Thursday, October 31, 2013

junbishen 96


कतआत 

इमकानी हदें 

गर काम भला हो तो, कुदरत की मदद है,
हाँ याद रखें, जेहद के आलम में जो क़द है,
सुस्ता लें ज़रा देर, अगर थक जो गए हों,
नाकाम नतीजों में ही, इमकान की हद है।     

गोचा पेची 

सब कुछ तो साफ़ साफ़ था इरशाद ए किबरिया ,
तफ़सीर लिखने वालो! बताओ ये क्या किया ,
 कैसे अवाम पढ़ के, उठाएँगे फायदे ?  
तुमने लिखे हुए पे ही, कुछ और लिख दिया . 


इन्फ़िरादियत 

जब शरअ इज्तेहाद पे हो जाएगी क़ज़ा ,
जब फिर से फ़र्द पूजेगा अपना ही इक ख़ुदा ,
जब छोड़ देगी फ़र्द को यह इज्तेमाइयत ,
इंसान जा के पाएगा तब अपना मर्तबा .  

Wednesday, October 30, 2013

junbishen 95

क़तआत 

चल दिए दबे क़दम किधर , ज़ाहिद तुम,
साथ में लिए हुए ये मुल्हिद तुम , 
पी ली उसकी या पिला दिया अपनी मय ,
था तुम्हारा नक्काद ये और नाक़िद तुम .



जब गुज़रे हवादिस तो तलाशे है दिमाग, 
तब मय की परी हमको दिखाती चराग़, 
रुक जाती है वजूद में बपा जंग, 
फूल बन कर खिल जाते हैं दिल के सब दाग 



औलादें बड़ी हो गईं, अब उंगली छुडाएं , 
हमने जो पढाया है इन्हें, वो हमको पढ़ें, 
हो जाएँ अलग इनकी नई दुनया से, 
माँ बाप बचा कर रख्खें, अपना खाएँ. 

Monday, October 28, 2013

junbishen 94


 नज़्म 
ईश वाणी

मैं हूँ वह ईश,
कि जिसका स्वरूप प्रकृति है,
मैं स्वंभू हूँ ,
पर भवता के विचारों से परे,
मेरी वाणी नहीं भाषा कोई,
न कोई लिपि, न कोई रस्मुल-ख़त,
मेरे मुंह, आँख, कान, नाक नहीं,
कोई ह्रदय भी नहीं, कोई समझ बूझ नहीं,
मैं समझता हूँ , न समझाता हूँ ,
पेश करता हूँ , न फ़रमाता हूँ,
हाँ! मगर अपनी ग़ज़ल गाता हूँ।
जल कि कल कल, कि हवा की सर सर,
मेरी वाणी है यही, मेरी तरफ़ से सृजित,
गान पक्षी की सुनो या कि सुनो जंतु के,
यही इल्हाम ख़ुदावन्दी1 है।
बादलों की गरज और ये बिजली की चमक,
हैं सदाएं मेरी,
चरमराते हुए, बांसों की खनक ,
हैं निदाएं मेरी.
ज़लज़ले, ज्वाला-मुखी और बे रहेम तूफाँ हैं,
मेरे वहियों3 की नमूदारी है।
ईश वाणी या ख़ुदा के फ़रमान,
जोकि कागज़ पे लिखे मिलते हैं,
मेरी आवाज़ की परतव5 भी नहीं।
मेरी तस्वीर है ,आवाज़ भी है,
दिल की धड़कन में सुनो और पढो फ़ितरत६ में॥

१-खुदा की आवाज़ २-आकाश वाणी ३-ईश वाणी ४-उजागर ५-छवि ६-प्रकृति

Saturday, October 26, 2013

junbishen 93



नज़्म 

रूकावट का खेद

मर गए कुहना ख़ुदा सब, और नए जन्में नहीं,
ख़त्म है पैग़म्बरी, औतार भी होते नहीं,
कुछ महा मानव ही पैदा हों, कि कुछ मुश्किल कटे,
देवता सब सो रहे हैं, राक्षस हटते नहीं।

है नजिस हाथों में, सारे मुल्क का क़ौमी3 निज़ाम,
डाकुओं के हाथ में है, हर समाजी इन्तेज़ाम,
गुंडों, बदमाशों, उचक्कों को इलाक़े मिल,
पारसाओं को मिला है, सिर्फ़ ज़िल्लत का मुक़ाम.

