Wednesday, April 30, 2014

Junbishen 281



गज़ल

जब से हुवा हूँ बे ग़रज़, शिकवा गिला किया नहीं,
कोई यहाँ बुरा नहीं, कोई यहाँ भला नहीं.

अपने वजूद से मिला तो मिल गई नई सेहर,
माज़ी को दफ़्न कर दिया, यादों का सिलसिला नहीं.

पुख्ता निज़ाम के लिए, है ये ज़मीं तवाफ़ में,
जीना भी इक उसूल है, दिल का मुआमला नहीं.

बख्शा करें ज़मीन को, मानी मेरे नए अमल,
मेरे लिए रिवाजों का, कोई काफ़िला नहीं.

ज़ेहनों के सब रचे मिले, सच ने कहाँ रचा इन्हें,
ढूँढा किए खुदा को हम, कोई हमें मिला नहीं.

थोडा सा और चढ़ के आ, हस्ती का यह उरूज है,
कोई भी मंजिले न हों, कोई मरहला नहीं.
*****

Monday, April 28, 2014

Junbishen 280



गज़ल

ग़फ़लतों की इजाज़त नहीं है,
ये तो सच्ची इबादत नहीं है.

कडुई सच्चाइयाँ हैं सुनाऊं?
मीठे झूटों की आदत नहीं है.

चित तुम्हारी है, पट भी तुम्हारी,
भाग्य लिक्खे में गैरत नहीं है.

छोड़ कर बाल बच्चों को बैठे,
सन्त जी ये शराफ़त नहीं है.

दुःख न पहुँचाओ, तुम हर किसी को,
सुख जो देने की, वोसअत नहीं है.

रोग अपना ज़ियाबैतिशी है,
अब कोई शै भी, नेमत नहीं है.

हों वो पत्थर के या फिर हवा के,
इन बुतूं में, हक़ीक़त नहीं है.

ये हैं 'मुंकिर'में फूटी निदाएँ,
आसमानों की हुज्जत नहीं है.
*****
*वोसअत=क्षम्ता *ज़ियाबैतिशी=डायबिटीज़

Saturday, April 26, 2014

Junbishen 279



मुस्कुराहटें 

शेखू ----

\हर सच पे ही लाहौल1 पढ़ा करता है शेखू ,
हर झूट दलीलों से गढा करता है शेखू।

चट करता है बेवाओं , यतीमों की अमानत,
कुफ़्फ़ारह2 दुआओं से, अदा करता है शेखू ।

देता है सबक सब को, क़िनाअत 3की सब्र की ।
ख़ुद मुर्गे-मुसल्लम पे, चढा करता है शेखू ।

दो बीवी निंभाता है, शरीअत4 के तहत वह,
दोनों को फ़क़त निस्फ़,5 अता करता है शेखू ।

हर शाम मुरीदों को चराता है इल्मे-ताक,
हर सुब्ह इल्मे-खाक पढ़ा करता है शेखू ।

बख्शेगी इसे दुन्या, न बख्शेगा खुदा ही ,
'मुंकिर' ये खताओं पे खता करता है शेखू ।

१-धिक्कार २- प्रायश्चित ३-संतोष ४-धर्म-विधान ५-आधा
*

Thursday, April 24, 2014

Junbishen 278



गज़ल

ख़िरद का मशविरा है, ये की अब अबस निबाह है,
दलीले दिल ये कह रही है, उस में उसकी चाह है.

मुक़ाबले में है जुबान कि क़दिरे कलाम है,
सलाम आइना करे है, कि सब जहाँ सियाह है.

ज़मीर की रज़ा है गर, किसी अमल के वास्ते,
बहेस मुबाहसे जनाब, उस पे ख्वाह मख्वाह है.

लहू से सींच कर तुम्हारी खेतियाँ, अलग हूँ मैं,
किसी तरह का मशविरह, न अब कोई सलाह है.

नदी में तुम रवाँ दवां, कभी थे मछलियों के साथ,
बला के दावेदार हो, समन्दरों की थाह है.

तलाश में वजूद के ये, ज़िन्दगी तड़प गई,
फुजूल का ये कौल है, कि चाह है तो राह है.
*****
*खिरद=विवेक * अबस व्यर्थ *क़दिरे कलाम =भाषाधिकार

Tuesday, April 22, 2014

Junbishen 277



हिंदी गज़ल 
जीवन आपाधापी है, 
लोभी है ये पापी है .

 आपे से बाहर है वह, 
कहते हैं परतापी है. 

पहले जग को जीता था ,
बाद में तुर्बत नापी है. 

अपने तन का भक्षि है, 
कितना वह संतापी है.

हिन्दू मुस्लिम ईसाई ,
जात बिरादर नापी है. 

धर्मों का विष त्यागा है, 
अपनी मन मदिरा पी है. 

