Tuesday, September 23, 2014

Junbishen 233


गज़ल

खुद से चुनी अज़ीयत ,
रोज़ा नफ़िल तहारत .

तामीर है नफी में ,
है इक जुनूं इबादत .

दो बीवी तेरह बच्चे ,
अल्लाह तेरी रहमत .

सब्र ओ रज़ा का चेहरा ,
दर पर्दा ए बुखालत .

बे तुख्म का बशर था ,
सुबहान तेरी क़ुदरत .

इज्ज़त दे चाहे ज़िल्लत ,
मल्हूज़ हो दयानत .

मशहूर हो रहा है ,
मुंकिर बफ़ज्ल ए तोहमत। 

Saturday, September 20, 2014

Junbishen 232

गज़ल

इक लम्हा लग्ज़िसों का अज़ाब ए हयात है,
ग़लबा है इक ख़ला का , भरी कायनात है. 

पाबंदियों की सुर्ख़ लकीरें लिए हुए ,
रातों को दिन कहे, तो कहे दिन को रात है .

बस है बहुत लतीफ़, हक़ीक़त को छोडिए ,
इन झूटे तर्जुमों में, बला की सबात है .

आइना तेरे दिल का, निगाहों में नस्ब है ,
सुनने की बात, और न कहने की बात है. 

मुन्सिफ की मुजरिमो की, हम आगोश हैं जड़ें, 
इन्साफ़ मर चुका है, ये क़ौमी वफ़ात है. 

ऐ डाकुओ! तुम्हारे भी अपने उसूल हैं, 
हातिम को लूट लो, बड़ी नाज़ेबा बात है. 

Wednesday, September 17, 2014

Junbishen 231


नज़्म 

ख़ुदकुशी 

ख़ुद कुशी जुर्म नहीं, उम्र के क़ैदी हैं सभी ,
मुझको आती है हँसी, आलम ए हैरत में कभी ,
रग पे, धड़कन पे, हुकूमत की इजारा दारी ,
अपनी सासों में भी, गोया है दख्ल ए सरकारी .

गर किसी का कोई एक चाहने वाला भी न हो ,
शर्म ओ ग़ैरत का, अगर एक नवला भी न हो ,
दर्द ए अमराज़ से जीने की सज़ा मिलती हो ,
एक लाचार को रहमों की, बला मिलती हो ,

बुज़दिली ये है कि, मर मर के जिए जाते हैं ,
है तो ज़िल्लत की, मगर सांस लिए जाते हैं .
मरना आसान नहीं है, ये बहुत मुश्किल है ,
वक़्त माकूल पर मर ले, वह बशर कामिल है. 

जिंदगानी पे अगर वाक़ई दिल से रो दे ,
जीना चाहें तो जिएन, वर्ना ज़िन्दगी खो दे .

कोढ़ी मफ़लूज ओ अपाहिज को चलो समझाएं ,
खुद कुशी करने की तरकीब, उन्हें बतलाएं ,
उनको बतलाएं, ज़मीं हद के उन्हें सहती है ,
ज़िन्दा लाशों से ज़मीं, पाक नहीं रहती है .

Monday, September 15, 2014

Junbishen 230


नज़्म 


फ़िक्र ए आक़बत  

ये कौन शख्स है, जो झुर्रियों का पैकर है ,
कमर को दोहरी किए, बर्फ़ जैसी सुब्ह में ,
सदा अज़ान की सुन कर, वह जानिब ए मस्जिद ,
रुकु सुजूद की हरकत को, भागा जाता है।

वह कोई और नहीं , देखो ग़ौर से उसको ,
जो अपने फ़न में था यकता , वह मिस्त्री है वह ,
लड़कपने में वह ग़ुरबत की मार खाए है ,
जवान था कभी तो गाज़ी ए मशक़्क़त था .

नहीं सुकून ए दरूं अब भी उसकी क़िस्मत में ,
खबर फ़लक़ की उसे अब सताए रहती है ,
बड़ी ही ज़्यादती की है , ये जिसने भी की हो ,
नहीफ़ बूढ़े को, ये फ़िक्र ए आकबत दे के . 