1-प्रचीन 2-पवित्र ३ - राष्ट्रिय .

Thursday, October 24, 2013

junbishen 92

नज़्म
- - - और नीत्शे ने कहा - - -

ऐ पैकरे-मज़ालिम1 ! हो तेरा नाम कुछ भी,
गर तू है कार ए फ़रमाँ2, इस कायनात ए हू का?
कुछ जुन्बिशें है दिल की, इन को सबात दे दे।

क्यूं छूरियूं में तेरे, कुछ धार ही नहीं है?
इक वार वाली तेरी, तलवार ही नहीं है?
है कुंद तेरा खंजर, बरसों में रेतता है?
तीरों में तेरी नोकें कजदार क्यूं मुडी हैं?

फाँसी के तेरे फंदे क्यूं ढीले रह गए हैं?
मख़लूक़ के लिए ये, त्रिशूल क्यूं चुना है?
ये हरबा ए अज़ीयत, तुझ को पसंद क्यूं है?
यक लख्त मौत तुझ को, क्यूं कर नहीं गवारा?

ऐ ग़ैर मुअत्रिफ़ ! तू , सीधा सा तअर्रुफ़दे,
क्या चाहता है सब से, इक साँस में बता दे।
हो सोना या कि चांदी, हीरे हों याकि मोती?
ज़ाहिर है तू कहेगा, कुछ भी नहीं ये कुछ भी,

तू चाहता है सब से, इक इक लहू की बूँदें,
जैसे दिया है तूने, वैसे ही लेगा वापस,
मय सूद ब्याज ज़ालिम, हैं तेरे मज़ालिम10,
इंसान हों कि हैवाँ, हों कितना भी परेशां,

सासों के लालची सब, हर हाल में जिएँगे,
सासों का मावज़ा दें, फ़िर तुझ को ही सदा दें।
इंसान जो ख़िरद११ है,सजदों में जी रहा है,
हैवाँ जो है तग़ाफ़ुल१२, वह तुझ पे भौन्कता है।

१-अत्याचार २-चलने वाला ३-ब्रह्माण्ड -ठहराव ५-जीव ६-वेदना यंत्र ७-एक साथ ८-अनजान ९-पिरचय 
१०-अत्याचार ११-समझ १२-गफलत.

Tuesday, October 22, 2013

junbishen 91

ग़ज़ल 

पश्चिम हंसा है पूर्वी, कल्चर को देख कर,
हम जिस तरह से हंसते हैं, बंदर को देख कर.

चेहरे पे नातवां के, पटख देते हैं क़ुरआन ,
रख देते हैं क़ुरआन, तवंगर को देख कर।

इतिहास मुन्तज़िर है, भारत की भूमि का,
दिल खोल के नाचे ये किसी नर को देख कर।

धरती का जिल्दी रोग है, इन्सान का ये सर,
फ़ितरत पनाह मांगे है, इस सर को देख कर।

यकता है वह, जो सूरत बातिन में है शुजअ,
डरता नहीं है ज़ाहिरी, लश्कर को देख कर।

झुकना न पड़ा, क़द के मुताबिक हैं तेरे दर,
"मुंकिर" का दिल है शाद तेरे घर को देख कर।

नातवां=कमज़ोर *तवंगर= ताक़तवर *फ़ितरत=पराकृति * बातिन=आंतरिक रूप में *शुजअ=बहादुर

Sunday, October 20, 2013

junbishen 90


ग़ज़ल 

काँटों की सेज पर, मेरी दुन्या संवर गई,
फूलों का ताज था वहां, इक गए चार गई।

रूहानी भूक प्यास में, मैं उसके घर गया,
दूभर था सांस लेना, वहां नाक भर गई।

वोह साठ साठ साल के, बच्चों का था गुरू,
सठियाए बालिगान पे, उस की नज़र गई।

लड़ के किसी दरिन्दे से, जंगल से आए हो?
मीठी जुबान, भोली सी सूरत, किधर गई?

