Wednesday, December 30, 2015

Junbishen 731



मेरी खुशियाँ

जा पहुँचता हूँ कभी डूबे हुए सूरज तक,
ऐसा लगता है मेरी ख़ुशियाँ वहीं बस्ती हैं,
जी में आता है,वहीं जा के रिहाइश कर लूँ ,
क्या बताऊँ कि अभी काम बहुत बाक़ी हैं।

मेरी  ख़ुशियाँ मुझे तन्हाई में ले जाती हैं,
क़र्ब ए आलाम1 से कुछ देर छुड़ा लेती हैं,
पास वह आती नहीं, बातें किया करती हैं,
बीच हम दोनों के इक सिलसिला ए लासिल्की2 है।

मेरी खुशियों की ज़रा ज़ेहनी बलूग़त3 देखो,
पूछती रहती हैं मुझ से मेरी बच्ची की तरह,
सच है रौशन तो ये तारीकियाँ४ ग़ालिब क्यूं हैं?
ज़िन्दगी गाने में सब को ये क़बाहत५ क्यूं है?

एक जुंबिश सी मेरी सोई खिरद६ पाती है,
अपनी लाइल्मी७ पे मुझ को भी मज़ा आता है,
देके थपकी मैं इन्हें टुक से सुला देता हूँ ,
इस तरह लोरियां मैं उनको सुना देता हूँ ----

"ऐ मेरी खुशियों! फलो,फूलो,बड़ी हो जाओ,
अपने मेराज८ के पैरों पे खड़ी हो जाओ,
इल्म आने दो नई क़दरें ९ ज़रा छाने दो,
साज़ तैयार है, नगमो को सदा१० पाने दो,

तुम जवाँ होंगी, बहारों की फ़िज़ा छाएगी,
ज़िन्दगी फ़ितरते आदम की ग़ज़ल जाएगी".
"रौशनी इल्मे नव११ की आएगी,
सारी तारीकियाँ मिटाएगी,

जल्दी सो जाओ सुब्ह उठाना है,
कुछ नया और तुमको पढ़ना है".


१- व्याकुळ २-वायर-लेस ३-बौधिक व्यसक्ता4-अंधकार ५ -विकार ६-अक्ल ७-अज्ञानता ८-शिखर ९-मान्यताएं१०-आवाज़ ११-नई शिक्षा

Monday, December 28, 2015

Junbishen 730



हक़ बजानिब

वहदानियत2 के बुत को गिराया तो ठीक था,
इस सेह्र किब्रिया३ में न आया तो ठीक था।

गर हुस्न को बुतों में उतारा तो ठीक था,
पत्थर में आस्था को तराशा तो ठीक था।

फरमूदः ए फ़लक़ ४ के तज़ादों५ छोड़ कर,
धरती के मूल मन्त्र को पाया तो ठीक था।

माटी सभी की जननी शिकम६ भरनी तू ही है,
पुरखों ने तुझ को माता पुकारा तो ठीक था।

ऐ आफ़ताब7! तेरी शुआएं ८ हैं ज़िन्दगी,
तुझ को किसी ने शीश नवाया तो ठीक था।

पेड़ों की बरकतों से सजी कायनात९ है,
उन पर खिरद१० ने पानी चढाया तो ठीक था।

आते हैं सब के काम मवेशी अज़ीज़ तर ११ ,
इन को जूनून के साथ जो चाहा तो ठीक था।

इक सिलसिला है, मर्द पयम्बर का आज तक,
औरत के हक़ को देवी बनाया तो ठीक था।

नदियों,समन्दरों, से हमे ज़िन्दगी मिली,
साहिल पे उनके जश्न मनाया तो ठीक था।

गुंजाइशें ही न हों, जहाँ इज्तेहाद१२ की,
ऐसे में लुत्फ़ ऐ कुफ़्र १३ जो भाया तो ठीक था।

फ़िर ज़िन्दगी को रक्स की आज़ादी मिल गई,
'मुंकिर' ने साज़े-नव१४ जो उठाया तो ठीक था।

१-सत्य की ओर २-एकेश्वर ३-महा ईश्वर का जादू ४-आकाश वाणी ५-दोमुही बातें ६-उदार पोषक ७-सूरज ८-किरने ०-ब्रह्मांड 
१०-बुद्धि ११-प्यारे १२-संशोधन १३-कुफ्र का मज़ा १४-नया साज़.

Friday, December 25, 2015

Junbishen 729



आस्तिक और नास्तिक

बच्चों को लुभाते हैं परी देव के क़िस्से,
ज़हनों में यकीं बन के समाते हैं ये क़िस्से,

होते हैं बड़े फिर वह समझते हैं हक़ीक़त,
ज़ेहनों में मगर रहती है कुछ वैसी ही चाहत।

इस मौके पे तैयार खडा रहता है पाखण्ड,
भगवानो-खुदा, भाग्य, कर्म ओ  का क्षमा दंड।

नाकारा जवानों को लुभाती है कहानी,
खोजी को मगर सुन के सताती है कहानी।

कुछ और वह बढ़ता है तो बनता है नास्तिक,
जो बढ़ ही नहीं पारा वह रहता है आस्तिक।

Wednesday, December 23, 2015

Junbishen 728



  हिंदुत्व

सदियों से गढ़ते गढ़ते, गढ़ाया है ये हिदुत्व,
पलकों को मूंदते नहीं, आया है ये हिंदुत्व।