दिल मुंकिर का कैसा है ?
हक की फोटो कापी है. 

Sunday, April 20, 2014

Junbishn 276



हिंदी गज़ल 

कभी कभी तो, मुझे तू निराश करता है,
मेरे वजूद में, खुद को तलाश करता है.

मेरे वजूद का, खुद अपना एक परिचय है,
सुधारता नहीं, तू इस को लाश करता है.

किसी इलाके के, थोड़े विकास के ख़ातिर,
बड़ी ज़मीन का, तू सर्वनाश करता है.

मैं होश में हूँ ,हजारों कटार के आगे,
तुम्हारे हाथ का कंकड़, निराश करता है.

निसार जाँ से तेरी, इस लिए अदावत है,
तेरे खुदाओं का, वह पर्दा फ़ाश करता है.

नशा हो शक्ति का, या हो शराब का 'मुंकिर" ,
नशे की शान है वह सर्व नाश करता है.
*****

Friday, April 18, 2014

Junbishe 275



सर को ठंडा, पैर गरम रख भाई, 
हो पीठ कड़ी, पेट नरम रख भाई, 
सच्चाई भरे अच्छे करम हों तेरे, 
ढोंगी न बन काँटे धरम रख भाई. 


किस धुन से बजाय था मजीरा देखो, 
छल बल से चुने मोती ओ हीरा देखो, 
बनिए की समाधि है, कि इबरत का मुक़ाम, 
इस कब्र का बे कैफ़ जज़ीरा देखो. 


मातूब हुवा जाए बुढ़ापे में वजूद, 
लगत मिली बीवी से , न औलाद से सूद, 
संन्यास की ताक़त है, न अब भाए जुमूद, 
बूढ़े को सताए हैं, बचे हस्त ओ बूद. 

Monday, April 14, 2014

Junbishen 274



मुस्कुराहटें 

मुहाविरों के बोल 

कुछ पाना, कुछ खोते रहना ,
तुम बस, रोते धोते रहना .

फूल की सेजें खोते रहना , 
राह में कांटे बोते रहना .

जो बोले दरवाज़ा खोले ,
जागे हो तो सोते रहना .

नौ मन तेल पे राधा नाचे ,
तेली बैल को जोते रहना .

आँख के अंधे नाम नयन सुख ,
सूरदास सब टोते रहना .

धोबी के कुत्ते मत बनना ,
घर के घाट के होते रहना .

भैंस है उसकी जिसकी लाठी ,
पाप की गठरी ढोते रहना .

नाच न आवे आँगन टेढ़ा , 
पीर की तीर चुभोते रहना .

भाग की रोटी जुरवा खाए ,
मुनकिर रूप को रोते रहना .
*

Saturday, April 12, 2014

Junbishen 273



हिंदी गज़ल 

बहुत थके ऐ हमराही अब, आओ ज़रा सा सुस्ताएँ,
तुम भी प्यासे, हम भी प्यासे, चलो थकावट पीजाएँ।

अरमानो के बीज दबे हैं, बर्फ़ीली चट्टानों में,
बरखा रानी हिम पिघला, अंकुर फूटें, हम लहराएं।

कुछ न बोलें, होंट न खोलें, शब्दों की परछाईं तले,
चारों नयनों के दरपन को, सारी छवि दे दी जाएँ।

तेरे तन की झीनी चादर, मेरे देह की तंग क़बा,
आओ दोनों परिधानों को, उतन पुतन कर सी जाएँ।

सूरज के किरनों से बंचित, नर्म हवाओं से महरूम,
काया क़ैदी कपडों की है, आओ बगावत की जाएँ।

Thursday, April 10, 2014

Junbishen 172



हिंदी गज़ल 

स्वार्थ की भाषा ड्योढा बांचे, लालच पढ़े सवय्या,
रिश्तों में जब गांठ पड़े, तो कोई बहेन न भय्या।

घूर घूर के जुरुवा देखे, टुकुर टुकुर ऊ मय्या,
दो फाडों में चीरे हम को, घर की ताता थय्या।

दूध पूत से छुट्टी पाइस, भूखी खड़ी है गय्या,
इस के दुःख को कोई न देखे, देखै खड़ा क़सय्या।

गुरू गोविन्द की पुडिया बेचे, कबर कमाए रुपय्या,
पाखंड और कलाकारी की, ईश चलाए नय्या।

गिरजा और गुरुद्वारे बोलें, ज़ोर लगा के हय्या!
मन्दिर, मस्जिद इक दूजे की, काटे हैं कंकय्या।

किसके लागूं पाँव खड़े हैं गाड, खुदा और दय्या,
'मुंकिर' को ये कोई न भाएँ, सब को रमै रमय्या

Tuesday, April 8, 2014

Junbishen 171



हिंदी गज़ल 
ला इल्मी का पाठ पढाएँ, अन पढ़ मुल्ला योगी,
दुःख दर्दों की दवा बताएँ, ख़ुद में बैठे रोगी.

