Friday, May 25, 2012

ग़ज़ल - - - उनकी हयात उसकी नमाजों के वास्ते





उनकी हयात उसकी नमाजों के वास्ते,
मेरी हयात उसके के ही राजों के वास्ते।

मुर्शिद के बांकपन के तकाजों को देखिए,
नूरानियत है जिस्म गुदाज़ों के वास्ते।

मंजिल को अपनी, अपने ही पैरों से तय करो,
है हर किसी का कांधा जनाजों के वास्ते।

सासें तेरे वजूद की नगमो की नजर हों,
जुंबिश बदन की हों तो हों साजों के वास्ते।

गाने लगी है गीत वोह नाज़िल नुज़ूल की,
बुलबुल है आसमान के बाज़ों के वास्ते।

"मुंकिर" वहां पे छूते छुवाते हैं पैर को,
बज़्मे अजीब दो ही तक़ाज़ों के वास्ते।


मुर्शिद=आध्यात्मिक गुरु *जिस्म गुदजों =हसीनाओं *नाज़िल नुज़ूल =ईश वानियाँ

Friday, May 18, 2012

ग़ज़ल- - -तोहमत शिकस्ता पाई की मुझ पर मढे हो तुम





तोहमत शिकस्ता पाई की, मुझ पर मढे हो तुम,
राहों के पत्थरों को, हटा कर बढे हो तुम?




कोशिश नहीं है, नींद के आलम में दौड़ना,
बेदारियों की शर्त को, कितना पढ़े हो तुम?




बस्ती है डाकुओं की यहाँ लूट के खिलाफ,
तकरीर ही गढे, कि जिसरत गढे हो तुम?




अल्फाज़ से बदलते हो, मेहनत कशों के फल,
बाजारे हादसात में, कितने कढे हो तुम।




इंसानियत के फल हों, इन धर्मों के पेड़ में,
ये पेड़ है बबूल का, जिस पे चढ़े हो तुम।




"मुंकिर" जो मिल गया, तो उसी के सुपुर्द हो,
खुद को भी कुछ तलाशो,लिखे और पढ़े हो तुम.




शिकस्ता पाई=सुस्त चाल

Friday, May 11, 2012

gazal - - -जाहिद में तेरी राग में हरगिज़ न गाऊँगा




ज़ाहिद    मैं  तेरी राग में हरगिज़ न गाऊँगा,
हल्का सा अपना साज़ अलग ही बनाऊँगा।


तू मेरे हल हथौडे को मस्जिद में लेके चल,
तेरे खुदा को अपनी  नमाज़ें  दिखाऊँगा।


सोहबत भिखारियों की अगर छोड़ के तू आ,
मेहनत की पाक  साफ़   गिज़ा मैं खिलाऊँगा।


तुम खोल क्यूँ चढाए हो  अख़लाक़यात  के,
हो जाओ  बेलिबास, मैं आखें चुराऊँगा।


ए ईद! तू लिए है खड़ी इक  नमाज़े-बेश,
इस बार छटी बार मैं पढने न जाऊँगा।


खामोश हुवा चौदह सौ सालों से खुदा क्यूँ,
अब उस की जुबां सच की सदा से खुलाऊँगा .



Friday, May 4, 2012

ग़ज़ल - - - खेमें में बसर कर लें इमारत न बनाएँ






खेमें में बसर कर लें इमारत न बनाएँ,
जो दिल पे बने बोझ वो दौलत न कमाएँ।




सन्देश ये आकाश के, अफ्लाकी निदाएँ,
हैं इन से बुलंदी पे सदाक़त की सदाएँ।




सच्ची है ख़ुशी इल्म की दरया को बहाएँ,
भर पूर पढें और अज़ीज़ों को पढ़ाएँ।




संगीन के साए में हैं रहबर कि खताएँ,
मज़लूम के हिस्से में बिना जुर्म सजाएँ।




तीरथ कि ज़ियारत हो,कोई पाठ पढ़ाएँ,
जायज़ है तभी जब न मोहल्ले को सताएँ।




जलसे ये मज़ाहिब के, ये धर्मों कि सभाएँ,
"मुंकिर" न कहीं देश कि दौलत को जलाएँ।


*अफ्लाकी निदाएँ=कुरान वाणी *सदाक़त=सत्य वचन *ज़ियारत=दर्शन .