Thursday, January 29, 2009

ग़ज़ल___सब रवाँ मिर्रीख१ पर और आप का यह दरसे-दीन२


ग़ज़ल

सब रवाँ मिर्रीख़ पर, और आप का यह दरसे-दीन ,

कफ़िरीनो-मुशरिकीनो-मुनकिरीनो-मोमनीन3


रौशनी कुछ सर पे कर लो, ताकि परछाईं का क़द,

छोटा हो जाए, तुम्हें कुछ अपने क़द पर हो यक़ीन।


सीखते क्या हो, इबादत और शरीअत के उसूल,

है ख़ुदा तो चाहता होगा, क़तारे ग़ाफ़िलीन।


तलिबाने अफ़ग़नी, और कार सेवक हैं अडे,

वह बजाएं, अपनी ढपली, यह बजाएं अपनी बीन।


जाने कितने काम बाक़ी हैं, जहाँ में और भी,

थोडी सी फुर्सत उसे, दे दे ख़याल ए  नाज़नीन।


साहबे ईमाँ! तुम्हारे हक़ में है 'मुंकिर' की राह,

सैकडों सालों से, ग़ालिब हैं ये तुम पर फ़ास्क़ीन4



१-मंगल ग्रह पर २-धर्म-शास्त्र दर्शन ३-शास्त्र-शीर्षक ४-झूठे

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