Friday, February 28, 2014

Junbishen 153


दोहे

माटी के तन पर तेरे, चढत है चादर पीर,
बिन चादर के सहित में, मानव तजें शरीर.


मानव जीवन युक्ति है, संबंधों का जाल।
मतलब के फांसे रहे, बाक़ी दिया निकाल॥


पानी की कल कल सुने, सुन ले राग बयार।
ईश्वर वाणी है यही, अल्ला की गुफ्तार॥


चित को कैदी कर गई, लोहे की दीवार।
बड़ी तिजोरी में छिपी, दौलत की अम्बार॥


अल्ला को तू भूल जा , मत कर उसका ध्यान ,
अल्ला की मख्लूक़ का , पहले हो कल्यान .

Wednesday, February 26, 2014

Junbishen 152



मुस्कुराहटें 

साझेदारी 

फ़न का माहिर हूँ ज़ात रखता हूँ ,
मैं उरूज़ी बिसात रखता हूँ ,

बस कि आवाज़ ही नहीं पाई ,
तुम में मूसूक़ी है मेरे भाई .

आओ ग़जलों का कारोबार करें ,
अपनी ग़ुरबत को शर्म सार करें ,

दाल रोटी का कुछ सहारा हो ,
ग़ज़लें मेरी गला तुम्हारा हो ,

आधे आधे की हिस्से दारी हो ,
मैं हूँ शायर कि तुम मदारी हो . 

Monday, February 24, 2014

Junbishen 151

रूबाइयाँ


हम लाख संवारें , वह संवारता ही नहीं,
वह रस्म ओ रिवाजों से उबरता ही नहीं,
नादाँ है, समझता है दाना खुद को,
पस्ता क़दरें लिए, वह डरता ही नहीं. 



हों यार ज़िन्दगी के सभी कम सहिह, 
देते हैं ये इंसान को आराम सहिह 
है एक ही पैमाना, आईना सा,
औलादें सहिह हैं तो है अंजाम सहिह.




मज़दूर थका मांदा है देखो तन से, 
वह बूढा मुफक्किर भी थका है मन से, 
थकना ही नजातों की है कुंजी मुंकिर, 
दौलत का पुजारी नहीं थकता धन से. 

Saturday, February 22, 2014

junbishen 150


नज़्म 

जुरवा कहिस

भ्रमित हव्यो गयो, भ्रमण करिके,
चार धाम हव्यो आएव ।
माँगा, बाँटा अउर परोसा,
ज्ञान सभै लै आएव।
जोड़ा गांठा धेला पैसा,
पनडन का दै आएव,
दइव रहा मन तुम्हरे बैठा,
ओह पर न पतियाएव।

Thursday, February 20, 2014

Junbishen 149



नज़्म 
क़ुदरत का मशविरा

अध्-जले ऐ पेड़! तू है, उम्र ए रफ़्ता 0 का शिकार,
क़र्ब ए गरमा झेलता, तनहा खडा है धूप में,
इब्न ए आदम को है, बेचैनी कि इन हालात में,
ढूढ़ता फिरता है पगला, मंदिरों-मस्जिद की छाँव।

जानता है तू कि बस, ग़ालिब है क़ुदरत का निज़ाम3,
ज़िन्दगी धरती पे जब, होती है बे बर्ग ओ समर4,
तब ज़मीं पर बार, बन जाता है हर पैदा शुदा,
है ज़मीं बर हक़ कि ढोने हैं, उसे अगले जनम,
तेरे, मेरे, इनके, उनके, गोया हर मख्लूक़5 के।

ऐ शजर! कर तू जुबां पैदा, बता नादान को,
बस तेरे जैसे मुक़ाबिल, ये भी हों मैदान में,
मत पनाहें ढूँढें अपनी, रूह की बाज़ार में,
नातावानाई ओ ज़ईफी7, का न हल ढूँढें 'जुनैद',
काट लें बस हौसले से, यह सज़ा ए उम्र क़ैद।

0-जरा-वस्था १-गर्मी की पीड़ा 3-आदम की औलाद ३-व्यवस्था ४-पत्ते एवं फल रहित ५ प्राणी वर्ग ६-पेड़ ७-बुढ़ाप काल

Tuesday, February 18, 2014

Junbishen 148



ग़ज़ल 
रहबर ने पैरवी का जुनूं ,यूँ बढा लिया,
आखें जो खुली देखीं तो, तेवर चढा लिया।

तहकीक़ ग़ोर  ओ फ़िक्र, तबीअत पे बोझ थे,
अंदाज़ से जो हाथ लगा, वह उठा लिया।

शोध और आस्था में, उन्हें चुनना एक था,
आसान आस्था लगी, सर में जमा लिया।

साधू को जहाँ धरती के, जोबन ज़रा दिखे,
मन्दिर बनाया और, वहीँ धूनी रमा लिया।

पाना है गर ख़ुदा को, तो बन्दों से प्यार कर,
वहमों कि बात थी ये, ग़नीमत कि पा लिया।

"मुकिर" की सुलह भाइयों से, इस तरह हुई,
खूं पी लिया उन्हों ने, ग़म इस ने खा लिया.