तबलीग़, जोर व् ज़ुल्म, जिहादों से दूर है,
सद भावी आचरण से, नहाया है ये हिंदुत्व।

तारीख़ का लिहाज़ है, जुग़राफ़िया का पास,
आब ओ हवा में अपने, नहाया है ये हिंदुत्व।

नदियों में तैरता है, पहाड़ों में बसा है,
सूरज को, चाँद तारों को, भाया है ये हिंदुत्व।  

आओ मियाँ कि देखें, ज़रा घुस के इसका हुस्न,
पुरखों का है, कहाँ से पराया है ये हिंदुत्व। 

क़द्रें नई समेट के, चलता है डगर पे,
हाँ, इर्तेकाई हुस्न की, काया है ये हिंदुत्व।

तहजीब ऍ अर्ज़ की ये, मुसलसल हयात है,
गर नाप तौल हो, तो सवाया है ये हिंदुत्व।

अरबों के फ़ल्सफ़े हि, न भाएँ ख़मीर को,
'मुंकिर' को भाए हिन्द, सुहाया है ये हिंदुत्व। 

Sunday, December 20, 2015

Junbishen 727



 ग़ज़ल
आज़माने की बात करते हो,
दिल दुखाने की बात करते हो।

उसके फ़रमान में, सभी हल हैं,
किस फ़साने की बात करते हो।

मुझको फुर्सत मिली है रूठों से,
तुम मनाने की बात करते हो।

ऐसी मैली कुचैली गंगा में,
तुम नहाने की बात करते हो।

मेरी तक़दीर का लिखा सब है,
मार खाने की बात करते हो।

झुर्रियां हैं जहाँ कुंवारों पर ,
उस घराने की बात करते हो।

हाथ 'मुंकिर' दुआ में फैलाएं,
क़द घटाने की बात करते हो।

Friday, December 18, 2015

Junbishen 726




 ग़ज़ल
है नहीं मुनासिब ये, आप मुझ को तडपाएँ,
ज़लज़ला न आने दें, मेह भी न बरसाएं।

बस कि इक तमाशा हैं, ज़िन्दगी के रोज़ ओ शब,
सुबह हो तो जी उठ्ठें, रात हो तो मर जाएँ।

आप ने ये समझा है ,हम कोई खिलौने हैं,
जब भी चाहें अपना लें, जब भी चाहें ठुकराएँ।

भेद भाव की बातें, आप फिर लगे करने,
आप से कहा था न, मेरे धर पे मत आएं।

वक़्त के बडे मुजरिम, सिर्फ धर्म ओ मज़हब हैं,
बेडी इनके पग डालें, मुंह पे टेप चिपकाएँ।

तीसरा पहर आया, हो गई जवानी फुर्र,
बैठे बैठे "मुंकिर" अब देखें, राल टपकाएं.

Wednesday, December 16, 2015

Junbishen 725



 ग़ज़ल

वह  जब क़रीब आए ,
इक खौफ़ दिल पे छाए।

जब प्यार ही न पाए,
महफ़िल से लौट आए।

दिन रत गर सताए,
फ़िर किस तरह निंभाए?

इस दिल से निकली हाय!
अब तू रहे की जाए।

रातों की नींद खो दे,
गर दिन को न सताए।

ताक़त है यारो ताक़त,
गर सीधी रह पाए।

है बैर भी तअल्लुक़
दुश्मन को भूल जाए।

हो जा वही जो तू है,
होने दे हाय, हाय।

इक़रार्यों का काटा,
'मुंकिर' के पास आए.

Monday, December 14, 2015

Junbishen 724



 ग़ज़ल

कौन आमादाए फ़ना होगा,

कोई चारा न रह गया होगा।

लूट लूँ सोचता हूँ ख़ुद को मैं,

दूसरे लूट लें लूट लें बुरा होगा।

एडियाँ जूतियों की ऊँची थीं,

क़द बढ़ाने में गिर गया होगा।

दे रहे हो ख़बर क़यामत की,

कान में तिनका चुभ गया होगा।

अब तो तबलीग़१ वह चराता है,

पहले तबलीग़ को चरा होगा।

दफ़अतन२ वह उरूज3 पर आया,

कोई पामाल4 हो गया होगा।

मेरे बच्चे हैं कामयाब सभी,

मेरे आमाल का सिलह होगा।

आँखें राहों पे थीं बिछी 'मुंकिर',

किस तरह माहे-रू चला होगा।

१-धर्म प्रचार २-अचानक ३-शिखर ४-मलियामेt

Friday, December 11, 2015

Junbishen 723



 ग़ज़ल

आबला पाई है, दूरी है बहुत,
है मुहिम दिल की, ज़रूरी है बहुत.

