Sunday, June 28, 2015

Junbishen 656 Ghazal 18



 ग़ज़ल

गुस्ल ओ वज़ू से, दाग़े अमल धो रहे हो तुम,
मज़हब की सूइयों से, रफ़ू हो रहे हो तुम.

हर दाना दाग़दार हुवा, देखो फ़स्ल का,
क्यूँ खेतियों में अपनी ख़ता, बो रहे हो तुम।

हथियार से हो लैस, हँसी तक नहीं नसीब,
ताक़त का बोझ लादे हुए, रो रहे हो तुम।

होना है वाक़ेआते मुसलसल वजूद का,
पूरे नहीं हुए हो, अभी हो रहे हो तुम।

इंसानी अज़मतों का, तुम्हारा ये सर भी है,
लिल्लाह पी न लेना, चरन धो रहे हो तुम।

"मुंकिर" को मिल रही है, ख़ुशी जो हक़ीर सी,
क्यूँ तुम को लग रहा है, कि कुछ खो रहे हो तुम।

*अजमतों=मर्याओं *लिल्लाह=शपत है ईश्वर की

Friday, June 26, 2015

Junbishen 653 Ghazal 16




 ग़ज़ल

मख़लूक़ ए ज़माने1 की ज़रूरत को समझ ले,
बेहतर है इबादत से, तिजारत को समझ ले।

ऐ मरदे-जवान साल, तू अब सीख ले उड़ना,
माँ-बाप की मजबूर किफ़ालत२ को समझ ले।

हुजरे3 में मसाजिद के, अज़ीज़ों को मत पढ़ा,
गिलमा४ के तलब गारों की, ख़सलत को समझ ले।

बारातों, जनाजों के लिए, चाहिए इक भीड़,
नादाँ तबअ५ उनकी, सियासत को समझ ले।

मनवा के "उसे" अपने को मनवाएगा वह शेख़ ,
यह दूर कि कौडी है, नज़ाक़त को समझ ले।

'मुंकिर' हो फ़िदा ताकि बक़ा6 हाथ हो तेरे,
मशरूत7 वजूदों की, शहादत को समझ ले।

१-जन साधारण २ -पालन-पोषण ३-कमरों ४-सेवक बालक ५-सरल-स्वभाव ६-स्थायित्व ७- सशर्त

Thursday, June 25, 2015

Junbishen 652 Ghazal 15




ग़ज़ल
सच्चाइयों ने हम से, जो तक़रार कर दिया,
हमने ये सर मुक़ाबिले, दीवार कर दिया.

अपनी ही कायनात से, बेज़ार जो हुए,
इनको सलाम, उनको नमरकर कर दिया।

तन्हाइयों का सांप, जब डसने लगा कभी,
खुद को सुपुर्दे गज़िए, गुफ़्तार कर दिया।

देकर ज़कात सद्का, मुख़य्यर अवाम ने,
अच्छे भले ग़रीब को बीमार कर दिया।

हाँ को न रोक पाया, नहीं भी न कर सका,
न करदा थे गुनाह, कि इक़रार कर दिया।

रूहानी हादसात ओ अक़ीदत के ज़र्ब ने,
फितरी असासा क़ौम का, बेकार कर दिया.

Monday, June 22, 2015

Junbishen 653 -Ghazal 14



 ग़ज़ल

इस ज़मीं के वास्ते, मिल कर दुआ बन जाएँ हम ,
रह गुज़र इंसानियत हो, क़ाफ़िला बन जाएँ हम .

क्यों किसी नाहक की, मरज़ी की रज़ा बन जाएँ हम, 
मुख़्तसर सी ज़िंदगी का, हादसा बन जाएँ हम .

रद कर दो रहनुमाई की, ये नाहक़ रस्म को ,
हो न क़ायद कोई अपना , क़ायदा बन जाएं हम .

तुम ज़रा सी ज़िद को छोडो , हम ज़रा सी आन को .
क्या से क्या बन जाए ये घर, क्या से क्या बन जाएं हम. 

अब महा भारत न उपजे , न फसाद ए करबला ,
शर के बुत को तोड़ कर, अमनी फ़िज़ा बन जाएं हम. 

आख़िरी ज़ीने पे चढ़ कर, राज़ हस्ती का खुला ,
इन्तेहा है क़र्ब मुंकिर, इब्तिदा बन जाएँ हम.