Sunday, February 16, 2014

Junbishen 147



ग़ज़ल 
उस तरफ फिर बद रवी की, इन्तहा ले जाएगी,
फिर घुटन कोई किसी को, करबला ले जायगी।

ज़ुल्म से सिरजी ये दौलत, दस गुना ले जाएगी,
लूट कर फ़ानी ने रक्खा है, फ़ना ले जाएगी।

है तआक़ुब में ये दुन्या, मेरे नव ईजाद के,
मैं उठाऊंगा क़दम, तो नक़्श ए पा ले जाएगी।

तिफ़्ल के मानिंद, अगर घुटने के बल चलते रहे,
ये जवानी वक़्त की आँधी उड़ा ले जाएगी।

बा हुनर ने चाँद तारों पर बनाई है पनाह,
मुन्तज़िर वह हैं, उन्हें उन की दुआ ले जाएगी।

सारे ख़िलक़त का अमानत दार है, "मुंकिर" का खू,
ए तमअ तुझ पर नज़र है, कुछ चुरा ले जाएगी।

बुल हवस को मौत तक, हिर्स ओ हवा ले जाएगी,
जश्न तक हमको क़िनाअत की अदा ले जाएगी।

बद ख़बर अख़बार का, पूरा सफ़ह ले जाएगी,
नेक ख़बरी को बलाए, हाशिया ले जाएगी।

बाँट दूँगा बुख्ल अपने खुद ग़रज़ रिश्तों को मैं,
बाद इसके जो बचेगा, दिल रुबा ले जाएगी।

रंज ओ गम, दर्द ओ अलम, सोज़ ओ ख़लिश हुज़्न ओ मलाल,
"ज़िन्दगी हम से जो रूठेगी, तो क्या ले जाएगी"।

मेरा हिस्सा ना मुरादी का, मेरे सर पे रखो,
अपना हिस्सा ऐश का, वह बे वफ़ा ले जाएगी।

गैरत "मुंकिर" को मत, काँधा लगा पुरसाने हाल,
क़ब्र तक ढो के उसे, उसकी अना ले जाएगी।
*****
*बद रवी =दूर व्योहार *तआक़ुब=पीछा करना *तिफ्ल=बच्चा *तमअ=लालच
*बुल हवस =लोलुपता *हिर्स ओ हवा =आकाँछा *किनाअत=संतोष *बुख्ल=कंजूसी *अना=गैरत

Saturday, February 15, 2014

Junbishen 146



ग़ज़ल 
सुब्ह उफ़ुक़ है शाम शिफ़क़ है,
देख ले उसको, एक झलक है.

बात में तेरी सच की औसत,
दाल में जैसे, यार नमक है।

आए कहाँ से हो तुम ज़ाहिद?
आंखें फटी हैं, चेहरा फ़क है।

उसकी राम कहानी जैसी,
बे पर की ये ,सैर ए फ़लक़ है।

माल ग़नीमत ज़ाहिद खाए,
उसकी जन्नत एक नरक है।

काविश काविश, हासिल हासिल,
दो पाटों में जन बहक़ है।

धर्मों का पंडाल है झूमा,
भक्ति की दुन्या, मादक है।

हिंद है पाकिस्तान नहीं है,
बोल बहादर जो भी हक़ है।

कुफ़्र ओ ईमान, टेढी गलियां,
सच्चाई की, सीध सड़क है।

फ़ितरी बातें, एन सहीह हैं,
माफ़ौक़ुल फ़ितरत पर शक है।

कितनी उबाऊ हक़ की बातें,
"मुंकिर" उफ़! ये किस की झक है.

Wednesday, February 12, 2014

Junbishen 145


मुस्कुराहटें 

टक्कर 

था तबअ आज़ाद दहकाँ ,शेख़ ए बातिल का था वाज़ ,
"मैं उसे सौ ऊँट दूंगा , जो पढ़े सौ दिन नमाज़ ."
पा के लालच ऊँट का, दहकाँ वह राज़ी हो गया ,
गोया अगले रोज़ से, पाजी नमाज़ी हो गया .

सौ दिनों के वाद आए शेख जब उसके यहाँ ,
बोले  बेटा  पास मेरे ऊँट और घोडे कहाँ ,
तुझको कर देना नमाज़ी, बस मुझे दरकार था ,
राह में मस्जिद के बस, तू ही खटकता ख़ार था .
शेख़ की वादा खिलाफ़ी पर था उसका ये जवाब ,
बे वज़ू के मैंने भी, टक्कर लगाए हैं जनाब .
***

Monday, February 10, 2014

Junbishen 144

रूबाइयाँ 
अल्लाह उन्हें रख्खे, उनकी क्या बात,
हर वक़्त रहा करते हैं सब से मुहतात,
खाते हैं छील छाल कर रसगुल्ले, 
पीते है उबाल कर मिला आबे-हयात.


