मौला, चले हो हम को समझाने।

लम यालिद वलं यूलद, तुम हम जैसे मख्लूक़ नहीं,
धमकाने, फुसलाने की ये चाल कहाँ से हो जाने?

कभी अमन से भरी निदाएँ, कभी जेहादों के गमज़े,
आपस में खुद टकराते हैं, तुम्हरे ये ताने बाने।

कितना मेक अप करते हो तुम, बे सर पैर की बातों को,
मुतरज्जिम, तफ़सीर निगरो! "बड़ बड़ में भर के माने।

आज नमाजें, रोजे, हज, ख़ेरात नहीं, बर हक़ ऐ हक़!
मेहनत, ग़ैरत, इज़्ज़त, का युग आया है रब दीवाने।

बड़े मसाइल हैं रोज़ी के, इल्म बहुत ही सीखने हैं,
कहाँ है फ़ुरसत सुनने की अब, फ़लक़ ओ हशर के अफ़साने।

कैसे इनकी, उनकी समझें, अपनी समझ से बाहर है,
इनके उनके सच में "मुंकिर" अलग अलग से हैं माने।

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नोट-पहले तीन शेरों में शायर सीधा अल्लाह से मुखातिब है , चौथे में उसके एजेंटों से और आखिरी तीन शेरों में आप सब से. अर्थ गूढ़ हैं,
 काश कि कोई सच्चा इस्लामी विद्वान् आप को समझा सके.