Thursday, August 29, 2013

junbishen 65



नज़्म 
दावत ए फ़िक्र 1

सोचो सीधे शरीफ़ इंसानों!
शख्सी आज़ादिए तबअ क्या है?
यह तुम्हारी अजीब फ़ितरत है,
अपने अंदर के नर्म गोशों में,
इक शजर खौफ़ का उगाते हो,
और खुशियों की आरज़ू लेकर,
गर्दनें अपनी पेश करते हो,

मज़हबी डाकुओं की खिदमत में,
सेवा में, धार्मिक लुटेरों के,
हैं जो झूटे वह खूब वाक़िफ़ हैं,
खौफ़ से जो तुम्हारे अंदर है,
वह तुम्हारा इलाज करते हैं,
मॉल के बदले चाल को देकर।

लस-सलाह की वह सदा देते हैं,
अपनी इस्लाह वह नहीं करते,
लल्फ़लाह की सदा लगाते हैं,
ताकि इनकी फलाह होती रहे,
इनका ज़रिया मुआश का तकिया,
हमीं मेहनत कशों पे है रख्खी,

हर नई नस्ल इल्म नव से जुडें,
इनको यह कतई गवारह नहीं,
इनको शिद्दत पसंद बनाते हैं,
आयत ए शर से वर्गालाते हैं.

ऐ मेरी क़ौम ! वक़्त है जागो ,
साये से इनके दूर अब भागो .

१-चिंतन का आवाहन २- व्यक्तिगत 3- जेहनी आज़ादी 4-सुधार 5-भलाई इनके-भरण पोशन७-नई शिक्छा ८-अति वादी ९ -उग्रवादी आयतें

Tuesday, August 27, 2013

junbishen 64


नज़्म 
मंसूरी1 आईना

दस्तख़त किसके हैं, मख़लूक़ की शक्ल ओ सूरत?
किसकी तहरीर है, फ़ितरत की ये नक़्ल ओ हरकत ?

इसकी तशरीह4 किया करते हैं, पंडित,मुल्ला,
अपनी दूकानें लिए बैठे हैं, बुत और अल्लाह।

खोज 'उसकी'अगर जो चाहता है, ख़ुद में कर',
'उसके' हर राज़ का हमराज़ है, ये तेरा सर।

राएगां जाते हैं, तेरे ये शबो-रोजी सुजूद ,
था अनल हक़ की स,दाओं में किसी हक़ का वजूद।

ख़ुद को पहचान तू ,महकूमी को दुश्नाम ,
ख़ुद को पा जाए तो, जीता हुआ इनआम समझ।

१-एक अरबी संत जिसने स्वयम में इश्वर ईश्वर होने का एलन किया २-प्राणि.३-गति-विधि ४व्याख्या 5 -व्यर्थ 6 - सजदे ७-गुलामी ८-गाली

Sunday, August 25, 2013

junbishen 63


दोहे 


हिन्दू मुलिम लड़ मरे, मरे रज़ा और भीम, 
सुलभ तमाशा बैठ के, देखें राम रहीम. 


मानव-जीवन युक्ति है, संबंधों का जाल, 
मतलब के पाले रहे, बाकी दिया निकाल. 


नादानों की सोच है ऐसा बने विधान,
वैदिक  युग में जा बसे अपना हिदुस्ता.


इंसानी तहजीब के मिटे हैं कितने रूप,
भगुवा, हरिया टर रटें , खोदें मन में कूप.


अल्ला को तू भूल जा, मत कर उसका ध्यान,
अल्ला की मखलूक का, पहले कर कल्यान.

Friday, August 23, 2013

junbishen 62


क़तआत 

मौत के राग 
तबलीग है कि मौत को हर वक़्त याद कर ,
मैं कहता हूँ कि मौत की कोई ख़बर न रख ,
इक लम्हा मौत का है , मुसलसल है जिंदगी ,
हर रोज़ खुद सरी हो, तो हर रोज़ बे सरी .