Saturday, September 13, 2014

Junbishen 239

रूबाइयाँ 


ग़ारत हैं इर्तेक़ाई मज़मून वले, 
अज़हान थके हो गए, ममनून वले,
साइन्स के तलबा को खबर खुश है ये, 
इरशाद हुवा "कुन" तो "फयाकून"वले,. 



तुम अपने परायों की खबर रखते थे, 
हालात पे तुम गहरी नज़र रखते थे, 
रूठे  हों कि छूटे हों तुम्हारे अपने, 
हर एक के दिलों में, घर रखते थे. 



बेयार ओ मददगार हमें छोड़ गए, 
कैसे थे वफ़ादार हमें छोड़ गए, 
अब कौन निगहबाने-जुनूँ होगा मेरा, 
लगता है कि घर बार हमें छोड़ गए. 

Thursday, September 11, 2014

Junbishen 238


दोहे

सब से मुंकिर राखियो , जय जय राम सलाम ,
भिड जाए जब चूतिया , मुंह पर लगे लगाम .


तन सिंचित मोती जड़ित , मन मोहन मुस्कान ,
है सृजित शोभा गणित ,अल्ला तेरी शान .


उपदेशों से न बनी , लाए ईश आदेश ,
शक्ति को भगती मिले , ऐसे हैं आदेश .


दावत हक की ले हैं , खिला रहे हैं भूख ,
इनके उनके फ़िक्र में भी गए हैं सूख .


खोले अपना डाक चार , बैठा उपर खुदाए ,
ख़त ले आया डाकिया , मार मार पढवाए .

Tuesday, September 9, 2014

Junbishen 237


रूबाइयाँ 

इन रस्म रवायत की मत बात करो,
तुम जिंसी खुराफात की मत बात करो,
कुछ बातें हैं मायूब नई क़दरों में ,
मज़हब की, धरम ओ ज़ात की मत बात करो.


आओ कि लबे-क़ल्ब, खुदा को ढूंढें,
रूहानी दुकानों में, वबा को ढूंढें,
क्यूं कौम हुई पस्त सफ़े अव्वल की?
मज़हब की पनाहों में ख़ता को ढूंढें.


क्यों सच के मज़ामीन यूँ मल्फूफ़ हुए, 
फ़रमान बजनिब हक, मौकूफ हुए, 
इंसान लरज़ जाता है गलती करके, 
लग्ज़िश के असर में खुदा मौसूफ़ हुए. 

Sunday, September 7, 2014

Junbishen 236


गज़ल

मय्यत का मेरी आग या दरिया हो ठिकाना ,
तुम खाता बही लेके मियाँ क़ब्र में जाना . 

पहले तो वज़ू और रुकुअ तक ही फसाना ,
मैं फंस जो गया तो मुझे उंगली पे नचाना .

इंसान का है ज़िक्र मवेशी का नहीं है ,
लाखों को हांकता है यहाँ फ़र्द ए शयाना  .

है गिलमा के तोहफ़े की तलब गार इमामत ,
हुजरे में मसाजिद के न बच्चों को पढ़ना .

अपनी ख़ुशी के रोड़े हटा ले तो मैं चलूँ ,
जिन रास्तों पर चलने को कहता है ज़माना .

अल्ला मियां की ज़ात घसीटे है बहस में ,
दर अस्ल मेरी ज़ात है ज़ाहिद का निशाना 

Friday, September 5, 2014

Junbishen 236


गज़ल

यह गलाज़त भरी रिशवत,
लग रहा खा रहे नेमत.

बैठी कश्ती पे माज़ी के,
फँस गई है बड़ी उम्मत.

कुफ्र ओ ईमाँ का शर लेके,
जग में फैला दिया नफरत.

सर कलम कर दिए कितने,
लेके इक नअरा ए वहदत.

सर बुलंदी हुई कैसी?
आप बोया करें वहशत.

धर्म ओ मज़हब हो मानवता,
रह गई एक ही सूरत.

माँ ट्रेसा बनीं नोबुल,
खिदमतों से मिली अज़मत.

हो गया हादसा आखिर,
हो गई थी ज़रा हफ्लत.

