Saturday, August 30, 2014

Junbishen 233


गीत

ख़लील जिब्रान के नाम 

बहुत थके ऐ हमराही हम , आओ थोड़ा जी जाएँ ,
मैं भी प्यासा , तुम भी प्यासे , इक दूजे को पी जाएँ .

अरमानो के बीज दबे हैं , बर्फ़ीली चट्टानों में ,
बरखा रानी हिम पिघला , अंकुर फूटें , हम लहराएँ .

कुछ न बोलें , मुँह न खोलें , शब्दों के परछाईं तले ,
चारों नयनों के दर्पन को , सारी छवि दे दी जाएँ .

तेरे तन की झीनी चादर , मेरे देह की तंग क़बा ,
आओ दोनों परिधानों को, उतन पुतन के सी जाएँ .

सूरज के किरनों से बंचित , नर्म हवाओं से महरूम ,
काया क़ैदी कपड़ों की है ,आओ बग़ावत की जाएँ .

Wednesday, August 27, 2014

Junbishen 232


दोहे


माँ बाप भाई बहन, रिश्ते सब ब्योपार ,
पत्नी पुत्री पुत्र पर, करके देख उधर . 

हाथन का फैलाए के , दीनेह खीस निपोर ,
कुत्ता भी शरमात है , जब मंगत है कौर .

तन की अग्नि से लड़ें , दिन भर जोगी राज ,
सपने को दोषी कहें , रात में हो जब काज .

खाते समय न बोलिए , मुल्ला जी फरमाएँ ,
पशुवन की ये विधि भली , मानव भी अपनाएँ .

श्रद्धेय जी का हुक्म है , श्रोता गण जब आएँ ,
जूता छाता बुद्धि को , बाहर ही रख आएँ

Tuesday, August 26, 2014

Junbishen 231


मुस्कुराहटें 

ख़बरदार 
(मादरी ज़बान में) 

अपने मन के चर का खेदो , चोर चोर चिल्लाएव जिन ,
अपने मन माँ खोट जो जानेव , खरि खरि बात सूनाएव जिन .

आए गयो तो सर आँखन पर , मुल्ला जी औ पंडित जी ,
जाउन कथा हम सुनि सुनि थकिगे , ओहका फिन दोहराएव जिन . 

आवत जात हैं लाल बुझक्कड़ अउर मदारी , इयाँ हुवां ,
आस पास जब तुम्हरे आवैं , देख्यो पन बउराएव जिन .

जात पात की बात करैं , जो अपने मत पर नाज़ करैं ,
उनके मज़हब के उपले , मुंह पर अपने पथवाएव जिन .

दुइन बहुत हैं, पालौ पोसव अउर पढ़ाओ ताऊ जी , 
धरती डांवां डोल भई है , एह पर बोझ बढाएव जिन .

इशक नहीं वोह खेल कि जिह्का तुम जईसे लरिकै खेलैं ,
मुंकिर दुबिहव ई गढ़ही मां , आगे गोड़ बढा एवजिन .
* जिन = dont 
*
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Sunday, August 24, 2014

Junbishen 230


रूबाइयाँ 

गफ़लत थी मेरी या कि तुम्हारी जय थी.
ग़ालिब थी मुरव्वत जो अजब सी शय थी,
तुम पर था चढ़ा जोश तशद्दुद का खुमार,
दो जाम भरे सुल्ह के, मेरी मय थी.


ऐ गाज़ी ए गुफ़तार ज़रा थोडा सँभल,
माहौल में है तेरे छिपी तेरी अजल,
यलगार लिए है तेरी गुफ्तार की बू,
गीबत का नतीजा न हो चाकू का अमल.


ज़िल्लतें उठाए , सर झुकाए चलते हैं ,
दाग़ ए दिल फफोले की तरह जलते हैं ,chal die
अहद कर चुके , कभी न लेंगे बदला ,
इन्तेक़ाम लिए हाथ को हम मलते है ,

Thursday, August 21, 2014

Junbishen 229


गज़ल

कम ही जानें कम पहचानें, बस्ती के इंसानों को,
वक़्त मिले तो आओ जानें, जंगल के हैवानों को.

