हिन्दी ग़ज़ल
मन को भेदे, भय से गूथे, विश्वासों का जाल,
अंधियारे में मुझे सताए, मेरा ही कंकाल।
तन सूखा, मन डूबा है, तू देख ले मेरा हाल,
रोक ले शब्दों कोड़ों को, खिंचने लगी है खाल।
सास ससुर हैं लोभी मेरे, शौहर है कंगाल,
नन्द की शादी रुकी है माँ, मत भेज मुझे ससुराल।
इच्छाएँ बैरी हैं सुख की, जी की हैं जंजाल,
जितनी कम से कम हों पूरी, बस उतनी ही पाल।
जब जब बाढ़ का रेला आया, जब जब पडा अकाल,
जनता दाना दाना तरसी, बनिया हुवा निहाल।
वाह वाह की भूख बढाए, टेट में रक्खा माल,
'मुंकिर' छोड़ डगर शोहरत की, पूँजी बची संभाल।
वाह !!!!!!
ReplyDeleteअतिसुन्दर ! लाजवाब ! मनमोहक ! भावपूर्ण ! प्रवाहपूर्ण !...
क्या कहूँ......पढ़कर मन मुग्ध हो गया....
जब जब बाढ़ का रेला आया, जब जब पडा अकाल,
ReplyDeleteजनता दाना दाना तरसी, बनिया हुवा निहाल।
वाह...लाजवाब...बेहतरीन....आज के हालात की तल्ख़ सच्चाईयां बताती आप की ये ग़ज़ल बेमिसाल है....
नीरज