नाज़ुक सी छूई मूई पे, क़ाज़ी के ये सितम,
पहले ही संग सार के, ग़ैरत से मर गई।

सोई हुई थी बस्ती, सनम और खुदा लिए,
"मुंकिर" ने दी अज़ान तो, इक दम बिफर गई,

Saturday, October 19, 2013

junbishen 89

ग़ज़ल 

तोहमत शिकस्ता पाई की, मुझ पर मढ़े हो तुम,
राहों के पत्थरों को, हटा कर बढ़े हो तुम?

कोशिश नहीं है, नींद के आलम में दौड़ना,
बेदारियों की शर्त को, कितना पढ़े हो तुम?

बस्ती है डाकुओं की, यहाँ लूट के ख़िलाफ़ ,
तक़रीर ही गढे, कि जिसारत गढ़े हो तुम?

अलफ़ाज़ से बदलते हो, मेहनत कशों के फल,
बाज़ारे हादसात में, कितने कढ़े हो तुम।

इंसानियत के फल हों? धर्मों के पेड़ में,
ये पेड़ है बबूल का, जिस पे चढ़े हो तुम।

"मुंकिर" जो मिल गया, तो उसी के सुपुर्द हो,
खुद को भी कुछ तलाशो,लिखे और पढ़े हो तुम.

शिकस्ता पाई=सुस्त चाल

Wednesday, October 16, 2013

junbishen 88


नज़्म 
ईमान की कमज़ोरी

मेरा ईमान1 यक़ीनन, है अधूरा ही अभी,
बर्क़ रफ़्तार2 है, मशगूल ए सफ़र ,
हुक्म ए रब्बानी को, 
ख़ुद सुन के ये क़ायल होगा,
क़ुर्रा ए अर्ज़ ओ फ़िज़ा नाप चुका,
क़ुर्रा ए बाद के, काँधों पे चढा,
शम्सी हलक़ो से बढ़ गया आगे,
डेरा डाले है ख़लाओं में अभी,

रौशनी साल१० से भी तेज़ क़दम,
सर पे तकमील११ की शिद्दत१२ को लिए,
है बड़े अज़्म१३ से सर-गर्म ए सफ़र,
पाने वाला है, ख़ुदाओं का पता,
मैं भी कह पाऊँगा, ईमान के साथ,
मेरा ईमान भी मुकम्मल है।

मेरा ईमान यक़ीनन, है अधूरा ही अभी,
बर्क रफ़्तार है, मशगूले-सफर,

मैं क़यासों१४ के मनाज़िल१५ पे, नहीं ठहरूंगा,
हार मानूंगा नहीं, हद्दे-ख़ेरद१६ के आगे,
आतिशे-जुस्तुजू१७ में जलता हुवा,
पैकरे-शाहिदी१८ में ढलता हुवा,
हर्फ़ ए आखीर१९ को लिखूंगा मैं,
हक़ को पाने की क़सम खाई है,

चाँद तारों पे वजू२० करते हुए,
अर्शे-आला२१ पे पहुँच जाऊंगा,
देखना है कहाँ छुपा है 'वह',
उससे थोडी सी गुफ़्तुगू होगी,

मौज़ूअ, यह फ़लक़ी२३ 'डाकिए' होंगे,
उनके पैग़ाम पर जिरह होगी,
लेके ईमान ए ज़मीं लौटूंगा,
मेरा ईमान यक़ीनन है अधूरा ही अभी,
इसकी तकमील२४ मेरी मंज़िल है।।

१-धार्मिक-विश्वाश २-विद्युत् गति ३-यात्रा-रत ४-ईशादेश ५-मान्य ६-धरती एवं छितिज मंडल ७-वायु मंडल ८-सौर्य-मंडल ९-ब्राम्हाण्ड १०-प्रकाश वर्ष ११-परिपूर्णता १२-आतुरता १३-उत्साह १४-अनुमान १५ -मंजिलें१६-बुद्धि-सीमा १७-खोज की गरिमा १८-साक्छी-रूप १९-आखरी लेख २०-नमाज़ से पहले मुंह धोना २१-बड़ा आकाश २२-विषय २३-आसमानी पैगम्बर २४-परिपूर्णता