साँच की ताप 
कुछ अगर ख़ाहिश न हो, तो है अधूरी ज़िन्दगी ,
ख़ाहिशें अंधी हैं, गर हस्ती में हो नाख़ान्दगी ,
इल्म भी बेकार है , इन्सां अगर है बेअमल ,
सच नहीं मुंकिर तो है , इल्मो ओ हुनर शर्मिदगी .


रिआयत 
इम्कानी गिरावट हो कि अखलाक़ी बुलंदी ,
हों आप की या मेरी , इक हद हैं सभी की ,
हैरत से हिक़ारत से, यूँ मुजरिम को न देखो ,
लगती है दिल आज़ारी , कहीं उसमें छिपी सी . 


Wednesday, August 21, 2013

junbishen 61



रुबाई 

है बात कोई गाड़ी यूँ चलती जाए ,
विज्ञान के युग में भी फिसलती जाए , 
ढ़ोती रहे सर पे , अवैज्ञानिक मिथ्या ,
पीढ़ी को लिए वहमों में ढलती जाए .

इक उम्र पे रुक जाए, जूँ बढ़ना क़द का,
कुछ लोगों में हश्र है, इसी तरह खिरद का,
मुजमिद खिरद को ढोते हैं सारी उम्र,
रहता है सदा पास मुसल्लत हद का.

कुछ रुक तो ज़माने को जगा दूं तो चलूँ,
मैं नींद के मारों को हिला दूं तो चलूँ,
ऐ मौत किसी मूज़ी को जप कर आजा,
सोई हुई उम्मत को उठा दूं तो चलूँ.

Monday, August 19, 2013

junbishen 60


ग़ज़ल 

ज़ाहिद में तेरी राग में, हरगिज़ न गाऊँगा,
हल्का सा अपना साज़, अलग ही बनाऊँगा।

तू मेरे हल हथौडे को, मस्जिद में लेके चल,
तेरे खुदा को अपनी, नमाज़ें दिखाऊँगा।

सोहबत भिखारियों की, अगर छोड़ के तू आ,
मेहनत की पाक साफ़ गिज़ा, मैं खिलाऊँगा।

तुम खोल क्यूँ चढाए हो, मानव स्वरूप के,
हो जाओ वस्त्र हीन, मैं आखें चुराऊँगा।

ए ईद! तू लिए है खड़ी, इक नमाज़े बेश,
इस बार छटी बार मैं, पढने न जाऊँगा।

खामोश हुवा, चौदह सौ सालों से खुदा क्यूँ,
अब उस की जुबां, हुस्न ए सदाक़त पे लाऊंगा .

Sunday, August 18, 2013

junbishen 59



ग़ज़ल 

जिस तरह से तुम दिलाते हो, खुदाओं का यकीं ,
उस तरह से और बढ़ जाती है, शुबहों की ज़मीं.

है ये भारत भूमि, फूलो और फलो पाखंडियो,
मिल नहीं सकती शरण, संसार में तुम को कहीं.

नंगे, गूंगे संत के, मैले कुचैले पाँव पर,
हाय रख दी है, तुम ने क्यूँ ये इंसानी जबीं.

गर है माज़ी के तअल्लुक़ से ये माथे की शिकन,
तब कहाँ बच पाएँगे, इमरोज़ ओ फ़र्दा के अमीं.

नन्हीं नन्हीं नेक्यों, कमज़ोर सी बादियों के साथ,
कट गई यह जिंदगी इन पे लगाए दूरबीं.

हो अमल जो भी हमारा, दिल भी इस के साथ हो,
है दुआ तस्बीहे "मुंकिर" क्यूं मियाँ लेते नहीं।

*जबीं=सर *इमरोज़ ओ फ़र्दा =आज और कल 

Friday, August 16, 2013

junbishen 58


ग़ज़ल 

बात नाज़ेबा तुम्हारे मुंह की पहुंची यार तक,
अब न ले कर जाओ इसको, मानी ओ मेयार तक।

पहले आ कर खुद में ठहरो, फिर ज़रा आगे बढो,
ऊंचे, नीचे रास्तों से, खित्ताए हमवार तक।

घुल चुकी है हुक्म बरदारी, तुम्हारे खून में,
मिट चुके हैं ख़ुद सरी, ख़ुद्दारी के आसार तक।