अश्के गराँ जब आँख में  आएँ, मत पोछें मत बहने दें,
घर में फैल के रहने दें, पल भर के मेहमानों को.

भगवन तेरे रूप हैं कितने, कितनी तेरी राहें हैं,
कैसा झूला झुला रहा है, लोगों के अनुमानों को.

मुर्दा बाद किए रहती हैं, धर्म ओ मज़ाहिब की जंगें,
क़ब्रस्तनों की बस्ती को, मरघट के शमशानों को.

सेहरा के शैतान को कंकड़, मारने वाले हाजी जी!
इक लुटिया भर जल भी चढा, दो वादी हे भगवानो को.

बंदिश हम पर ख़त्म हुई है, हम बंदिश पर ख़त्म हुए,
"मुंकिर" कफ़न की गाठें खोलो, रिहा करो बे जानो को.

Wednesday, August 20, 2014

Junbishen 228


गज़ल

उन की मुट्ठी में कभी, मेरे पर आते नहीं ,
हम पे पीरे ख़ुद नुमाँ, के असर आते नहीं।

है तग़य्युर जुर्म तुम, ये सबक पढ़ते रहो,
राह में अपने ये, ज़ेरो ज़बर आते नहीं।

है लताफत जिंस में, वह भला बचते हैं क्यूं,
यह ब्रहमचारी हैं क्या? गौर फ़रमाते नहीं।

आज दीवाना तो बस, इस लिए दीवाना है,
छेड़ने वाले उसे क्यूँ नज़र आते नहीं।

मेरे मुजरिम यूँ भुला बैठे हैं, अपने जुर्म को,
सामने आ जाते हैं, अब वह कतराते नहीं।

Monday, August 18, 2014

Junbishen 227


गज़ल

बडी कोताहियाँ जी लीं, बड़ी आसानियाँ जी लीं,
कि अब जीना है फ़ितरत को, बहुत नादानियाँ जी लीं.


तलाशे हक़ में रह कर, अपनी हस्ती में न कुछ पाया,
कि आ अब अंजुमन आरा!, बहुत तन्हाईयाँ जी लीं.

जवानी ख्वाब में बीती, ज़ईफ़ी सर पे आ बैठी,
हक़ीक़त कुछ नहीं यारो, कि बस परछाइयाँ जी लीं.

मेरी हर साँस, मेरे हाफ्ज़े से, मुन्क़ते कर दो,
कि बस उतनी ही रहने दो, कि जो रानाइयाँ जी लीं.

जो घर में प्यार के काबिल नहीं, तो दर गुज़र घर हो,
बहुत ही सर कशी झेलीं, बहुत ही ख़ामियाँ जी लीं.

तआकुब क्या, तजाऊज़, कुछ ख़ताएँ कर रहीं 'मुंकिर',
इन्हें रोको कि कफ़्फ़ारे  की, हमने सख्तियाँ जी लीं.
*****
*फितरत=प्रक्रिति *हक=खुदा * हाफ्ज़े=स्मरण *मुन्क़ते=विच्छिन *तआकुब=पीछा करना *तजाऊज़=उल्लंघन *कफ्फारे=प्राश्यचित

Saturday, August 16, 2014

Junbishen 226


गीत 
ख़लील जिब्रान के नाम 

बहुत थके ऐ हमराही हम , आओ थोड़ा जी जाएँ ,
मैं भी प्यासा , तुम भी प्यासे , इक दूजे को पी जाएँ .

अरमानो के बीज दबे हैं , बर्फ़ीली चट्टानों में ,
बरखा रानी हिम पिघला , अंकुर फूटें , हम लहराएँ .

कुछ न बोलें , मुँह न खोलें , शब्दों के परछाईं तले ,
चारों नयनों के दर्पन को , सारी छवि दे दी जाएँ .

तेरे तन की झीनी चादर , मेरे देह की तंग क़बा ,
आओ दोनों परिधानों को, उतन पुतन के सी जाएँ .

सूरज के किरनों से बंचित , नर्म हवाओं से महरूम ,
काया क़ैदी कपड़ों की है ,आओ बग़ावत की जाएँ .

