Sunday, April 28, 2013

Junbishen 9


नज़्म 
सना  1

तूने सूरज चाँद बनाया, होगा हम से क्या मतलब,
तूने तारों को चमकाया, होगा हम से क्या मतलब,
तूने बादल को बरसाया, होगा हम से क्या मतलब,
तूने फूलों को महकाया, होगा हम से क्या मतलब।

तूने क्यूं बीमारी दी है, तू ने क्यूं आजारी दी?
तूने क्यूं मजबूरी दी है, तूने क्यूं लाचारी दी?
तूने क्यूं महकूमी दी है, तूने क्यूं सालारी दी?
तूने क्यूं अय्यारी दी है, तूने क्यूं मक्कारी दी?

तूने क्यूं आमाल बनाए, तूने क्यूं तक़दीर गढा?
तूने क्यूं आज़ाद तबअ दी, तूने क्यूं ज़ंजीर गढा?
ज़न,ज़र,मय में लज़्ज़त देकर, उसमें फिर तक़सीर गढा,
सुम्मुम,बुक्मुम,उमयुन कहके, तअनो की तक़रीर गढा।

बअज़ आए तेरी राहों से, हिकमत तू वापस लेले,
बहुत कसी हैं तेरी बाहें, चाहत तू वापस लेले,
काफ़िर, 'मुंकिर' से थोडी सी, नफ़रत तू वापस लेले,
दोज़ख़ में तू आग लगा दे, जन्नत तू वापस लेले।

शीर्षक =ईश-गान १-आधीनता २-सेनाधिकार ३-स्वछंदता ५-सुंदरी,धन,सुरा,६-अपराध ७-अल्लाह अपनी बात न मानने वालों को गूंगे,बहरे और अंधे कह कर मना करता है कि मत समझो इनको,इनकी समझ में न आएगा 

Friday, April 26, 2013

Junbishen 8


नज़्म 

ख्वाहिशे पैग़म्बरी

जी में आता है कि मैं भी, इक ख़ुदा पैदा करुँ।
पहले जैसों ही, सदाक़त1 में रिया2 पैदा करुँ ।

कुछ ख़ता पैदा करुँ , फ़िर कुछ सज़ा पैदा करुँ ,
मौत से पहले ही इक, यौमे जज़ा3 पैदा करुँ ।

आऊँ और जाऊं पहाडों पर, निदा4 के वास्ते ,
वह्यी5 सी, या देव वाणी सी, सदा पैदा करुँ ।

गढ़ के इक हुलया निकालूँ , ख़ुद को इस मैदान में ,
सब से हट कर इक अनोखी ही अदा पैदा करुँ ।

मुह्मिलों6 में फ़लसफ़े रागमाले डालकर ,
आश्रम में रख के, अपना बुत गिज़ा पैदा करुँ ।

उफ़! कि दिल क़ैद खाने में है 'मुनकिर' का ज़मीर ,
कैसे मासूमों के ख़ातिर,  मैं दग़ा पैदा करुँ ।

१-सत्य २-मिथ्य ३-प्रलय के बाद इनाम पाने का दिन ४-आकाशवाणी ५-ईश्वानी ६- अर्थ हीन और अनरगल 

Wednesday, April 24, 2013

Junbishen 7



कुँवारत गई

बन्ने का और संवारने का मौक़ा न मिल सका,
खुशियों से बात करने का मौक़ा न मिला सका,
बन्दर से खेत ताकने में ही ज़िन्दगी कटी,
कुछ और कर गुजरने का मौक़ा न मिल सका।



कृपण

बन के बीमार लेट लेता हूँ,
मुंह पे चादर लपेट लेता हूँ,
ऐ शनाशाई१ तेरी आहट से,
अपनी किरनें समेट लेता हूँ।
१-परिचय

बंधक

ऋण के गाहक बन बैठे हो,
शून्य के साधक बन बैठे हो,
किस से मोक्ष और कैसी मोक्ष,
ख़ुद में बंधक बन बैठे हो।

