Thursday, January 30, 2014

junbishen 139



ग़ज़ल 
बहुत सी लग्ज़िशें ऐसी हुई हैं,
कि सासें आज भी लरज़ी हुई हैं.

मेरे इल्मो हुनर रोए हुए हैं,
मेरी नादानियाँ हंसती हुई हैं.

ये क़द्रें जिन से तुम लिपटे हुए हो,
हमारे अज़्म की उतरी हुई हैं.

वो चादर तान कर सोया हुवा है,
हजारों गुत्थियाँ उलझी हुई हैं.

बुतों को तोड़ कर तुम थक चुके हो,
तरक्की तुम से अब रूठी हुई है.

शहादत नाम दो या फिर हलाकत,
सियासत, मौतें तेरी दी हुई हैं.

हमीं को तैरना आया न "मुंकिर",
सदफ़ हर लहर पर बिखरी हुई हैं.

Tuesday, January 28, 2014

Junbishen 138

दोहे


घृणा मानव से करे, करे ईश से प्यार,
जैसे छत सुददृढ़ करै, खोद खोद दीवार।


कित जाऊं किस से मिलूँ, नगर-नगर सुनसान,
हिन्दू-मुस्लिम लाख हैं, एक नहीं इंसान।


जिन के पंडित मोलवी, घृणा पाठ पढाएं,
दीन धरम को छोड़ कर, वह मानवता अपनाएं।


कृषक! राजा तुम बनो, श्रमिक बने वज़ीर,
शाषक जाने भाइयो, बहु संख्यक की पीर।


सन्यासी सूफी बने, तो माटी पाथर खाए,
दूजी पीस पिसान को, काहे मांगन जाए।

Sunday, January 26, 2014

junbishen 137



मुस्कुराहटें 
जुरवा कहिस

भ्रमित हव्यो गयो, भ्रमण करिके,
चार धाम हव्यो आएव ।
माँगा, बाँटा अउर परोसा,
ज्ञान सभै लै आएव।
जोड़ा गांठा धेला पैसा,
पनडन का दै आएव,
दइव रहा मन तुम्हरे बैठा,
ओह पर न पतियाएव।

Junbishen 136


रूबाइयाँ 

चेहरे पे क़र्ब है, लिए दिल में यास,
कैसे तुझे यह ज़िन्दगी, आएगी रास,
मुर्दा है, गया माजी, मुस्तक़बिल है क़यास,
है हाल ग़नीमत ये, भला क्यों है उदास.


हर सुब्ह को आकर ये रुला देता है, 
मज़्मूम बलाओं का पता देता है,
बेहतर है कि बेखबर रहें "मुनकिर",
अख़बार दिल ओ जान सुखा देता है.


तबअन हूँ मै आज़ाद नहीं क़ैद ओ बंद,
हैं शोखी ओ संजीदगी, दोनों ही पसंद,
दिल का मेरे, दर दोनों तरफ खुलता है,
है शर्त कि दस्तक का हो मेयार बुलंद. 


Monday, January 20, 2014

Junbishen 135

नज़्म 

मुन्सिफ़ हाज़िर हो 

ऐ अदालत तेरे आँखों में हैं क़ातिल के नुकूश ,
और तेरे सर पे, बड़ी बेटी की शादी तय है,
इक बड़ी दौरी को भरना है, तुझे वर है सही ,
अस्मत ए अद्ल को बेचेगा, तू रंडी की तरह।

मरने वाले का मैं वालिद , तू है बेटी का पिता ,
हार जाऊंगा मुक़दमा , मैं बड़ा मुफ़लिस हूँ .

मशविरा है ये मेरा , छोड़ो अदालत के तवाफ़ ,
सब्र कर डालो , मुक़दमे का न चक्कर पालो ,
बख्श दें मुद्दई हर छोटे गुनह गारों को ,
और बड़े से तो ये बेहतर है, कि वह खुद ही निपटें ,
कल की बातें हैं अदालत , ये गवाही , ये वकील ,
आज पैसे का खिलौना है ये ज़हरीला निजाम ,

नहीं इंसाफ अगर है तो तबाही है यहाँ ,
यह बना होगा कभी सिद्क़ की मीनारों पर ,
आज यह सब से बड़ा रिशवतों का अड्डा है .
तुम ज़मीरों में बसे हो तो, बहादर भी बनो ,
वरना बुज़दिल की तरह जा के खुद कुशी कर लो .