Thursday, August 14, 2014

Junbishen 225


नज़्म 
कुदरत की चोलियाँ

विज्ञान के विरुद्ध, हैं पुजारी की बोलियाँ,
जो भर रहा है, दान के टुकड़ों से झोलियाँ,
जो बेचता है,जनता को धर्माथ गोलियाँ ,
छूती हैं जिनके पाँव को, निंद्रा में टोलियाँ,
जो मठ में दासियों की, उतारे हैं डोलियाँ,
हर रात है दीवाली, जिनकी रोज़ होलियाँ।

विज्ञान है मनुष्य के लक्छों में अग्रसर ,
वैज्ञानिकों को अपनी, कहाँ है कोई ख़बर,
जन्नत की आरजू है, न दोज़ख का कोई डर,
हुज्जत से, नफ़रतों से, सियासत से ख़ाली सर,
ईजाद कुछ नया हो, हैं इनकी ठिठोलियाँ,
क़ुदरत की खोलते हैं, नई रोज़ चोलियाँ।

Monday, August 11, 2014

Junbishen 224



पाकर आपस में लड़े, दीन धरम का ज्ञान ,
इनमें कितना मेल था , जब थे अज्ञान .
दोहे


चला अरब से क़ाफ़िला , न पहुँचा जापान ,
भारत में फंस सा गया , इस्लामी अभियान .


पानी की कल कल सुने, सुन ले राग बयार।
ईश्वर वाणी है यही, अल्ला की गुफ्तार॥


उनका अल्ला एक है , उसके नबी रसूल ,
पुख्ता ये ईमान है , ढीली हैं सब चूल .


सर पे सूरज है खड़ा , अल्ला रख्खा जाग ,
मज़हब ही रुसवाई से,भाग सके तो भाग .
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Friday, August 8, 2014

Junbishen 223



मुस्कुराहटें 
सलोनी ग़ज़ल 
(मादरी ज़बान में)

आंधी पानी आवत है , चिड़िया ढोल बजावत है .
बदरी छपरा छावत है , सूरज आँख चुरावत है .
मछरी ताल मां नाचत है , मेढक सुर मां गावत है .
पागल मेघा गर्जत है , मस्त बयरया धावत है .
गोरी तन का सीचत है, छोरा नयन सुखावत है .

जी मां कितनी रहत है, बरषा रूप रिझावत है .
दूर खड़ी भरमावत है , दुविधा मोर बगावत है .
कैसी अद्भुत चाहत है , यह सावन की दावत है .
भावत  है सो भावत है , मुंकिर क़दम बढ़ावत है .

Monday, August 4, 2014

Junbishen 222


रूबाइयाँ 

कब तक ते रवादारियाँ जायज़ होंगी,
औरत की ये कुरबानियाँ जायज़ होंगी,
हर रोज़ तलाक़ और हल्लाला ओ निकाह?
कब तक ये कलाकारयाँ जायज़ होंगी,


शैतान को भड़काते, किसी ने देखा?
आवाज़ सुनी उसकी, किसी नें समझा?
आओ मैं दिखता हूँ अगर चाहो तो,
तबलीग के परदे में छिपा है बैठा.


ईसाई गनीमत हैं, बदल जाते हैं,
हालात के साँचे में ही ढल जाते हैं,
फ़ितरत के हुए कायल, साइंस शुआर,
मजलिस की जिहालत से निकल जाते हैं.

Friday, August 1, 2014

Junbishen 221



गज़ल

तारीकियों से पहले, सरे शाम चाहिए,
हर सुब्ह आगही से भरा, जाम चाहिए।

अब जशने हुर्रियत को फ़रामोश भी करो,
आजादी ऐ मुआश3 का पैग़ाम चाहिए।

आरी हथौडा छोड़ के, चाक़ू उठा लिया,
मेहनत कशों के हाथों को, कुछ काम चाहिए।

मैं भी दबाए बैठा था, मुद्दत से उसके ऐब,
उस को भी एक ज़िद थी, कि इलज़ाम चाहिये।

कानो में रूई डाल के, बैठा है वह अमीन,
कुछ शोर चाहिए, ज़रा कोहराम चाहिए।

जद्दो जेहाद में, जाने जवानी कहाँ गई,
"मुंकिर" को बाक़ियात में आराम चाहिए।

१- अधकार २ -स्वतंत्रता दिवस ३-जीविका