Monday, April 22, 2013

Junbishen - 6

रुबाइयाँ 

1
तुम भी अगर जो सोचो, विचारो तो सुनो,
अबहाम के शैतान को, मारो तो सुनो,
कुछ लोग बनाते हैं, तुम्हें अपना सा,
ख़ुद अपना सा बनना है , गर यारो तो सुनो।
१-अन्धविश्वास
2
'मुंकिर' की ख़ुशी जन्नत, तौबा तौबा,
दोज़ख़ से डरे ग़ैरत, तौबा तौबा
बुत और ख़ुदाओं से ताल्लुक उसका,
लाहौल वला,क़ूवत, तौबा तौबा।
3
अल्लाह ने बनाया है, जहानों सामां,
मशकूक खिरद1  है, कहूं हाँ या नां,
इक बात यक़ीनन है, सुनो या न सुनो,
अल्लाह को बनाए है, क़यास इन्सां।
बुद्धि 

Sunday, April 21, 2013

Junbishen (5)


ग़ज़ल 


शोर-किब्रियाई1 है, और स्वर हरे ! हरे !!

बख्श दे इन्हें खुदा, ईशवर उन्हें तरे।


वह है सच जो तूर पर, माइले-कलाम है?2

या कि उस पहाड़ पर, जो कि है जटा धरे।


आसमाँ पर वह उड़ा, आप का यकीं अरे?

कैसा आदमी था वह, अपनी ज़ात से परे?


कब्र को खिला रहे हो, तुम सवाब की गिज़ा,

तुम को क्या ज़मीन, पर कोई भूक से मरे।


यह ख़ुदा का घर नहीं है, तेरे घर में है ख़ुदा,

क्यूँ भटक रहा है तू, काबा काशी बाँवरे।


है ख़बर कि चल पड़े, दोनों तेरी रह पर,

ये ख़बर भी आएगी, कि दोनों फिर से लड़ मरे।

१-ईश वंदना का शोर २-अर्थात मूसा जो तूर पर्वत पर जाकर ईश्वर से बातें करते थेs


Friday, April 19, 2013

Junbishen (4)


ग़ज़ल 

किताब सर से उतरा है, कहे देता हूँ,
हमारे सर में भी पारा है, कहे देता हूँ।

फ़क़त नहीं वह तुम्हारा है, कहे देता हूँ,
सभी का उस पे इजारा है, कहे देता हूँ।

सवाब पढ़ के पढा के मिले, तो लानत है,
सवाब जीना गवारा है, कहे देता हूँ।

हज़ार साला पुराना, है वतीरा हाफिज़,
यह सर का भारी ख़सारा1 है, कहे देता हूँ।

दिमाग माने, कोई धर्म या कोई मज़हब,
लहू में पुरखों की धारा है, कहे देता हूँ।

यही नकार2 तो 'मुंकिर'की जमा पूँजी है,
इसी ने उसको संवारा है, कहे देता हूँ।

१-हानि २ -इंका

Tuesday, April 16, 2013

Junbishen (3)



मअज़रत1 

मेरे यारो ! न गर बुरा मानो ,
देर तक मेरे पास मत बैठो ,
मेरी दुल्हन उदास होती है ,
तनहा पाकर ही पास होती है 

मेरी दुल्हन है मेरी तन्हाई ,
लेके आती है ऐसी अंगड़ाई ,
कायनातों का राज़ देती है ,
शेर माँगूं बयाज़2 देती है 

१ क्षमा याचना २ कविता-पोथी 

Sunday, April 14, 2013

Junbishen (2)


नज़्म 

ह्म्द1


तेरी संगत तो मुश्किल,कि ऐ मौला निभा पाऊँ,
अजाबों में तेरे ख़ुद को, हमेशा मुब्तिला पाऊँ ।

अक़ीदा है मगर कितना ख़तरनाकी की हद में,
कि तुझ पर सर झुका कर ही, सरे अक़दस उठा पाऊँ।

तमस्खुर को बुरा माने ,तू संजीदा हुवा वाके ,
तुझे गर भूल ही जाऊं थोड़ा मुस्कुरा पाऊँ ।

बड़ा ही मुन्तक़िम है तू चला करता है चालें भी ,
कहीं मफ़रूर होकर ही अदू १० से सर बचा पाऊँ ।

अना ११ तेरी रक़ीबाना १२ , है क़ायम वाहिदे मुतलक १३ ,
बड़ा मुश्किल मुक़ामे किब्रियाई १४ है, अमां पाऊँ।

नमाज़ो , हज ,ज़कातो ,रोज़ादारी १५ ,क़र्ज़ हैं तेरे ,
हयाते खुश नुमा १६ को, गर सज़ा दूँ तो चुका पाऊँ।