कुन कहा तूने, हुवा दन से वजूद,
दुन्या ये तेरी, अधूरी है बहुत।

रहनुमा अपनी शुजाअत में निखर,
निस्फ़ मर्दों की हुजूरी है बहुत।

देवताओं की पनाहें बेहतर,
वह खुदा, नारी ओ नूरी है बहुत।

तेरे इन ताज़ा हिजाबों की क़सम,
तेरा यह जलवा, शुऊरी है बहुत।

इम्तेहां तुम हो, नतीजा है वजूद,
तुम को हल करना ज़रूरी है बहुत।

Tuesday, December 8, 2015

Junbishen 722




 ग़ज़ल

ज़िन्दगी है कि मसअला है ये,
कुछ अधूरों का, सिलसिला है ये।

आँख झपकी तो, इब्तेदा है ये,
खाब टूटे तो, इन्तहा है ये।

वक़्त की सूईयाँ, ये सासें हैं,
वक़्त चलता कहाँ, रुका है ये।

ढूँढता फिर रहा हूँ ,खुद को मैं,
परवरिश, सुन कि हादसा है ये।

हूर ओ गिल्मां, शराब, है हाज़िर,
कैसे जन्नत में सब रवा है ये।

इल्म गाहों के मिल गए रौज़न,
मेरा कालेज में दाखिला है ये।

दर्द ए मख्लूक़ पीजिए "मुंकिर"
रूह ए बीमार की दवा ये हो।

Friday, December 4, 2015

Junbishen 721



 ग़ज़ल
गर एतदाल हो, तो चलो गुफ्तुगू करें,
तामीर रुक गई है, इसे फिर शुरू करें.

इन कैचियों को फेकें, उठा लाएं सूईयाँ,
इस चाक दामनी को, चलो फिर रफ़ु करें।

इक हाथ हो गले में, तो दूजे दुआओं में,
आओ कि दोस्ती को, कुछ ऐसे रुजू करें।

खेती हो पुर खुलूस, मुहब्बत के बीज हों,
फ़सले बहार आएगी, हस्ती लहू करें।

रोज़ाना के अमल ही, हमारी नमाजें हों,
सजदा सदक़तों पे, सहीह पर रुकु करें।

ए रब कभी मोहल्ले के बच्चों से आ के खेल,
क़हर ओ ग़ज़ब को छोड़, तो "मुंकिर"वजू करें.


*एतदाल=संतुलन *तामीर=रचना *पुर खुलूस=सप्रेम *रुकु=नमाज़ में झुकना *वजू=नमाज़ कि तय्यारी को हाथ मुंह धोना

(क़ाफ़ियाओं में हिंदी अल्फ़ाज़ मुआज़रत के साथ )

Thursday, December 3, 2015

Junbishe 720



 ग़ज़ल



सुममुम बुक्मुम उमयुन कह के, फ़हेम के देते हो ताने,
दिल में मरज़ बढा के मौला, चले हो हम को समझाने।

लम यालिद वलं यूलद, तुम हम जैसे मख्लूक़ नहीं,
धमकाने, फुसलाने की ये चाल कहाँ से हो जाने?

कभी अमन से भरी निदाएँ, कभी जेहादों के गमज़े,
आपस में खुद टकराते हैं, तुम्हरे ये ताने बाने।

कितना मेक अप करते हो तुम, बे सर पैर की बातों को,
मुतरज्जिम, तफ़सीर निगरो! "बड़ बड़ में भर के माने।

आज नमाजें, रोजे, हज, ख़ेरात नहीं, बर हक़ ऐ हक़!
मेहनत, ग़ैरत, इज़्ज़त, का युग आया है रब दीवाने।

बड़े मसाइल हैं रोज़ी के, इल्म बहुत ही सीखने हैं,
कहाँ है फ़ुरसत सुनने की अब, फ़लक़ ओ हशर के अफ़साने।

कैसे इनकी, उनकी समझें, अपनी समझ से बाहर है,
इनके उनके सच में "मुंकिर" अलग अलग से हैं माने।

******
नोट-पहले तीन शेरों में शायर सीधा अल्लाह से मुखातिब है , चौथे में उसके एजेंटों से और आखिरी तीन शेरों में आप सब से. अर्थ गूढ़ हैं,
 काश कि कोई सच्चा इस्लामी विद्वान् आप को समझा सके.

Monday, November 30, 2015

Junbishen 719



 ग़ज़ल

मक्का सवाब है, न मदीना सवाब है,
घर बार की ख़ुशी का, सफ़ीना सवाब है।

बे खटके हो हयात, तो जीना सवाब है,
बच्चों का हक़ अदा हो, तो पीना सवाब है।

माथे पे सज गया तो, पसीना सवाब है,
खंता उठा के लाओ, दफ़ीना सवाब है।

भूलो यही है ठीक, कि बद तर है इन्तेक़ाम,
बुग्ज़ ओ, हसद, निफ़ाक़, न क़ीना सवाब है।

जागो ऐ नव जवानो! क़नाअत हराम है,
जूझो, कहीं, ये नाने शबीना सवाब है?

"मुंकिर" को कह रहे हो, दहेरया है दोजखीदोज़खी  ,
आदाब ओ एहतराम, क़रीना सवाब है।

*बुग्जो, हसद, निफाक, कीना =बैर भावः *कनाअत=संतोष *नाने शबीना =बसी रोटी

Thursday, November 26, 2015

Junbishen 718



 ग़ज़ल

अनसुनी सभी ने की, दिल पे ये मलाल है,
मैं कटा समाज से, क्या ये कुछ ज़वाल है।

कुछ न हाथ लग सका, फिर भी ये कमाल है,
दिल में इक क़रार है, सर में एतदाल है।

जागने का अच्छा फ़न, नींद से विसाल है,
मुब्तिला ए रोज़ तू  , दिन में पाएमाल है।

ख्वाहिशों के क़र्ज़ में, डूबा बाल बाल है,
ख़ुद में कायनात मन, वरना मालामाल है।

है थकी सी इर्तेक़ा, अंजुमन निढाल है,
उठ भी रह नुमाई कर, वक़्त हस्बे हाल है।

पेंच ताब खा रहे हो, तुम अबस जुनैद पर ,
खौफ़ है कि किब्र? है कैसा ये जलाल है

Tuesday, November 24, 2015

Junbishen 717



 ग़ज़ल

इस्तेंजाए ख़ुश्क की, इल्लत में लगे हैं,
वह बे नहाए धोए, तहारत में लगे हैं.

