Monday, January 12, 2009

कुदरत का मशविरा



क़ुदरत का मशविरा


अध्-जले ऐ पेड़! तू है, उम्र ए रफ़्ता 0 का शिकार,

क़र्ब ए गरमा झेलता, तनहा खडा है धूप में,

इब्न ए आदम को है, बेचैनी कि इन हालात में,

ढूढ़ता फिरता है पगला, मंदिरों-मस्जिद की छाँव।

जानता है तू कि बस, ग़ालिब है क़ुदरत का निज़ाम3,

ज़िन्दगी धरती पे जब, होती है बे बर्ग ओ समर4,

तब ज़मीं पर बार, बन जाता है हर पैदा शुदा,

है ज़मीं बर हक़ कि ढोने हैं, उसे अगले जनम,

तेरे, मेरे, इनके, उनके, गोया हर मख्लूक़के।

ऐ शजर! कर तू जुबां पैदा, बता नादान को,

बस तेरे जैसे मुक़ाबिल, ये भी हों मैदान में,

मत पनाहें ढूँढें अपनी, रूह की बाज़ार में,

नातावानाई ओ ज़ईफी7, का न हल ढूँढें 'जुनैद',

काट लें बस हौसले से, यह सज़ा ए उम्र क़ैद।


0-जरा-वस्था १-गर्मी की पीड़ा 3-आदम की औलाद ३-व्यवस्था ४-पत्ते एवं फल रहित ५ प्राणी वर्ग ६-पेड़ ७-बुढ़ाप काल


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