Thursday, June 18, 2015

Junbishen 651 Ghazal 13



 ग़ज़ल

देखो पत्थर पे घास उग आई, अच्छे मौसम की सर परस्ती है,
ऐ क़यादत1 कि बाद कुदरत के, मेरी आंखों में तेरी हस्ती है।

भाग्य को गर न कर तू बैसाखी, तुझ को छोटा सा एक चिंतन दूँ,
सर्व संपन्न के बराबर ही, सर्वहारा की एक बस्ती है।

दहकाँ2 मोहताज दाने दाने का, और मज़दूर भी परीशाँ है,
सुनता किसकी दुआ है तेरा रब, उसकी रहमत कहाँ बरसती है।

ज़िन्दा लाशों में एक को खोजो, जिस में सुनने का होश बाक़ी हो,
उस से कह दो कि नींद महंगी है, उस से कह दो कि जंग सस्ती है।

मेरे हिन्दोस्तां का ज़ेहनी सफ़र, दूर दर्शन पे रोज़ है दिखता,
किसी चैनल पे धर्म कि पुड़िया, किसी चैनल पे मौज मस्ती है।

ज़ब्त बस ज़हर से ज़रा कम है, सब्र इक ख़ुद कुशी कि सूरत है,
इन को खा पी के उम्र भर 'मुंकिर' ज़िन्दगी मौत को तरसती है।

१-सरकार २-किसान

Tuesday, June 16, 2015

Junbishen 650 ghazal 12



 ग़ज़ल

कहीं हैं हरम1 की हुकूमतें, कहीं हुक्मरानी-ऐ-दैर2 है,
कहाँ ले चलूँ ,तुझे हम जुनूँ, कहाँ ख़ैर शर3 के बगैर है।

बुते गिल4 में रूह को फूँक कर, उसे तूने ऐसा जहाँ दिया,
जहाँ जागना है एक ख़ता, जहाँ बे ख़बर ही बख़ैर है।

बड़ी खोखली सी ये रस्म है, कि मिलो तो मुँह पे हो ख़ैरियत?
ये तो एक पहलू नफ़ी5 का है, कहाँ इस में जज़्बाए ख़ैर है।

मुझे ज़िन्दगी में ही चाहिए , तेरी बाद मरने कि चाह है,
मेरा इस ज़मीं पे है कारवाँ, तेरी आसमान की सैर है।

सभी टेढे मेढ़े सवाल हैं कि समाजी तौर पे क्या हूँ मैं,
मेरी ज़ात पात से है दुश्मनी, मेरा मज़हबों से भी बैर है।

१-काबा २-मन्दिर ३-झगडा ४-माटी की मूरत ५-नकारात्मक

Monday, June 15, 2015

Junbishen 649 Ghazal 11


 ग़ज़ल

वहम् का परदा उठा क्या, हक़ था सर में आ गया,
दावा ऐ पैग़म्बरी, हद्दे बशर में आ गया।

खौफ़ के बेजा तसल्लुत1, ने बग़ावत कर दिया,
डर का वो आलम जो ग़ालिब था, हुनर में आ गया।

यादे जानाँ तक थी बेहतर, आक़बत2 की फ़िक्र से,
क्यूं दिले नादाँ, तू ज़ाहिद के असर में आ गया।

जितनी शिद्दत से, दुआओं की सदा कश्ती में थी,
उतनी तेज़ी से सफ़ीना, क्यूँ भंवर में आ गया।

छोड़ कर हर काम, मेरी जान तू लाहौल3 पढ़,
मन्दिरो मस्जिद का शैतान, फिर नगर में आ गया।

एक दिन इक बे हुनर, बे इल्म और काहिल वजूद,
लेके पुडिया दीन की "मुंकिर" के घर में आ गया।

१-लदान २ -परलोक ३-धिक्कार मन्त्र

Saturday, June 13, 2015

Junbishen 648 Qataat 1-3



Qataat
कुछ न समझे खुदा करे कोई 
हिन्दू के लिए मैं इक, मुस्लिम ही हूँ आखिर ,
मुस्लिम ये समझते हैं, गुमराह है काफ़िर ,
इंसान भी होते हैं, कुछ लोग जहाँ में ,
गफ़लत में हैं ये दोनों, समझाएगा 'मुनकिर';


ज़िन्दगी कटी
बन्ने का और संवारने का मौक़ा न मिल सका,
खुशियों से बात करने का मौक़ा न मिला सका,
बन्दर से खेत ताकने में ही ज़िन्दगी कटी,
कुछ और कर गुजरने का मौक़ा न मिल सका।


बुख्ल(कृपण)
बन के बीमार लेट लेता हूँ,
मुंह पे चादर लपेट लेता हूँ,
ऐ शनाशाई१ तेरी आहट से,
अपनी किरनें समेट लेता हूँ।
१-परिचय

Wednesday, June 10, 2015

Junbishen 647 Rubaiyan 11-15



Rubaiyan 

साइंस की सदाक़त पे यकीं रखता हूँ,
अफकार ओ सरोकार का दीं रखता हूँ, 
सच की देवी का मैं पुजारी ठहरा, 
बस दिल में यही माहे-जबीं रखता हूँ.


ना ख्वान्दा ओ जाहिल में बचेंगे मुल्ला,
नाकारा ओ काहिल में बचेगे मुल्ला,
बेदार के क़ब्जे में समंदर होगा, 
सीपी भरे साहिल पे बचेगे मुल्ला.