फ़िरऔन मिटे, ज़ार ओ सिकंदर टूटे,
अँगरेज़ हटे नाज़ि ओ हिटलर टूटे,
इक आलमी गुंडा है उभर कर आया,
अल्लाह करे उसका भी ख़जर टूटे.


हलकी सी तजल्ली से हुआ परबत राख,
इंसानी बमों से हुई है बस्ती ख़ाक,
इन्सान ओ खुदा दोनों ही यकसाँ ठहरे,
शैतान गनीमत है रखे धरती पाक.

Saturday, February 8, 2014

Junbishen 143


नज़्म 

अकेलवा

वह पेड़ देखो तनहा है, पौदों के दर्मियां,
खेतों का और जीवों का, जैसे हो पासबाँ ।

देता है राहगीरों को, मंजिल के रस्ते,
बादल को खीच लाता, खेतों के वास्ते।

चिडयों का घर दुवार है और ऐश गाह है,
गर्मी में मवेशी के लिए, इक पनाह है।

महकाता है फज़ाओं को, जब फूलता है यह,
फलता है, तो फलों को लिए, झूलता है यह।

जब तक जिएगा, सब के लिए आम देगा यह,
मरने के बाद भी, हमें आराम देगा यह।

इन्सां तो बस ज़मीं पे है, लेने के वास्ते,
यह पेड़ बस कि होते हैं, देने के वास्ते।

Thursday, February 6, 2014

junbishen 142


नज़्म 

पतझड़ के पात

हूँ मुअल्लक़1 इन्तेहा-ओ-ख़त्म शुद2 के दरमियाँ।
ऐ जवानी! अलविदा!! अब आएगी दिल पर खिज़ाँ3

ज़ेहन अब बहके गा जैसे पहले बहके थे क़दम,
कूए-जाना4 का मुसाफिर जायगा अब आश्रम।

यह वहां पाजाएगा टूटा हुवा कोई गुरू,
ज़ख्म खुर्दा5 मंडली होगी, यह होगा फिर शुरू।

धर्मो-मज़हब की किताबें फिर से यह दोहराएगा,
नव जवानो को ब्रम्ह्चर और फिकः6 समझाएगा।

फिर यह चाहेगा कोई पहचान बन जाए मेरी,
दाढ़ी,चोटी,और जटा ही शान बन जाए मेरी।

फिर ये अपना बुत तराशेगा गुरू बन जाएगा,
ये समझता है ब़का7 में आबरू बन जाएगा।

१-बीचअटका हुवा २-इतिऔर समाप्ति ३-प्रेमिका की गली ५-घायल ६-धर्म-शास्त्र ७-शेष .

Tuesday, February 4, 2014

junbishen 1412



ग़ज़ल 
ये तसन्नो में डूबा हुवा, प्यार है,
क्या कोई चीज़ फिर, मुफ़्त दरकार है.

फैली रूहानियत की, वबा क़ौम में,
जिस्म मफ़्लूज है, रूह बीमार है.

नींद मोहलत है इक, जागने के लिए,
जाग कर सोए तो नींद, आज़ार है.

बुद्धि हाथों पे सरसों, उगाती रही,
बुद्धू कहते रहे, ये चमत्कार है.

मुज़्तरिब हर तरफ़, सीधी जमहूर है,
मुन्तखिब की हुई, किसकी सरकार है.

बाँटता फिर रहा है, वो पैग़ामे मौत,
भीड़ थमती है, जैसे तलबगार है.

एक झटके में जोगी, कहीं जा मर,
क़िस्त में मौत तेरी, ये बेकार है.


हों न'मुंकिर' इबारत ये उलटी सभी,
ले के आ आइना वोह मदद गार है.
*****
*आज़ार=रोग *मुज़्तरिब=बेचैन *मुन्तखिब=चुनी हुई.

Sunday, February 2, 2014

Junbishen 140


ग़ज़ल 
तुम तो आदी हो सर झुकने के,
बात सुनने के, लात खाने के।

क्या नक़ाइस हैं, पास आने के,
फ़ायदे क्या हैं, दिल दुखाने के?

क़समें खाते हो, बावले बन कर,
तुम तो झूटे हो इक ज़माने के।

लब के चिलमन से, मोतियाँ झांकें,
ये सलीक़ा है, घर दिखाने के।

ले के पैग़ाम ए सुल्ह आए हो,
क्या लवाज़िम थे, तोप ख़ाने के।

मैं ने पूछी थी खैरियत यूं ही,
आ गए दर पे, काट खाने के।

जिन के हाथों बहार बोई गईं,
हैं वह मोहताज दाने दाने के।
*****