Saturday, November 17, 2012

ग़ज़ल - - -अपनी हस्ती में सिमट जाऊं तो कुछ आराम हो




ख़ारजी हैं सब तमाशे, साक़िया इक जाम हो,

अपनी हस्ती में सिमट जाऊं तो कुछ आराम हो।


ख़ुद सरी, खुद बीनी, खुद दारी, मुझे इल्हाम है,

क्यूं ख़ुदा साजों की महफ़िल से मुझे कुछ काम हो।


तुम असीरे पीर मुर्शिद हो कि तुम मफ़रूर  हो,

हिम्मते मरदां न आई या की तिफ़ले  ख़ाम   हो।


हाँ यक़ीनन एक ही लम्हे की यह तख़लीक़, 


वरना दुन्या यूं अधूरी और तशना काम हो।


हम पशेमाँ हों कभी न फ़ख्र के आलम में हों,

आलम मासूमियत हो बे ख़बर अंजाम हो।


अस्तबल में नींद की मारी हैं "मुंकिर" करवटें,

औने पौने बेच दे घोडे को खाली दाम  हो.

Thursday, November 1, 2012

ग़ज़ल- - -सच्चाइयों ने हम से जब तक़रार कर दिया,



सच्चाइयों ने हम से जब तक़रार कर दिया,
हमने ये सर मुक़बिल-ए-दीवार कर दिया.


अपनी ही कायनात से बेज़ार जो हुए,
इनको सलाम, उनको नमस्कार कर दिया।


तन्हाइयों का सांप, जब डसने लगा कभी,
खुद को सुपुर्दे गाज़ी-ए-गुफ़्तार  कर दिया।


देकर ज़कात सदक़ा मुख़य्यर  अवाम ने,
अच्छे भले ग़रीब को बीमार कर दिया।


हाँ को न रोक पाया, नहीं भी न कर सका,
न करदा थे गुनाह कि इक़रार कर दिया।


रूहानी हादसा-ए-अक़ीदत के ज़र्ब ने,
फ़ितरी  असासा क़ौम का बेकार कर दिया.