Sunday, June 30, 2013

Junbishen 36

क़तआत
ज़िन्दगी कटी

बन्ने का और संवारने का मौक़ा न मिल सका,
खुशियों से बात करने का मौक़ा न मिला सका,
बन्दर से खेत ताकने में ही ज़िन्दगी कटी,
कुछ और कर गुजरने का मौक़ा न मिल सका।

बंधक

ऋण के गाहक बन बैठे हो,
शून्य के साधक बन बैठे हो,
किस से मोक्ष और कैसी मोक्ष,
ख़ुद में बंधक बन बैठे हो।

शायरी 

फ़िक्र से ख़ारिज अगर है शायरी , बे रूह है ,
फ़न से है आरास्ता , माना मगर मकरूह है,
हम्द नातें मरसिया , लाफ़िकरी हैं, फिक्रें नहीं ,
फ़िक्र ए नव की बारयाबी , शायरी की रूह है . 

Saturday, June 22, 2013

Junbishen 34


ग़ज़ल 

मख़लूक़ ए ज़माने1 की ज़रूरत को समझ ले,
बेहतर है इबादत से, तिजारत को समझ ले।

ऐ मरदे-जवान साल, तू अब सीख ले उड़ना,
माँ-बाप की मजबूर किफ़ालत को समझ ले।

हुजरे3 में मसाजिद के, अज़ीज़ों को मत पढ़ा,
गिलमा के तलब गारों की, ख़सलत को समझ ले।

बारातों, जनाजों के लिए, चाहिए इक भीड़,
नादाँ तबअ उनकी, सियासत को समझ ले।

मनवा के "उसे" अपने को मनवाएगा वह शेख़ ,
यह दूर कि कौडी है, नज़ाक़त को समझ ले।

'मुंकिर' हो फ़िदा ताकि बक़ा6 हाथ हो तेरे,
मशरूत7 वजूदों की, शहादत को समझ ले।


१-जन साधारण २ -पालन-पोषण ३-कमरों ४-सेवक बालक ५-सरल-स्वभाव ६-स्थायित्व ७- सशर्त

Friday, June 21, 2013

junbishen 33


ग़ज़ल


हक्कुल इबाद से ये, लबरेज़ है न छलके,
राहे अमल में थोड़ा, मेरे पिसर संभल के।

ऐ शाखे गुल निखर के, थोड़ा सा और फल के,
अपने फलों को लादे, कुछ और थोड़ा ढल के।

अपने खुदा को ख़ुद मैं, चुन लूँगा बाबा जानी,
मुझ में सिने बलूगत, कुछ और थोड़ा झलके।

लम्हात ज़िन्दगी के, हरकत में क्यूँ न आए,
तुम हाथ थे उठाए, चलते बने हो मल के।

कहते हो उनको काफिर, जो थे तुम्हारे पुरखे,
है तुम में खून उनका, लोंडे अभी हो कल के।

मेहनत कशों की बस्ती, में बेचो मत दुआएं,
"मुंकिर" ये पूछता है, तुम हो भी कुछ अमल के।

हक्कुल इबाद =मानव अधिकार

Tuesday, June 18, 2013

Junbishen 32


ग़ज़ल 


देखो पत्थर पे घास उग आई, अच्छे मौसम की सर परस्ती है,
ऐ क़यादत1 कि बाद कुदरत के, मेरी आंखों में तेरी हस्ती है।

भाग्य को गर न कर तू बैसाखी, तुझ को छोटा सा एक चिंतन दूँ,
सर्व संपन्न के बराबर ही, सर्वहारा की एक बस्ती है।

दहकाँ2 मोहताज दाने दाने का, और मज़दूर भी परीशाँ है,
सुनता किसकी दुआ है तेरा रब, उसकी रहमत कहाँ बरसती है।

ज़िन्दा लाशों में एक को खोजो, जिस में सुनने का होश बाक़ी हो,
उस से कह दो कि नींद महंगी है, उस से कह दो कि जंग सस्ती है।

मेरे हिन्दोस्तां का ज़ेहनी सफ़र, दूर दर्शन पे रोज़ है दिखता,
किसी चैनल पे धर्म कि पुड़िया, किसी चैनल पे मौज मस्ती है।

ज़ब्त बस ज़हर से ज़रा कम है, सब्र इक ख़ुद कुशी कि सूरत है,
इन को खा पी के उम्र भर 'मुंकिर' ज़िन्दगी मौत को तरसती है।

१-सरकार २-किसान

Sunday, June 16, 2013

Junbishen 31





नज़्म 

दस्तक 

घूँघट तो उठा दे कभी, ऐ वहिदे मुतलक़1  ,
चिलमन पे खड़ा कब से हूँ, आमादए दस्तक .

बाज़ार तेरे खैर की बरकत की लगी है ,
अय्यार लगाए हैं दुकानें , जो ठगी है .

तुज्जार2  तेरी शक्लें हजारो बनाए हैं ,
आपस में मुक़ाबिल भी हैं , तेवर चढ़ाए हैं .

अल्लाह बड़ा है , तू बड़ा है , तू बड़ा है ,
शैतान है छोटा जो तेरे साथ खड़ा है .

कब तक यह फसानों की हवा छाई रहेगी ,
माजी3  की सियासत की वबा छाई रहेगी .

सर पे है खड़ा वक़्त चढ़ाए हुए तेवर ,
हो जाए न महश4  से ही पहले कोई महशर .

अब सोच को बदलो भी क़दामत के पुजारी ,
मुंकिर तभी संवरेगी ज़रा नस्ल तुम्हारी . 

