गीत
बहुत थके ऐ हमराही अब, आओ ज़रा सा सुस्ताएँ,
तुम भी प्यासे, हम भी प्यासे, चलो थकावट पीजाएँ।
अरमानो के बीज दबे हैं, बर्फ़ीली चट्टानों में,
बरखा रानी हिम पिघला, अंकुर फूटें, हम लहराएं।
कुछ न बोलें, होंट न खोलें, शब्दों की परछाईं तले,
चारों नयनों के दरपन को, सारी छवि दे दी जाएँ।
तेरे तन की झीनी चादर, मेरे देह की तंग क़बा,
आओ दोनों परिधानों को, उतन पुतन कर सी जाएँ।
सूरज के किरनों से बंचित, नर्म हवाओं से महरूम,
काया क़ैदी कपडों की है, आओ बगावत की जाएँ।
सूरज के किरनों से बंचित, नर्म हवाओं से महरूम,
ReplyDeleteकाया क़ैदी कपडों की है, आओ बगावत की जाएँ।
achcha likha hai
बहुत बढिया रचना है।बधाई।
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