मीरास की बला, ये बुजुर्गों से है मिली,
तामीर छोड़ कर वह, अदावत में लगे हैं.

वह गिर्द मेरे, अपनी ग़रज़  ढूँढ रहा है,
हम बंद किए आँख, मुरव्वत में लगे हैं.

दोनों को सर उठाने की, फुर्सत ही नहीं है,
ख़ालिक़ से आप, हम है कि खिल्क़त से लगे हैं.

तन्हाई चाहता हूँ , तड़पने के लिए मैं,
ये सर पे खड़े, मेरी अयादत में लगे हैं.

'मुंकिर' ने नियत बांधी है, अल्लाह हुअक्बर,
फिर उसके बाद, आयते ग़ीबत में लगे हैं.$
*****
# इस शेर का मतलब किसी मुल्ला से दरयाफ्त करें.*मीरास=पैत्रिक सम्पत्ति *तामीर=रचनात्मक कार्य *खालिक=खुदा 
*अयादत =पुरसा हाली $=कहते हैं की नमाज़ पढ़ते समय शैतान विचारो में सम्लित हो जाता है.

Saturday, November 21, 2015

Junbishen 716




ज़ीने बज़ीने 
जो छोड़ के बरेली को पहुँचे हैं देवबंद ,
क़िस्तों में कर रहे हैं वह तब्दीलियाँ पसंद ,
बस थोड़े फासले पे है इंसानियत की राह ,
करते रहें सफ़र कि रहे हौसला बुलंद .

वादा तलब 
नाज़ ओ अदा पे मेरे न कुछ दाद दीजिए ,
मत हीरे मोतियों से मुझे लाद दीजिए ,
हाँ इक महा पुरुष की है, धरती को आरज़ू ,
मेरे हमल को ऐसी इक औलाद दीजिए .

काश 
तोहफ़ा पाने का हसीं एहसास होती ज़िंदगी ,
ज़िंदा रहने के लिए यूँ रास होती ज़िंदगी ,
नब्ज़ मंडलाती न हरदम यूँ बक़ा के वास्ते ,
धड़कने होतीँ न , पैहम सास होती ज़िंदगी .

Thursday, November 19, 2015

Junbishen 715

रुबाइयाँ 


बस यूं ही ज़रा पूछ लिया क्यों है खड़ा?
दो चार अदद घूँसे मेरे मुंह जड़ा ,
आई हुई शामत थी , मज़ा चखना था,
सोए हुए कुत्ते पे मेरा पैर पड़ा. 

मज्मूम सियासत की फ़ज़ा है पूरी,
हमराह मुनाफ़िक़ हो नहीं मजबूरी, 
ढोता है गुनाहों को, उसे ढोने दो,
इतना ही बहुत है कि रहे कुछ दूरी.

मेहनत की कमाई   पे ही जीता है फ़कीर,
हर गाम कटोरे में भरे अपना ज़मीर,
फतवों की हुकूमत थी,था शाहों का जलाल,
बे खौफ़ खरी बात ही करता था कबीर.

फ़न को तौलते रहे, गारत थी फ़िक्र,
था मेराज पर उरूज़, नदारत थी फ़िक्र,
थी ग़ज़ल ब-अकद, समाअत क्वाँरी,
थी ज़बाँ ब वस्ल , ब इद्दत थी फ़िक्र. 

खुद मुझ से मेरा ज़र्फ़ जला जाता है,
कज़ोरियों पर हाथ मला जाता है,
दिल मेरा कभी मुझ से बग़ावत करके,
शैतान के क़ब्ज़े में चला जाता है.

Tuesday, November 17, 2015

jUNBISHEN 714



मुस्लिम राजपूतों के नाम

ख़ुद को कहते हो, गुलामान ए रसूले-अरबी1,
हैसियत दूसरे दर्जे के लिए हैं अजमी2,
तीसरा दर्जा हरब३, रखता है 'मुंकिर', हरबी.
और फ़िर दर्जा-ऐ-जिल्लत4 पे हैं हिन्दी मिस्कीं5,
बरतरी६ को लिए, मग़रूर हैं काबा के अमीं७,
सोच है कैसी तुम्हारी ? भला कैसा है यकीं ?