Saturday, January 18, 2014

Junbishen 134


नज़्म 

घुट्ती रूहें

हाय ! लावारसी में इक बूढ़ी,
तन से कुछ हट के रूह लगती है।
रूह रिश्तों का बोझ सर पे रखे ,
दर-बदर मारी मारी फिरती है।
सब के दरवाज़े  खटखटाती है,
रिश्ते दरवाज़े  खोल देते हैं,
रूह घुटनों पे आ के टिकती है,
रिश्ते बारे-गरां को तकते हैं,
वह कभी बोझ कुछ हटाते हैं,
या कभी और लाद देते हैं।

रूह उठती है इक कराह के साथ,
अब उसे अगले दर पे जाना है.
एक बोझिल से ऊँट के मानिंद,
पूरी बस्ती में घुटने टेकेगी,
रिश्ते उसका शिकार करते हैं,
रूह को बेकरार करते हैं।
साथ देते हैं बडबडाते हुए,
काट खाते हैं मुस्कुराते हुए।

Thursday, January 16, 2014

Junbishen 133


ग़ज़ल 
पास आ जाएँ तो कुछ बात बने,
समझें समझाएं तो कुछ बात बने।

मर्द से कम तो नहीं हैं लेकिन,
नाज़ दिखलाएं तो कुछ बात बनें।

जुज्व आदम! क़सम है हव्वा की,
बहकें, बह्काएँ तो कुछ बात बनें।

कुर्बते वस्ल1 की अज़मत समझें,
थोड़ा शर्माए, तो कुछ बात बनें।

ख़ाना दारी से हयातें हैं रवाँ,
घर को महकाएँ तो कुछ बात बनें।

तूफाँ रोकेंगे नारीना2 बाजू,
पीछे आ जाएँ तो कुछ बात बनें।

कौन रोकेगा तुम्हें अब 'मुंकिर',
हद जो पा जाएँ तो कुछ बात बनें।

१-मिलन की निकटता 2- मर्दाना 

Tuesday, January 14, 2014

Junbishen 132


ग़ज़ल 
उसकी टेढी नज़र है,
सिर फिरी राह पर है।

तेरा पत्थर का दिल है,
मेरा शीशे का घर है।

मसख़रा आ गया है,
आबरू दाँव पर है।

हो गए हैं वो राज़ी ,
साथ में इक मगर है।

इल्मे-नव शेख़ समझें?
नए मानो का डर है।

निभावो या की जाओ ,
तुम्हीं पर मुनहसर है।

खेतियाँ बस कमल की,
बाग़ बानी में शर है।

दुश्मनों में घुसे वह,
उन में दिल है, जिगर है।

Sunday, January 12, 2014

Junbishen 131



ग़ज़ल 
आज़माने की बात करते हो,
दिल दुखाने की बात करते हो।

उसके फ़रमान में, सभी हल हैं,
किस फ़साने की बात करते हो।

मुझको फुर्सत मिली है रूठों से,
तुम मनाने की बात करते हो।

ऐसी मैली कुचैली गंगा में,
तुम नहाने की बात करते हो।

मेरी तक़दीर का लिखा सब है,
मार खाने की बात करते हो।

झुर्रियां हैं जहाँ कुंवारों पर ,
उस घराने की बात करते हो।

हाथ 'मुंकिर' दुआ में फैलाएं,
क़द घटाने की बात करते हो।

Friday, January 10, 2014

junbishen 130

क़तआत 

बेचारे 
तोतों की ज़िन्दगी थी , शिकरों में कट गई ,
अनदेखी आक़बत  के फ़िकरों में कट गई ,
जो अहले होश थे , वो सभी लेके उड़ गए ,
इनकी हयात हयात दीन  के ज़िक्रों में कट गई .

काफ़ 
यह काफ़ सवालों का, उठाए है पिटारा,
कब?कौन?कहाँ?कैसे?कितने? हैं गवारा,
आ जाए सवालों में अगर क्यों?या मगर क्यों?
चढ़ जाता है सुन कर इसे ठहरा हुवा पारा।    

जल परी 
शाम आई भर नहीं , ऊबने लगता है दिल ,
जाने क्यों गुम सी ख़बर , ढूँढने लगता है दिल ,
याद आती है उसे इक खूबसूरत जल परी ,
जाके पैमाने में फिर , डूबने लगता है दिल .


Wednesday, January 8, 2014

Junbishen 129

मुस्कुराहटें 


मरसिया 

बाद मुद्दत के सही , आई क़ज़ा अच्छा हुवा .
थक गया था , चार कान्धों पर लदा अच्छा हुवा .

लुट गया बुड्ढे का कल माल ओ मतअ अच्छा हुवा .
था दुकान ओ घर पे ग़ालिब , मर गया अच्छा हुवा .

बेबसी के बार ए ज़हमत से तुम्हें छुट्टी मिली ,
था निज़ाई वक़्त , तुमने ली ख़ुला अच्छा हुवा .

रो रहे हो इस लिए , दुन्या का ये दस्तूर है ,
दिल में कहते हो मरा खूसट , चलो अच्छा हुवा .

मैं भटकती रूह हूँ ,उसके सितम से था मरा ,
आज निपटूंगा , कि मह्शर में मिला अच्छा हुवा . 