१-एकेश्वर २- व्यापारी ३-भूत काल ४-प्रलय 

Friday, June 14, 2013

Junbishen 30


नज़्म 

अपील

लिपटे-लिपटे सदियाँ गुज़रीं, वहेम् की इन मीनारों से ,
मन्दिर, मस्जिद, गिरजा, मठ और दरबारी दीवारों से ,
अन्याई उपदेशों से, और कपट भरे उपचारों से ,
दोज़ख, जन्नत की कल्पित, इन अंगारों ,उपहारों से .

बहुत अनोखा जीवन है ये, इन पर मत बरबाद करो ,
माज़ी के हैं मुर्दे ये सब, इनको मुर्दाबाद करो ,
इनका मंतर उनका छू, निज भाषा में अनुवाद करो .
निजता का काबा काशी, निज चिंतन में आबाद करो.

Wednesday, June 12, 2013

Junbishen 29


मुकुराहटें 

डर डरा डर डर, डर डर डर 

है बाढ़ का, क़हत का, बड़े ज़लज़ला का डर,

पर्यावरण से दूषित, आबो-हवा का डर,

है कैंसर से, एड्स से, सब को फ़ना का डर,

राहों पे चलते फिरते, किसी हादसा का डर,

साँपों का, बिछुओं का, मुए भेड़िया का डर,

नेता, पुलिस, लुटेरे, गुरू, माफिया का डर,

इन सब से बच बचा के भी, बाकी बचा रहा, 

शैतान, भूत, जिन्न ओ मलायक, खुदा का डर। 
***

Monday, June 10, 2013

Junbishen 28


दोहे 

मन को इतना मार मत , मर जाएँ अरमान ,
अरमानों के जाल में, मत दे अपनी जान .

*
चित को क़ैदी कर गई , लोहे की दीवार 
बड़ी तिजोरी में छिपी , दौलत की अंबार .

*
तुलसी बाबा की कथा, है धारा परवाह,
राम लखन के काल के, जैसे होएं गवाह।

*
भाई पडोसी को लड़ा, हो तेरा उद्धार,
अमरीका यरोप बेच लें, काई लगे हथियार 
.
*
अम्रीका योरोप हैं जगे, जगे चीन जापान,
दीन धरम की नींद में, पड़ा है हिन्दुस्तान.

Thursday, June 6, 2013

JUNBISHEN 27


रुबाई 

इंसान नहीफों को दवा देते हैं 
हैवान नहीफों को मिटा देते हैं ,
है कौन समझदार यहाँ दोनों में ,
कुछ देर ठहर जाओ बता देते हैं 
*
सच्चे को बसद शान ही, बन्ने न दिया
बस साहिबे ईमान ही, बन्ने न दिया
पैदा होते ही कानों में, फूँक दिया झूट
इंसान को इंसान ही, बन्ने न दिया
*
ये लाडले, प्यारे, ये दुलारे मज़हब
धरती पे घनी रात हैं, सारे मज़हब
मंसूर हों, तबरेज़ हों, या फिर सरमद
इन्सान को हर हाल में, मारे मज़हब

Tuesday, June 4, 2013

Junbishen 26




ग़ज़ल 

कहीं हैं हरम1 की हुकूमतें, कहीं हुक्मरानी-ऐ-दैर2 है,
कहाँ ले चलूँ ,तुझे हम जुनूँ, कहाँ ख़ैर शर3 के बगैर है।

बुते गिल4 में रूह को फूँक कर, उसे तूने ऐसा जहाँ दिया,
जहाँ जागना है एक ख़ता, जहाँ बे ख़बर ही बख़ैर है।

बड़ी खोखली सी ये रस्म है, कि मिलो तो मुँह पे हो ख़ैरियत?
ये तो एक पहलू नफ़ी5 का है, कहाँ इस में जज़्बाए ख़ैर है।

मुझे ज़िन्दगी में ही चाहिए , तेरी बाद मरने कि चाह है,
मेरा इस ज़मीं पे है कारवाँ, तेरी आसमान की सैर है।

सभी टेढे मेढ़े सवाल हैं कि समाजी तौर पे क्या हूँ मैं,
मेरी ज़ात पात से है दुश्मनी, मेरा मज़हबों से भी बैर है।

१-काबा २-मन्दिर ३-झगडा ४-माटी की मूरत ५-नकारात्मक

Monday, June 3, 2013

Junbishen 25



ग़ज़ल 

वहम् का परदा उठा क्या, हक़ था सर में आ गया,
दावा ऐ पैग़म्बरी, हद्दे बशर में आ गया।

खौफ़ के बेजा तसल्लुत1, ने बग़ावत कर दिया,
डर का वो आलम जो ग़ालिब था, हुनर में आ गया।

यादे जानाँ तक थी बेहतर, आक़बत2 की फ़िक्र से,
क्यूं दिले नादाँ, तू ज़ाहिद के असर में आ गया।

जितनी शिद्दत से, दुआओं की सदा कश्ती में थी,
उतनी तेज़ी से सफ़ीना, क्यूँ भंवर में आ गया।

छोड़ कर हर काम, मेरी जान तू लाहौल3 पढ़,
मन्दिरो मस्जिद का शैतान, फिर नगर में आ गया।

एक दिन इक बे हुनर, बे इल्म और काहिल वजूद,
लेके पुडिया दीन की "मुंकिर" के घर में आ गया।

१-लदान २ -परलोक ३-धिक्कार मन्त्र