हज से लौटे हुए हाजी से हक़ीक़त८ पूछो,
एक हस्सास९ से कुछ, क़र्ब ए हिक़ारत पूछो।

है वतन जो भी तुम्हारा, है तुम्हें उसकी क़सम,
खून में पुरखो की धारा है ?तुम्हें उसकी क़सम,
नुत्फ़े१० की आन गवारा है? तुम्हें उसकी  क़सम,
ज़ेहन का कोई इशारा है ? तुम्हें उसकी क़सम,

अपने पुरखों की ख़ता क्या थी भला, हिदू थे ?
क़बले इस्लाम सभी, हस्बे ख़ुदा हिन्दू थे।
ज़ेब११ देता ही नहीं, पुरखो की अज़मत१२ भूलो,
उनको कुफ़्फ़र१३ कहो, और ये बुरी गाली दो।

क़ौमे होती हैं नसब14 की, कोई बुनियाद लिए,
अपने मीरास१५ से पाई हुई, कुछ याद लिए,
तुम बहुत ख़ुश हो, बुरे माज़ी१६ की बेदाद१७ लिए,
अरबों की ज़ेहनी गुलामी18 की, ये तादाद लिए।

अपने खूनाब19 की, नुत्फ़े की तहारत20 समझो,
जाग जाओ, नई उम्मत21 की ज़रूरत समझो।

अज़ सरे नव22, नया एहसास जगाना होगा,
इक नए बज़्म२३ का, मैदान सजाना होगा।
इक नई फ़िक्र24 का, तूफ़ान उठाना होगा,
मादरे हिंद में ही, काबा बनाना होगा।

राम और श्याम से भी, हाथ मिलाना होगा,
नानको-बुद्ध को, सम्मान में लाना होगा,
दूर तक माज़िए नाकाम25 में जाना होगा,
इस ज़मी का बड़ा इन्सान बनाना होगा।

१-मुहम्मद-दास 2-अरब गैर अरब मुस्लिम देशों को अजम कहते हैं ,वहां के रहने वालों को अजमी अर्थात गूंगा कहते हैं जोकि हीन माने जाते हैं .ठीक ऐसा ही हिंदू शब्द अरबों का दिया हुआ है जिसके माने अप शब्द हैं जिस पर कुछ लोग गर्व करते हैं .३-सभी गैर मुस्लिम देश को मुस्लिम हरब कहते हैं ।वहां के बाशिंदों को हरबी यानी हरबा (चल बाज़ी )करने वाला. ४- अपमानित श्रेणी ५-भारतीय भिखारी (ये हमारे लिए अरबियों का संबोधन है ) ६-श्रेष्टता ७-न्यास धारी ८-सच्चाई १०-शुक्र ,वीर्य ११-शोभा १२-मर्यादा १३-मूर्ति-पूजक १४-पीढी १५-दाय १६-अतीत १७-ज़ुल्म १८-मानसिक दासता 19-मर्यादित रक्त २०-पवित्रता २१-वर्ग २२-नए सिरे से २३-सभा २४-चिंतन २५-असफल २६-अत

Monday, November 16, 2015

Junbishen 713



कुफ़्र और ईमान
कुफ़्र ओ ईमान१-२दो सगे भाई,
सैकडों साल हुए बिछडे हुए,
हाद्साती३ हवा थी आई हुई,
एक तूफाँ ने इनको तोडा था।

कोहना क़द्रों4पे कुफ़्र था क़ायम,
इक खुदा की सदा लिए ईमां,
बस नज़रयाती इख्तिलाफ़5 के साथ,
ठन गई कुफ्र और ईमाँ में।

नाराए जंग और जेहाद६लिए,
भाई भाई को क़त्ल करते थे,
बरकतें लूट की ग़नीमत7थीं,
और ज़रीआ मुआश8 थे हमले।

कुफ़्र की देवियाँ लचीली थीं,
देवता बेनयाज़9 थे बैठे,
जैश१० ईमान का जो आता था,
देवता मालो-ज़र लुटाते थे।

ज़द10 में थे एशिया व् अफ्रीक़ा,
हर मुक़ामी पे क़ह्र बरपा थी,
ऐसा ईमान ने गज़ब ढाया,
आधी धरती पे मौत बरसाया।

खित्ता, इक जमीं पे भारत था,
सख्त जानी थी कुफ़्र की इस पर,
इसपे आकर रुका थका ईमां,
कुफ़्र के साथ कुछ हुवा राज़ी।

सदियों ग़ालिब रहा मगर इस पर,
कुफ्र के आधे इल्तेज़ाम11के साथ,
कुफ़्र पहुँचा सिने बलूग़त को,
फ़िर ये जमहूर्यत की ऋतू आई।

कुफ़्रको कुछ ज़रा मिली राहत ,
और उसने नतीजा अख्ज़12किया,
क्यूं न ईमान की तरह हम भी,
जौर ओ शिद्दत13की राह अपनाएं।

मेरा भी एक ही पयम्बर हो,
राम से और कौन बेहतर है,
मेरा भी सिर्फ़ एक मक्का हो,
मन को भाई अयोध्या नगरी।

काबा जैसा ही राम का मन्दिर,
बाबरी टूटे, कुफ़्र क़ायम हो,
उनका इस्लाम, अपना हो हिंद्त्व ,
सारे रद्दे-अमल14 हैं फ़ितरी15 से।

कुफ़्र में इख्तेलाफ़16 दूर हुए,
फ़ार्मूला ये ठीक था शायद,
उसकी कुछ जुज़वी कामयाबी है,
उसकी गुजरात में जवाबी है।

आज ईमां को होश आया है,
बिसरी आयत17 जान पाया है,
है लकुम-दीनकुम18 से अब मतलब,
भूले काफ़िर को क़त्ल करना अब।

अहल-ऐ-ईमां की बड़ी मुश्किल है,
आज मोहलिक१९ निज़ाम-कामिल२०,
कोई भाई भी पुरसा हाल नहीं,
करके हिजरत२१ वह कहाँ जाएँ अब।

है बहुत दूर मर्कज़े-ईमां22,
उसकी अपनी ही चूलें ढीली हैं,
हैं पडोसो में भाई बंद कई,
जिन के अपने ही बख्त23 फूटे हैं।

ईमाँ त्यागे अगर जो हट धर्मी,
कुफ्र वालों के नर्म गोशे24 हैं,
उनकी नरमी से बचा है ईमां,
वरना दस फ़ी सदी के चे-माने ?