तन्त्र मन्त्र की दुन्या झूठी, बकता भविश्य अयोगी,
अपने आप में चिंतन मंथन, सब को है उपयोगी.

आँखें खोलें, निंद्रा तोडें, नेता के सहयोगी,
राम राज के सपन दिखाएँ, सत्ता के यह भोगी.

बस ट्रकों में भर भर के, ये भेड़ बकरियां आईं,
ज़िदाबाद का शोर मचाती, नेता के सहयोगी.

पूतों फलती, दूध नहाती, रनिवास में रानी,
अँधा रजा मुकुट संभाले, मारे मौज नियोगी.

"मुकिर' को दो देश निकला, चाहे सूली फांसी,
दामे, दरमे, क़दमे, सुखने, चर्चा उसकी होगी.
दामे,दरमे,क़दमे,सुखने=हर अवसर पर

Sunday, April 6, 2014

junbishen 170



नज़्म 

इल्म और लाइल्मी

 लाइलमी 

मैं ने इक मुल्ला से पूछा,"वाक़ई क्या है खुदा?"
बोला, "हाँ!हाँ!! हाँ!!!, सौ फ़ीसदी से भी सिवा "
और दे डालीं खुदा के हक़ में, इक सौ एक दलील,
एक सौ इक नाम की, लेकर उठा फेहरिस्त तवील।

इल्म 

एक साइंस दाँ से दोहराया, जो मैंने यह सवाल,
कम सुख़न के वास्ते, कुछ भी कहना था मुहाल।
कशमकश में बोला अब तक, जो खुदा मौजूद हैं,
सब के सब साबित हुवा है, झूट तक महदूद हैं।
हाँ! मगर इम्कानो-अंदेशा2 का, मैं 'मुंकिर' नहीं,
हो भी सकता है कहीं पर इक खुदाए ला यकीं।

१-कम वाला 2 संभावनाएं और संशय

Friday, April 4, 2014

Junbishen 169



नज़्म 

तीरें 

तेज़ तर तीर की तरह तुम हो, नसलो! तुम को निशाना पाना है।
हम हैं बूढे कमान की मानिंद, बोलो कितना हमें झुकाना है?
***
सुल्हा कर लूँ कि ऐ अदू तुझ से, मैं ने तदबीर ही बदल डाली,
तेरे जैसा ही क्यूं न बन जाऊं, अपने जैसा ही क्यों बनाना है।
***
रोज़े रौशन को छीन लेती है, तू कि ऐ गर्दिशे ज़मीं हम से,
हम हैं सूरज के वंशजों से मगर, सर पे तारीक2 ये ख़ज़ाना है।
***
कौडी कौडी बचा के रक्खा है, तिनका तिनका सजा के रक्खा है,
गीता संदेश कुछ इशारा कर, हम ने जोड़ा है किस को पाना है।
***
बारी बारी से सोते जगते हैं, मेरे कांधों पे दो फ़रिश्ते ये,
हम सवारी गमो खुशी के हैं, रोते हँसते नजात पाना है।
***
आप के पास भी अन्दाज़ा है, है हमारे भी पास तख़मीना,
आप ने माना एक वाहिद को, हम ने सत्तर करोर माना है।
***
तू है क़ायम फ़क़त गवाही पर, सदियाँ गुज़रीं गवाह गुज़रे हुए,
हिचकिचाहट है इल्म नव3 को अब, तुझ को नुक्तों पे आज़माना है।
***
तेरे एह्काम4 की करूँ तामील, फ़ायदे कुछ न चाहिए मुझ को,
आसमानों से झाँक कर तुझ को,सिर्फ़ इक बार मुस्कुराना है।

१-दुश्मन २-अँधेरा ३-नई शिक्षा ४-आज्ञा

Tuesday, April 1, 2014

junbishen 168

रूबाइयाँ 


दौलत से कबाड़ी की है, बोझिल ये हयात, 
हैं रोज़ सुकून के, न चैन की रात, 
बुझती ही नहीं प्यास कभी दौलत की, 
देते नहीं राहत इन्हें सदका ओ ज़कात. 


मस्जिद के ढहाने को विजय कहते हो, 
तुम दिल के दुखाने को विजय कहते हो, 
होती है विजय सरहदों पे, दुश्मन पर, 
सम्मान गंवाने को विजय कहते हो. 


हों फ़ेल मेरे ऐसे, मेरी नज़रें न झुकें, 
सब लोग हसें और क़दम मेरे रुकें, 
अफकार ओ अमल हैं लिए सर की बाज़ी. 
'मुंकिर' की नफ़स चलती रहे या कि रुके,