इक इलाजे बे दवा अल्फ़ाज़ की तासीर है,
कोई पहुंचा दे मरीज़े दिल के, गहरे ग़ार तक।

रब्त में अपने रयाकारी की आमेज़िश लिए,
पुरसाँ हाली में चले आए हो इस बीमार तक।

मैं तेरे दौलत कदे की, सीढयों तक आऊँ तो,
तू मुझे ले जाएगा, अपनी चुनी मीनार तक।

कुछ इमारत की तबाही, पर है मातम की फ़ज़ा,
हीरो शीमा नागा शाकी, शहर थे यलग़ार तक।

उम्र भर लूतेंगे तुझ को, मज़हबी गुंडे हैं ये,
फ़ासला बेहतर है इनसे, आलम बेदार तक।

Wednesday, August 14, 2013

junbishen 57

रुबाइयाँ 

तहरीक सदाक़त हो दिलों में पैदा ,
तबलीग़ जिसारत हो दिलों में पैदा ,
बतला दो ज़माने को खुदा भी बुत है ,
फितरत की अक़ीदत हो दिलों में पैदा। 

बच्चे को बसद शान ही बनने न दिया,
बस साहिबे इमान ही बनने नदिया,
पैदा होते ही कानों फूंक दिया झूट,
इन्सान को इन्सान ही बनने न दिया. 

आज़ादी है सभी को कोई कुछ माने ,
अजदाद के जोगी को पयम्बर जाने ,
या अपने कोई एक खुदा को गढ़ ले ,
गुस्ताखी है औरों को लगे समझाने .

Monday, August 12, 2013

junbishen 56


नज़्म 

बनाम शरीफ़ दोस्त

तू जग चुका है और, इबादत गुज़ार1 है,
सोए हुए खुदा की, यही तुझ पे मार है।

दैरो हरम के सम्त, बढ़ाता है क्यूं क़दम?
डरता है तू समाज से! शैतां सवार है।

इस इल्मे वाहियात4 को तुर्बत5 में गाड़ दे,
अरबों की दास्तान, समाअत6 पे बार है।

हम से जो मज़हबों ने लिया, सब ही नक़्द था,
बदले में जो दिया है, सभी कुछ उधार है।

खाकर उठा हूँ , दोनों तरफ़ की मैं ठोकरें,
पत्थर से आदमी की, बहुत ज़ोरदार है।

तहज़ीब चाहती है, बग़ावत के अज़्म को,
तलवारे-वक्त देख ज़रा, कितनी धार है।

जिनको है रोशनी से, नहाना ही कशमकश,
उनके लिए यह रोशनी, भी दूर पार है।

'मुंकिर' के साथ आ, तो संवर जाए यह जहाँ,
ग़लती से यह समाज, खता का शिकार है।

१-उपासक २-मन्दिर और काबा ३-तरफ़ ४-ब्यर्थ -ज्ञान ५-समाधी 6श्रवण- शक्ति  -उत्साह

Thursday, August 8, 2013

junbishen 55


नज़्म 

ईद की महरूमियाँ 1

कैसी हैं ईद की खुशियाँ, यह नक़ाहत की तरह,
जश्न क़र्ज़े की तरह, नेमतें क़ीमत की तरह।
ईद का चाँद ये, कैसी खुशी को लाता है,
घर के मुखिया पे नए पन के सितम ढाता है।

ज़ेब तन कपड़े नए हों तो ख़ुशी ईद है क्या?
फिकरे-गुर्बा के लिए हक़ की ये ताईद है क्या?
क़ौम पर लानतें हैं फ़ित्राओ-खैरातो-ज़कात ,
ठीकरे भीख की ठंकाए है, उमरा की जमाअत।

पॉँच वक़तों  की नमाज़ें हैं अदा रोज़ाना,
आज के रोज़ अज़ाफ़ी है सफ़र दोगाना।
इसकी कसरत से कहीं दिल में ख़ुशी होती है,
भीड़ में ज़िन्दगी तनहा सी पड़ी होती है।

ईद के दिन तो नमाज़ों से बरी करना था,
छूट इस दिन के लिए मय-ब-लबी करना था।
नव जवाँ देव परी के लिए मेले होते,
अपनी दुन्या में दो महबूब अकेले होते।