मुझे मंज़ूर हैं दोज़ख़  की सारी कुल्फ़तें १७ 'मुंकिर ',
तलाशे हक़ १८ में मर जाऊं, तो कोई भी सज़ा पाऊँ ।

१-वन्दना २-विपत्ति ३-आस्था ४-पवित्र शीश ५-हस-परिहास ६-गंभीर ७-स्थापित होना
८-प्रति शोध ९-पलायन वादी १०-शत्रु ११आत्म सम्मान १२-दुश्मनी १३- एकेश्वर ४-ईश्वरीय श्रेष्टता
१५-ये चार इस्लाम के मूल-भूत कर्म-कांड हैं १६-सुखी जीवन १७-यातनाएं १८-सत्य की खोज .

Friday, April 12, 2013

Junbishen 2nd Part (1)

नज्म 


बइस्म ए सिद्क़ 1
(सच्चाई के नाम से शुरू करता हूँ )

यह जुम्बिशें हैं दिल की, बेदारी2 सू ए ज़न2+ की ,
हैं रूह की खराशें, टीसें हैं मेरे मन की ।

रस्मो की बारगाहें3 ,बाज़ार हैं चलन की ,
बोसीदा4 हो चुकी हैं, दूकानें यह सुख़न5 की ।

फ़रमान ए  साबक़ा6 के, ऐ बाज़ गाश्तो7 ठहरो ,
अब होगी आज़माइश, थोड़े से बांकपन की ।

आतश फिशां8 की नोबत, आए तो क्यूं न आए ,
बेचैन हो चुकी हैं, पाबंदियां दहन* की ।

जिस झूट में सदाक़त10, साबित हुई हो शर से ,
उस सिद्क़11 को ज़रूरत है गोर12 और कफ़न की ।

तालीम नव13 के तालिब14, अब अर्श१५ छू रहे हैं ,
डोरी न इनको खींचे, इन शेखो बरहमन की

गर दिल पे बोझ आये, ईमान छट पटाए ,
ऐसे क़फ़स१६से निकलो, छोडो फ़िज़ा चुभन की ।

हम सब ही आलमीं17हैं, भूगोल सब की माँ है ,
आओ बढाएं अज़मत18, हम मादर ए वतन की।

धर्मो से पाई मुक्ति, मज़हब से पाई छुट्टी ,
इंसानियत की बूटी, पीडा हरे है मन की ।

तामीर19 में है बाकी, जो ईंट, वोह है 'मुंकिर',
मेमार20 इसको चुन दे, तकमील21 हो चमन की।

१-प्रचलित बिस्मिल्लाह या श्री गणेश २-जागरण 2+ MITURITY३-दरबार ४-जीर्ण ५-वाणी ६-पुरानेआदेश ७-प्रति -ध्वनी
८-ज्वाला-मुखी ९-मुख (दहन =मुँह)१० सत्यता 11-सत्य 12 -कब्र १३-नवीं शिक्छा १४-इच्छुक १५-आकाश १६-पिंजडा १७-अन्तर राष्ट्रीय 18 मर्यादा 19-रचना 20-रचना कार २१-सम्पूर्णता.

Saturday, April 6, 2013

ग़ज़ल---कहीं हैं हरम की हुकूमतें, कहीं हुक्मरानी-ऐ-दैर है




कहीं हैं हरम1 की हुकूमतें, कहीं हुक्मरानी-ऐ-दैर2 है,
कहाँ ले चलूँ तुझे हम जुनूँ, कहाँ ख़ैर शर3 के बगैर है।

बुते गिल4 में रूह को फूँक कर, उसे तूने ऐसा जहाँ दिया,
जहाँ जागना है एक ख़ता, जहाँ बे ख़बर ही बख़ैर है।

बड़ी खोखली सी ये रस्म है कि मिलो तो मुँह पे हो ख़ैरियत?
ये तो एक पहलू नफ़ी5 का है, कहाँ इस में जज़्बाए ख़ैर है।

मुझे ज़िन्दगी में ही चाहिए , तेरी बाद मरने कि चाह है,
मेरा इस ज़मीं पे है कारवाँ, तेरी आसमान की सैर है।

सभी टेढे मेढ़े सवाल हैं कि समाजी तौर पे क्या हूँ मैं,
मेरी ज़ात पात से है दुश्मनी, मेरा मज़हबों से भी बैर है।

१-काबा २-मन्दिर ३-झगडा ४-माटी की मूरत ५-नकारात्मक