Monday, October 14, 2013

junbishen 87




नज़्म 
बदबूदार ख़ज़ानें

माज़ी1 का था समंदर, देखा लगा के ग़ोता,
गहराइयों में उसके, ताबूत कुछ पड़े थे,
कहते हैं लोग जिनको, संदूकें अज़मतों2 की,
बेआब जिनके अंदर, रूहानी मोतियाँ थीं.
आओ दिखाएँ तुमको रूहानी अज़मतें कुछ ----

अंधी अक़ीदतेंथीं, बोसीदा आस्थाएँ,
भगवान राजा रूपी, शाहान कुछ ख़ुदा वंद,
मुंह बोले कुछ पयम्बर, अवतार कुछ स्वयम्भू ,
ऋषियो मुनि की खेती, सूखी पडी थी बंजर।

शरणम कटोरा गच्छम, खैरात खा रहे थे।
रूहानियत के ताजिर, नोटें भुना रहे थे।

उर्यानियत5 यहाँ पर देवों की सभ्यता थी ,
डाकू भी करके तौबा, पुजवा रहे हैं ख़ुद को,
कितने ही ढलुवा चकनट, मीनारे-फ़लसफ़ा थे।
संदूक्चों में देखा, आडम्बरों के नाटक,

करतब थे शोबदों के, थे क़िज़्ब के करश्में,
कुछ बेसुरी सी तानें, कुछ बेतुके निशाने,
फ़रमान ए आसमानी9, दर् असल हाद्सती10 ,
आकाश वानिया कुछ, छलती, कपटती घाती।

थीं कुछ कथाएँ कल्पित, दिल चस्प कुछ कहानी,
कुछ किस्से ईं जहानी11 , कुछ किस्से आंजहानी12
जंगों की दस्तावेज़ें, जुल्मों की दास्तानें,
गुणगान क़ातिलों के, इंसाफ़ के फ़सानें।

पाषाण युग की बातें, सतयुग पे चार लातें,
आबाद हैं अभी भी, माज़ी की क़ब्र गाहें,
हैरत है इस सदी में, ये बदबू दार लाशें,
कुछ लोग सर पे लेके अब भी टहल रहे हैं।

1 -अतीत 2 -मर्यादाएं 3 -आस्था 4-जीर्ण 5-नागापन 6-दार्शनिकता के स्तम्भ 7-तमाशा 8- मिथ्या 9-आकाश वाणी 10-दुखद 11-इस जहान के 12 उस जहान के। 

Saturday, October 12, 2013

junbishen 86


दोहे 


कुदरत ही है आईना, प्रक्रति ही है माप, 
तू भी इसका अंश है, तू भी इसकी ताप. 


'मुंकिर' हड्डी मॉस का, पुतला तू मत पाल।
तन में मन का शेर है, बाहर इसे निकाल॥


अन्तर मन का टोक दे, सबसे बड़ा अज़ाब,
पाक साफ़ रोटी मिले , सब से बड़ा सवाब।


दिन अब अच्छे आए हैं , क़र्ज़ा देव चुकाए ,
ऐसा हरगिज़ मत किहौ , यह बच्चन पर जाए .


'मुंकिर' अपनी सोंच में, पाले है शैतान ,
बात सुनी शैतान ने , बहुत हुवा हैरान . 

Friday, October 11, 2013

JUNBISHEN 85

क़ता  
ताजिर 

हर वक़्त फ़िक्र ए दौलत , बस खाता और बही है ,
रहती है ये कुएँ में , ताजिर की ज़िंदगी है ,
दुन्या की सारी क़दरें , गुम हो गईं हैं इनमें ,
दौलत ही दुःख है इनका , दौलत ही हर ख़ुशी है .


फ़ितरी लम्हे 

फ़ितरत ए वहशी जवाँ थी , नातवाँ फ़िक्र ए गुनाह ,
हुस्न का आतश फशां था , थी न कोई सर्द राह ,
पिघली यूँ ज़ंजीर ए तक़वा , खौफ़ पत्थर का था छु ,
लिख भी दे कोई सज़ा , ऐ जज़ाए फ़ितना गाह .