बात 'मुंकिर' की गर सुने ईमां,
जिसकी तजवीज़25 ही मुनासिब है,
जिसका इंसानियत ही मज़हब है,
कुफ़्र की भी यही ज़रूरत है॥

1-काफिर आस्था २-मुस्लिम आस्था ३-दुर्घटना -युक्त ४-पुरानी मान्यताएं ५-दिरिष्ट -कौणिक ६-धर्म युद्ध ७-धर्म युद्ध में लूटा हुआ माल ८-जीविका-श्रोत ९-अबोध १०-लश्कर 10- nishana ११-चपेट १२-समझौता १३-निकाला १४-ज़ुल्म,ज्यादती १५-प्रति-क्रिया १६-स्वाभाविक १७-विरोध १८-कुरानी लेख अंश १९-तुहारा दीन तुहारे लिए,हमारा दिन हमारे लिए २०-हानि कारक २१-सम्पूर्ण जीवन शैली २२स्वदेश त्याग २३-मक्का की ओर संकेत २४-भाग्य २५-कुञ्ज २६-उपाय .

Friday, November 13, 2015

Junbishen 712



सर-गर्मी

आ तुझे चोटियों पे दिखलाएं,
घाटियों में अजीब मंज़र है,
साफ़ दिखते हैं बर्फ़ के तोदे,
हैं पुराने हज़ारों सालों के,
बर्फ़ में मुन्जमिद१ सी हैं लाशें,
मगर पिंडों में कुलबुलाहट है,
बस कि सर हैं, जुमूदी आलम में,
अजब जुग़राफ़ियाई२ है घाटी,
आओ चल कर ये बर्फ़ पिघलाएं,
उनके माथे को थोड़ा गरमाये
उनके सर में भरा अक़ीदा है,
आस्थाओं का सड़ा मलीदा है।

१-जमी हुई २-भौगोलिक

Wednesday, November 11, 2015

Junbishen 711



ईश वाणी

मैं हूँ वह ईश,
कि जिसका स्वरूप प्रकृति है,
मैं स्वंभू हूँ ,
पर भवता के विचारों से परे,
मेरी वाणी नहीं भाषा कोई,
न कोई लिपि, न कोई रस्मुल-ख़त,
मेरे मुंह, आँख, कान, नाक नहीं,
कोई ह्रदय भी नहीं, कोई समझ बूझ नहीं,
मैं समझता हूँ , न समझाता हूँ ,
पेश करता हूँ , न फ़रमाता हूँ,
हाँ! मगर अपनी ग़ज़ल गाता हूँ।
जल कि कल कल, कि हवा की सर सर,
मेरी वाणी है यही, मेरी तरफ़ से सृजित,
गान पक्षी की सुनो या कि सुनो जंतु के,
यही इल्हाम ख़ुदावन्दी1 है।
बादलों की गरज और ये बिजली की चमक,
हैं सदाएं मेरी,
चरमराते हुए, बांसों की खनक ,
हैं निदाएं२ मेरी.
ज़लज़ले, ज्वाला-मुखी और बे रहेम तूफाँ हैं,
मेरे वहियों3 की नमूदारी४ है।
ईश वाणी या ख़ुदा के फ़रमान,
जोकि कागज़ पे लिखे मिलते हैं,
मेरी आवाज़ की परतव5 भी नहीं।
मेरी तस्वीर है ,आवाज़ भी है,
दिल की धड़कन में सुनो और पढो फ़ितरत६ में॥

१-खुदा की आवाज़ २-आकाश वाणी ३-ईश वाणी ४-उजागर ५-छवि ६-प्रकृति

Saturday, November 7, 2015

Junbishen 710



रूकावट का खेद

मर गए कुहना१ ख़ुदा सब, और नए जन्में नहीं,
ख़त्म है पैग़म्बरी, औतार भी होते नहीं,
कुछ महा मानव ही पैदा हों, कि कुछ मुश्किल कटे,
देवता सब सो रहे हैं, राक्षस हटते नहीं।

है नजिस२ हाथों में, सारे मुल्क का क़ौमी3 निज़ाम,
डाकुओं के हाथ में है, हर समाजी इन्तेज़ाम,
गुंडों, बदमाशों, उचक्कों को इलाक़े मिल,
पारसाओं को मिला है, सिर्फ़ ज़िल्लत का मुक़ाम.

1-प्रचीन 2-पवित्र ३ - राष्ट्रिय .

Friday, November 6, 2015

Junbishen 709



- - - और नीत्शे ने कहा - - -

ऐ पैकरे-मज़ालिम1 ! हो तेरा नाम कुछ भी,
गर तू है कार ए फ़रमाँ2, इस कायनात ए हू३ का?
कुछ जुन्बिशें है दिल की, इन को सबात४ दे दे।

क्यूं छूरियूं में तेरे, कुछ धार ही नहीं है?
इक वार वाली तेरी, तलवार ही नहीं है?
है कुंद तेरा खंजर, बरसों में रेतता है?
तीरों में तेरी नोकें कजदार क्यूं मुडी हैं?