इन्सान के मानिंद हुवा उसका मिज़ाज , 
टेक्सों के एवज़ में ही चले राजो-काज,
है दाद-ओ-सितद में वह बहुत ही माहिर,
देता है अगर मुक्ति तो लेता है खिराज.


अल्फाज़ के मीनारों में क्या रख्खा है, 
सासों भरे गुब्बारों में क्या रख्खा है,
इस हाल को देखो कि कहाँ है मिल्लत,
माज़ी के इन आसारों में क्या रख्खा है. 


हिस्सा है खिज़िर* का इसे झटके क्यों हो, 
आगे भी बढ़ो राह में अटके क्यों हो,
टपको कि बहुत तुमने बहारें देखीं,
पक कर भी अभी शाख में लटके क्यों हो.
 लम्बी आयु वाले एक कथित पैग़म्बर *

Monday, June 8, 2015

unbishen 646 rubai ( 6-10)

Rubsiysn

कफ़िर है न मोमिन, न कोई शैतां है,
हर रूप में, हर रंग में, बस इन्सां है,
मज़हब ने, धर्म ने, किया छीछा लेदर,
बेहतर है मुअतक़िद * नहीं जो हैवाँ  है।
*आस्थावान

मज़हब है रहे गुम पे, दिशा हीन धरम हैं,
आपस में दया भाव नहीं है, न करम हैं,
तलवार, धनुष बाण उठाए दोनों,
मानव के लिए पीड़ा हैं, इंसान के ग़म हैं।


सच्चे को बसद शान ही, बन्ने न दिया
बस साहिबे ईमान ही, बन्ने न दिया
पैदा होते ही कानों में, फूँक दिया झूट
इंसान को इंसान ही, बन्ने न दिया


ये लाडले, प्यारे, ये दुलारे मज़हब
धरती पे घनी रात हैं, सारे मज़हब
मंसूर हों, तबरेज़ हों, या फिर सरमद
इन्सान को हर हाल में, मारे मज़हब
   
हैवान हुवा क्यूँ न भला, तख्ता ए मश्क़
इंसान का होना है, रज़ाए अहमक
शैतान कराता फिरे, इन्सां से गुनाह
अल्लाह करता रहे, उट्ठक बैठक

Sunday, June 7, 2015

Junbishen 645 Rubaai (1-5)


Rubaiyan

तुम भी अगर जो सोचो, विचारो तो सुनो,
अबहाम१ के शैतान को, मारो तो सुनो,
कुछ लोग बनाते हैं, तुम्हें अपना सा,
ख़ुद अपना सा बनना है , गर यारो तो सुनो।
१-अन्धविश्वास

'मुंकिर' की ख़ुशी जन्नत, तौबा तौबा,
दोज़ख़ से डरे ग़ैरत, तौबा तौबा
बुत और ख़ुदाओं से ताल्लुक उसका,
लाहौल वला,क़ूवत, तौबा तौबा।

अल्लाह ने बनाया है, जहानों सामां,
मशकूक खिरद है, कहूं हाँ या नां,
इक बात यक़ीनन है, सुनो या न सुनो,
अल्लाह को बनाए है, क़यास इन्सां।

सद बुद्धि दे उसको तू , निराले भगवान्,
अपना ही किया करता है, कौदम नुक़सान,
नफ़रत है उसे, सारे मुसलमानों से,
पक्का हिन्दू है, वह कच्चा इंसान।

इंसान नहीफों को दवा देते हैं 
हैवान नहीफों को मिटा देते हैं ,
है कौन समझदार यहाँ दोनों में ,
कुछ देर ठहर जाओ बता देते हैं 


Monday, June 1, 2015

Junbishen 644 Nazm 5



 नज़्म 
क़फ़्से इन्कलाब1

हद बंदियों में करके, आज़ाद कर गए,
दी है नजात या फिर, बेदाद२ कर गए।

अरबो-अजम,हरब३ के, दर्जाते-इम्तियाज़4,
अपनों को दूसरों पर, आबाद कर गए।

जिस्मो, दिलों,दिमागों पर, हुक्मरान हैं वह,
बे बालो पर हमें यूँ ,सय्याद५ कर गए।

ज़ेहनो में भर दिया है, इक आख़िरी निज़ाम६ ,
हर नक्श इर्तेक़ा ७ को, बरबाद कर गए।

इंसान चाहता है,  बेख़ौफ़ ज़िन्दगी,
वह सहमी सी, ससी सी, इरशाद८ कर गए।

इक्कीसवीं सदी में, आया है होश 'मुंकिर',
उनके सभी सितम को, फिर याद कर गए।

१-इन्कलाब का पिंजडा २-जुल्म ३-मुल्कों की इस्लामी श्रेणी ४पदोन का अन्तर
५-आखेटक ६- व्यवस्था ७-रचनात्मक चिन्ह ८-फरमान