रक़्स होता, ज़रा धूम धडाका होता,
फुलझडी छूटतीं, कलियों में धमाका होता।
हुस्न के रुख़ पे शरीयत का न परदा होता,
मुत्तक़ी १०,पीर, फ़क़ीहों११, को ये मुजदा१२, होता।

हम सफ़र चुनने की यह ईद इजाज़त देती,
फ़ितरते ख़ल्क़ १३ को संजीदगी फ़ुर्सत देती।
ईद आई है मगर दिल में चुभी फांस लिए,
क़र्बे १४ महरूमी लिए, घुट्ती हुई साँस लिए।

१-वनचित्ता २-कमजोरी ३-गरीबों की चिंता ४-ईश्वर 5-समर्थन ६-दान की विधाएँ ७-धनाड्य ८-ईद की नमाज़ को दोगाना कहते ९-धर्मं विधान १०-सदा चारी  11-धर्म-शास्त्री १३-खुश खबरी १3-जीव प्रवर्ति14-वंचित की पीड़ा

Tuesday, August 6, 2013

junbishen 54


रुबाइयाँ 

दिल वह्यी ओ इल्हाम से मुड जाता है, 
हक शानासियों से जुड़ जाता है,
देख कर ये पामालिए सरे-इंसान,
'मुंकिर' का दिमाग़ भक्क से उड़ जाता है. 

मुझको क्या कुछ समझा, परखा तुम ने ,
या अपने जैसा ही जाना तुमने,
मेरे ईमान में फ़र्क़ लाने का ख़याल ,
चन्दन पे गोया सांप पाला तुमने . 

हो सकता है ठीक दमा, मिर्गी ओ खाज,
बख्श सकता है जिस्म को रोगों का राज,
तार्बियतों की घुट्टी पिए है माहौल, 
मुश्किल है बहुत मुंकिर ज़ेहनों का इलाज.

Sunday, August 4, 2013

junbishen 53




ग़ज़ल 

थीं बहुत कुछ सूरतें अहदों उसूलों से भली,
जान लेने जान देने में ही तुम ने काट दी।

भेडिए, साँपों, सुवर, के साथ ही यह तेरे लब,
पड़ चुके किस थाल में हैं,ऐ मुक़द्दस आदमी।

नेक था सरवन मगर,सीमित वो होकर रह गया,
सेवा में माँ बाप के ही, काट डाली ज़िन्दगी।

ढूंढो मत इतिहास के, जंगल में शेरों का पता,
ऐ चरिन्दों! क्या हुवा, जो पा गए सींगें नई।

आप ने देखा नहीं, क्या न मुकम्मल था ख़ुदा ,
ख़ैर छोडो, अब चलो खोजें, मुकम्मल आदमी।

करता है बे चैन "मुंकिर" देके कुछ सच्ची ख़बर,
सच का वह मुख़बिर बना है, इस लिए है दुश्मनी.

Friday, August 2, 2013

junbishen 52



ग़ज़ल 

मैं अकेला, तू अकेला, सब अकेले हैं यहाँ,
दे रहा उपदेश स्वामी, भीड़ में बैठा वहाँ।

जन हिताय उपवनों के, शुद्ध पावन मौन में,
धर्म की जूठन परोसे, हैं जुनूनी टोलियाँ।

जज्बा ऐ शर देखिए, उस मर्द ए मोमिन में ज़रा,
या शहीदे जंग होगा, या तो फिर गाज़ी मियां।

बिक गया है कुछ नफ़े के साथ, वह तेरा हबीब,
बाप की लागत थी उस पे, माँ का क़र्ज़े आस्मां।

मैं समझता हूँ नवाहो-गिर्द2 पे ग़ालिब हूँ मैं,
ग़लबा ए रूपोश जैसा गिर्द3 है मेरे जहाँ।

हर तरफ़ *बातिल हैं छाए, और जाहिल की पकड़,
कैसे "मुंकिर" इल्म अपना, झेले इनके दरमियाँ।

-दुष्ट-भाव मीठी-आस-पास ३-चहु ओर *बातिल =मिथ्य