फाँसी के तेरे फंदे क्यूं ढीले रह गए हैं?
मख़लूक़५ के लिए ये, त्रिशूल क्यूं चुना है?
ये हरबा ए अज़ीयत६, तुझ को पसंद क्यूं है?
यक लख्त७ मौत तुझ को, क्यूं कर नहीं गवारा?

ऐ ग़ैर मुअत्रिफ़ ८ ! तू , सीधा सा तअर्रुफ़९ दे,
क्या चाहता है सब से, इक साँस में बता दे।
हो सोना या कि चांदी, हीरे हों याकि मोती?
ज़ाहिर है तू कहेगा, कुछ भी नहीं ये कुछ भी,

तू चाहता है सब से, इक इक लहू की बूँदें,
जैसे दिया है तूने, वैसे ही लेगा वापस,
मय सूद ब्याज ज़ालिम, हैं तेरे मज़ालिम10,
इंसान हों कि हैवाँ, हों कितना भी परेशां,

सासों के लालची सब, हर हाल में जिएँगे,
सासों का मावज़ा दें, फ़िर तुझ को ही सदा दें।
इंसान जो ख़िरद११ है,सजदों में जी रहा है,
हैवाँ जो है तग़ाफ़ुल१२, वह तुझ पे भौन्कता है।

१-अत्याचार २-चलने वाला ३-ब्रह्माण्ड -ठहराव ५-जीव ६-वेदना यंत्र ७-एक साथ ८-अनजान ९-पिरचय 
१०-अत्याचार ११-समझ १२-गफलत.

Tuesday, November 3, 2015



 ग़ज़ल

चेहरे यहाँ मुखौटे हैं, और गुफ्तुगू  हुनर,
खाते रहे फ़रेब हम, कमज़ोर थी नज़र।

हैं फ़ायदे भी नहर के, पानी है रह पर,
लेकिन सवाल ये है, यहाँ डूबे कितने घर।

पाले हुए है तू इसे, अपने ख़िलाफ़ क्यूँ ,
ये खौफ़ दिल में तेरे, है अंदर का जानवर।

होकर जुदा मैं खुद से, तुहारा न बन सका,
तुम को पसंद जुमूद था, मुझ को मेरा सफ़र।

पुख्ता भी हो, शरीफ भी हो , और जदीद भी,
फिर क्यूँ अज़ीज़ तर हैं, तुम्हें कुहना रहगुज़र।

हस्ती का मेरे जाम, छलकने के बाद अब,
इक सिलसिला शुरू हो, नई रह हो पुर असर।

जुमूद=ठहराव *जदीद=नवीन *कुहना रहगुज़र=पुरातन मार्ग

Monday, November 2, 2015

Junbishen 707



 ग़ज़ल

उनकी हयात, उसकी नमाज़ों के वास्ते,
मेरी हयात, उसके के ही राज़ों के वास्ते।

मुर्शिद के बांकपन के, तक़ाज़ों को देखिए,
नूरानियत है, जिस्म गुदाज़ों के वास्ते।

मंज़िल को अपनी, अपने ही पैरों से तय करो,
है हर किसी का कांधा, जनाज़ों के वास्ते।

सासें तेरे वजूद की, नग़मो की नज़र हों,
जुंबिश बदन की हों, तो हों साज़ों के वास्ते।

गाने लगी है गीत वोह, नाज़िल नुज़ूल की,
बुलबुल है आसमान के, बाज़ों के वास्ते।

"मुंकिर" वहां पे छूते, छुवाते हैं पैर को,
बज़्मे अजीब, दो ही तक़ाज़ों के वास्ते।

मुर्शिद=आध्यात्मिक गुरु *जिस्म गुदजों =हसीनाओं *नाज़िल नुज़ूल =ईश वानियाँ

Friday, October 30, 2015

Junbishen 706



 ग़ज़ल

काँटों की सेज पर, मेरी दुन्या संवर गई,
फूलों का ताज था वहां, इक गए चार गई।

रूहानी भूक प्यास में, मैं उसके घर गया,
दूभर था सांस लेना, वहां नाक भर गई।

वोह साठ साठ साल के, बच्चों का था गुरू,
सठियाए बालिगान पे, उस की नज़र गई।

लड़ के किसी दरिन्दे से, जंगल से आए हो?
मीठी जुबान, भोली सी सूरत, किधर गई?

नाज़ुक सी छूई मूई पे, क़ाज़ी के ये सितम,
पहले ही संग सार के, ग़ैरत से मर गई।

सोई हुई थी बस्ती, सनम और खुदा लिए,
"मुंकिर" ने दी अज़ान तो, इक दम बिफर गई,


Monday, October 26, 2015

Junbishen 705



 ग़ज़ल

तोहमत शिकस्ता पाई की, मुझ पर मढ़े हो तुम,
राहों के पत्थरों को, हटा कर बढ़े हो तुम?

कोशिश नहीं है, नींद के आलम में दौड़ना,
बेदारियों की शर्त को, कितना पढ़े हो तुम?

बस्ती है डाकुओं की, यहाँ लूट के ख़िलाफ़ ,
तक़रीर ही गढे, कि जिसारत गढ़े हो तुम?