अना 

इस अना को सुपुर्द ए क़ब्र करो ,
है ये बेहतर की खुद पे जब्र करो ,
बाद में वह भी ज़िद को छोड़ेगा ,
भाई मुंकिर ! ज़रा सा सब्र करो . 

Thursday, October 10, 2013

junbishen 84



रुबाइयाँ 

कहते हैं कि मुनकिर कोई रिश्ता ढूंढो, 
बेटी के लिए कोई फ़रिश्ता ढूंढो, 
माँ   बाप के मेयर पे आएं पैगाम, 
अब कौन कहे , अपना गुज़िश्ता ढूंढो. 


लगता है कि जैसे हो पराया ईमान, 
या आबा ओ अजदाद से पाया ईमान , 
या उसने डराया धमकाया इतना , 
वह खौफ के मारे ले आया ईमान. 


चाहे जिसे इज्ज़त दे, चाहे ज़िल्लत, 
चाहे जिसे ईमान दे, चाहे लानत, 
समझाने बुझाने की मशक्क़त क्यों है? 
जब खुद तेरे ताबे में है सारी हिकमत . 

Sunday, October 6, 2013

junbishen 83


ग़ज़ल 

खेमें में बसर कर लें, इमारत न बनाएँ,
जो दिल पे बने बोझ, वो दौलत न कमाएँ।

सन्देश ये आकाश के, अफ़लाक़ी निदाएँ,
हैं इन से बुलंदी पे, सदाक़त की सदाएँ।

सच्ची है ख़ुशी, इल्म की दरया को बहाएँ,
भर पूर पढें, और अज़ीज़ों को पढ़ाएँ।

संगीन के साए में हैं, रहबर कि ख़ताएँ,
मज़लूम के हिस्से में, बिना जुर्म सज़ाएँ।

तीरथ कि ज़ियारत हो,कोई पाठ पढ़ाएँ,
जायज़ है तभी, जब न मोहल्ले को सताएँ।

जलसे ये मज़ाहिब के, ये धर्मों कि सभाएँ,
"मुंकिर" न कहीं देश की, दौलत को जलाएँ।

*अफ्लाकी निदाएँ=कुरान वाणी *सदाक़त=सत्य वचन *ज़ियारत=दर्शन .

Friday, October 4, 2013

junbishen 82

ग़ज़ल 

अपने ही उजाले में, जिए जा रहा हूँ मैं,
घनघोर घटाओं को, पिए जा रहा हूँ मैं.

होटों को सिए, हाथ उठाए है कारवां,
दम नाक में रहबर के, किए जा रहा हूँ मैं।

मज़हब के हादसात, पिए जा रहे हो तुम,
बेदार हक़ायक़ को, जिए जा रहा हूँ मैं।

इक दिन ये जनता फूंकेगी, धर्मों कि दुकानें,
इसको दिया जला के, दिए जा रहा हूँ मैं।

फिर लौट के आऊंगा, कभी नई सुब्ह में,
तुम लोगों कि नफ़रत को, लिए जा रहा हूँ मैं।

फिर चाक न कर देना, सदाक़त के पैरहन,
"मुंकिर" का ग़रेबान सिए जा रहा हूँ मैं.

Wednesday, October 2, 2013

Junbishen 81


ग़ज़ल 

रहबर ने पैरवी का जुनूं ,यूँ बढा लिया,
आखें जो खुली देखीं तो, तेवर चढा लिया।

तहकीक़ ग़ोर  ओ फ़िक्र, तबीअत पे बोझ थे,
अंदाज़ से जो हाथ लगा, वह उठा लिया।

शोध और आस्था में, उन्हें चुनना एक था,
आसान आस्था लगी, सर में जमा लिया।

साधू को जहाँ धरती के, जोबन ज़रा दिखे,
मन्दिर बनाया और, वहीँ धूनी रमा लिया।

पाना है गर ख़ुदा को, तो बन्दों से प्यार कर,
वहमों कि बात थी ये, ग़नीमत कि पा लिया।

"मुकिर" की सुलह भाइयों से, इस तरह हुई,
खूं पी लिया उन्हों ने, ग़म इस ने खा लिया.