खा सका न वोह 'मुंकिर",
खा गई उसे है उसे दौलत.
*****
*माज़ी= अतीत *उम्मत=मुस्लमान *शर=बैर *वहदत=एकेश्वर

Tuesday, September 2, 2014

Junbishen 235



गज़ल

सुकूने क़ल्ब को, दिल की हसीं परी तो मिले,
तेरे शऊर को, इक हुस्ने दिलबरी तो मिले.

नफ़स नफ़स की बुख़ालत  को ख़त्म कर देंगे,
तेरे निज़ाम में, पाकीज़ा रहबरी तो मिले.

क़िनाअतें तेरी, तुझ को सुकूं भी देदेंगी,
कि तुझ को सब्र, बशकले क़लन्दरी तो मिले.

जेहाद अब नए मअनो को ले के आई है.
तुम्हें ''सवाब ओ ग़नीमत'' से, बे सरी तो मिले.

वहाँ पे ढूँढा तो, बेहतर न कोई बरतर था,
फ़रेब खुर्दाए एहसास ए बरतरी तो मिले.

तू एक रोज़ बदल सकता है ज़माने को,
ख़याल को तेरे 'मुंकिर" सुख़नवरी तो मिले.
*****
*बोखालत=कंजूसी *केनाआतें=संतोष *कलंदरी=मस्त-मौला *''सवाब ओ गनीमत'' =पुण्य एवं लूट-पाट*सुखनवरी=वाक्-

Monday, September 1, 2014

Junbishen 234



नज़्म 

ग़ुबार 

कुछ फ़ी सदी तरक्क़ी , हिदोस्तां की यारों ,
धर्मों ने खा लिया है , मज़हब ने पी लिया है .
लम्हे मशक़्क़तों के , बर्बाद हो रहे हैं ,
सजदों में जा रहे हैं , घन्टे बजा रहे हैं. 

ज्योतिष पे न्यूँ डाले , हर झूट को संभाले ,
तंजीमें बन रही हैं , ज़हरें उगल रही हैं .
टी वी के चैनलों पर ये राम भरोसे हैं ,
विज्ञानी थालियों में , अज्ञान परोसे हैं .

बनते जगत गुरु हैं , दुन्या में ज़र्द रू हैं . 
इनके शरण न जाओ, पहचान अपनी पाओ .
धर्मो का विष त्यागो , धर्मो से दूर भागो .
सच के गगन पे छाओ , विज्ञान को निभाओ .

धरती के कुछ नियम हैं , ये धर्म बस भरम हैं .
खुद अपने में बशर है ,सब खुद पे मुनहसर है .
मज़हब है एक साज़िश , समझो मेरी गुज़ारिश ,
बाहर से ये भले हैं , अन्दर से खोखले हैं .

धर्मी मेरे अमल हों , सच्चाई पर अटल हों ,
लालच न फ़ायदे हों ,डर हो न दबदबे हों .
हम ऐसे मुस्कुराएँ , मुजरिम न खुद को पाएँ 
हर चेहरे पर ख़ुशी हो , आबाद ज़िन्दगी हो .

गर अपना देश भारत धर्मों से पाक होता ,
पश्चिम हमारे आगे जूती की खाक होता .
होती गराँ न रोटी , छत और ये लंगोटी .
मय नोश हम भी होते , बा होश हम भी होते .

शीशे के घर में रहते , ये मुफ़लिसी न सहते .
तालीम होती लाज़िम , हम होते सब मुलाजिम .
घर बिजली मुफ़्त होती , हम को भी कार ढोती .
पाखंड न राज करता , सच सजता और संवरता .

दहकाँ शबाब पाता , मज़दूर गुनगुनाता ,
जोगी ये नर न बनता , मज़मून पर निखरता ,
न गुंडा राज होता , सच्चे पे ताज होता .
धर्मो ने मार डाला , मज़हब ने डाका डाला .

ऐ साकिनान भारत , थोड़ी सी ही जिसारत ,
है वक़्त जाग जाओ , मत झूट को निभाओ ,
अमरीका मुन्तज़िर है , योरोप को आस फिर है ,
तुम पूरे सो जो जाओ , बस धर्म को बचाओ ,
वह तुम को जाम कर दें , फिर से ग़ुलाम कर दें