देख कर मय्यत को क्यों, मिलती है राहत क़ल्ब को ,
लगता है मुंकिर कि थोडा सा, मरा अच्छा हुवा .
*

Monday, January 6, 2014

Junbishen 128

रुबाइयाँ 


फ़न को तौलते रहे, गारत थी फ़िक्र,
था मेराज पर उरूज़, नदारत थी फ़िक्र,
थी ग़ज़ल ब-अकद, समाअत क्वाँरी,
थी ज़बाँ ब वस्ल , ब इद्दत थी फ़िक्र. 


खुद मुझ से मेरा ज़र्फ़ जला जाता है,
कज़ोरियों पर हाथ मला जाता है,
दिल मेरा कभी मुझ से बग़ावत करके,
शैतान के क़ब्ज़े में चला जाता है.


कारूनी ख़ज़ाना है, हजारों के पास,
शद्दाद की जन्नत, बे शुमारों के पास,
जम्हूरी तबर्रुक की ये बरकत देखो,
खाने को नहीं है थके हारों के पास. 

Saturday, January 4, 2014

Junbishen 127



नज़्म 
सुब्ह की पीड़ा

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,
लेटे-लेटे, मैं बैठ जाता हूँ ,
ध्यान,चिंतन के यत्न करता हूं,
ग़र्क़ होना भी फिर से सोना है,
कुछ भी पाना, न कुछ भी खोना है।

सुब्ह फूटी है, नींद टूटी है,
सैर करने मैं चला जाता हूँ,
तन टहलता मन ,पे बोझ लिए,
याद आते हैं ख़ल्क़ के शैतां,
रूहे-बद साथ साथ रहती है,
मेरी तन्हाइयाँ कचरती है।

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,
चीख उठता है भोपू मस्जिद का,
चीख उठती है नवासी मेरी,
बस अभी चार माह की है वह,
यूँ नमाज़ी को वह जगाते है,
सोए मासूम को रुलाते हैं।

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,
पत्नी टेलिविज़न को खोले है,
ढोल ताशे पे बैठा इक पंडा,
झूमता,गाता और रिझाता है।
आने वाले हमारे सतयुग को,
अपने कलि युग में लेके जाता है।

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,
किसी मासूम का करूँ दर्शन,
वरना आ जायगा मिथक बूढा,
और पूछेगा खैरियत मेरी,
घंटे घडयाल शोर कर देंगे,
रस्मी दावत अजान देदेगी.

Thursday, January 2, 2014

junbishen 126


नज़्म 

मेरी खुशियाँ

जा पहुँचता हूँ कभी डूबे हुए सूरज तक,
ऐसा लगता है मेरी ख़ुशियाँ वहीं बस्ती हैं,
जी में आता है,वहीं जा के रिहाइश कर लूँ ,
क्या बताऊँ कि अभी काम बहुत बाक़ी हैं।

मेरी  ख़ुशियाँ मुझे तन्हाई में ले जाती हैं,
क़र्ब ए आलाम1 से कुछ देर छुड़ा लेती हैं,
पास वह आती नहीं, बातें किया करती हैं,
बीच हम दोनों के इक सिलसिला ए लासिल्की2 है।

मेरी खुशियों की ज़रा ज़ेहनी बलूग़त3 देखो,
पूछती रहती हैं मुझ से मेरी बच्ची की तरह,
सच है रौशन तो ये तारीकियाँ ग़ालिब क्यूं हैं?
ज़िन्दगी गाने में सब को ये क़बाहत क्यूं है?

एक जुंबिश सी मेरी सोई खिरद पाती है,
अपनी लाइल्मी पे मुझ को भी मज़ा आता है,
देके थपकी मैं इन्हें टुक से सुला देता हूँ ,
इस तरह लोरियां मैं उनको सुना देता हूँ ----

"ऐ मेरी खुशियों! फलो,फूलो,बड़ी हो जाओ,
अपने मेराजके पैरों पे खड़ी हो जाओ,
इल्म आने दो नई क़दरें ज़रा छाने दो,
साज़ तैयार है, नगमो को सदा१० पाने दो,

तुम जवाँ होंगी, बहारों की फ़िज़ा छाएगी,
ज़िन्दगी फ़ितरते आदम की ग़ज़ल जाएगी".
"रौशनी इल्मे नव११ की आएगी,
सारी तारीकियाँ मिटाएगी,

जल्दी सो जाओ सुब्ह उठाना है,
कुछ नया और तुमको पढ़ना है".


१- व्याकुळ २-वायर-लेस ३-बौधिक व्यसक्ता4-अंधकार ५ -विकार ६-अक्ल ७-अज्ञानता ८-शिखर ९-मान्यताएं१०-आवाज़ ११-नई शिक्षा