Friday, January 30, 2009

ग़ज़ल -------बहानो पर बहाना


ग़ज़ल

बहानो पर बहाना,
नया फिर इक फ़साना।

तवाज़ुन1 खो चुका हूँ,
न अब सर को उठाना।

तल्लुक़ मुन्क़ता2 हो,
नहीं मिलना मिलाना।

नहीं बर मिल सका था,
कि ऊंचा था घराना।

तहारत3 पर अडे हो,
न तुम हरगिज़ नहाना।

फ़लक़ पर जा बसे हो,
लिखा था आब दाना।


बहुत बारीक से हो,
ज़रा नज़दीक आना।


बहुत सीधा है 'मुंकिर',
न उसका दिल दुखाना।


१-संतुलन २-विच्छेद ३- पवित्रता










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