अलफ़ाज़ से बदलते हो, मेहनत कशों के फल,
बाज़ारे हादसात में, कितने कढ़े हो तुम।

इंसानियत के फल हों? धर्मों के पेड़ में,
ये पेड़ है बबूल का, जिस पे चढ़े हो तुम।

"मुंकिर" जो मिल गया, तो उसी के सुपुर्द हो,
खुद को भी कुछ तलाशो,लिखे और पढ़े हो तुम.

शिकस्ता पाई=सुस्त चाल

Sunday, October 25, 2015

Junbishen 704



 ग़ज़ल

पश्चिम हंसा है पूर्वी, कल्चर को देख कर,
हम जिस तरह से हंसते हैं, बंदर को देख कर.

चेहरे पे नातवां के, पटख देते हैं क़ुरआन ,
रख देते हैं क़ुरआन, तवंगर को देख कर।

इतिहास मुन्तज़िर है, भारत की भूमि का,
दिल खोल के नाचे ये किसी नर को देख कर।

धरती का जिल्दी रोग है, इन्सान का ये सर,
फ़ितरत पनाह मांगे है, इस सर को देख कर।

यकता है वह, जो सूरत बातिन में है शुजअ,
डरता नहीं है ज़ाहिरी, लश्कर को देख कर।

झुकना न पड़ा, क़द के मुताबिक हैं तेरे दर,
"मुंकिर" का दिल है शाद तेरे घर को देख कर।

नातवां=कमज़ोर *तवंगर= ताक़तवर *फ़ितरत=पराकृति * बातिन=आंतरिक रूप में *शुजअ=बहादुर

Friday, October 23, 2015

Junbishen 703




 ग़ज़ल

काँटों की सेज पर, मेरी दुन्या संवर गई,
फूलों का ताज था वहां, इक गए चार गई।

रूहानी भूक प्यास में, मैं उसके घर गया,
दूभर था सांस लेना, वहां नाक भर गई।

वोह साठ साठ साल के, बच्चों का था गुरू,
सठियाए बालिगान पे, उस की नज़र गई।

लड़ के किसी दरिन्दे से, जंगल से आए हो?
मीठी जुबान, भोली सी सूरत, किधर गई?

नाज़ुक सी छूई मूई पे, क़ाज़ी के ये सितम,
पहले ही संग सार के, ग़ैरत से मर गई।

सोई हुई थी बस्ती, सनम और खुदा लिए,
"मुंकिर" ने दी अज़ान तो, इक दम बिफर गई,

Tuesday, October 20, 2015

Junbishen 702



 ग़ज़ल

तोहमत शिकस्ता पाई की, मुझ पर मढ़े हो तुम,
राहों के पत्थरों को, हटा कर बढ़े हो तुम?

कोशिश नहीं है, नींद के आलम में दौड़ना,
बेदारियों की शर्त को, कितना पढ़े हो तुम?

बस्ती है डाकुओं की, यहाँ लूट के ख़िलाफ़ ,
तक़रीर ही गढे, कि जिसारत गढ़े हो तुम?

अलफ़ाज़ से बदलते हो, मेहनत कशों के फल,
बाज़ारे हादसात में, कितने कढ़े हो तुम।

इंसानियत के फल हों? धर्मों के पेड़ में,
ये पेड़ है बबूल का, जिस पे चढ़े हो तुम।

"मुंकिर" जो मिल गया, तो उसी के सुपुर्द हो,
खुद को भी कुछ तलाशो,लिखे और पढ़े हो तुम.

शिकस्ता पाई=सुस्त चाल


Sunday, October 18, 2015

Junbishe n 701




 ग़ज़ल

अपने ही उजाले में, जिए जा रहा हूँ मैं,
घनघोर घटाओं को, पिए जा रहा हूँ मैं.

होटों को सिए, हाथ उठाए है कारवां,
दम नाक में रहबर के, किए जा रहा हूँ मैं।

मज़हब के हादसात, पिए जा रहे हो तुम,
बेदार हक़ायक़ को, जिए जा रहा हूँ मैं।

इक दिन ये जनता फूंकेगी, धर्मों कि दुकानें,
इसको दिया जला के, दिए जा रहा हूँ मैं।

फिर लौट के आऊंगा, कभी नई सुब्ह में,
तुम लोगों कि नफ़रत को, लिए जा रहा हूँ मैं।

फिर चाक न कर देना, सदाक़त के पैरहन,
"मुंकिर" का ग़रेबान सिए जा रहा हूँ मैं.

Friday, October 16, 2015

Junbishen 700



 ग़ज़ल

रहबर ने पैरवी का जुनूं ,यूँ बढा लिया,
आखें जो खुली देखीं तो, तेवर चढा लिया।

तहकीक़ ग़ोर  ओ फ़िक्र, तबीअत पे बोझ थे,
अंदाज़ से जो हाथ लगा, वह उठा लिया।

शोध और आस्था में, उन्हें चुनना एक था,
आसान आस्था लगी, सर में जमा लिया।

साधू को जहाँ धरती के, जोबन ज़रा दिखे,
मन्दिर बनाया और, वहीँ धूनी रमा लिया।

पाना है गर ख़ुदा को, तो बन्दों से प्यार कर,
वहमों कि बात थी ये, ग़नीमत कि पा लिया।

"मुकिर" की सुलह भाइयों से, इस तरह हुई,
खूं पी लिया उन्हों ने, ग़म इस ने खा लिया