ग़ज़ल
बेखटके जियो यार, कि जीना है ज़िन्दगी,
निसवां1 है हिचक ,खौफ़ , नरीना2 है ज़िन्दगी।
खनते को उठा लाओ, दफ़ीना है ज़िन्दगी,
माथे पे सजा लो, कि पसीना है ज़िन्दगी।
घर, खेत, सड़क, बाग़ की, राहें सवाब हैं,
काबा न मक्का और न मदीना, है ज़िन्दगी।
नेकी में नियत बद है, तो मजबूर है बदी,
देखो कि किसका कैसा, क़रीना है ज़िन्दगी।
जिनको ये क़्नाअत3 की नफ़ी4, रास आ गई,
उनके लिए ये नाने-शबीना5 है ज़िन्दगी।
अबहाम6 की तौकों से, सजाए वजूद हो,
'मुंकिर' जगे हुए पे, नगीना है ज़िन्दगी।
१-स्त्री लिंग २-पुल्लिग़ ३-संतोष ४-आभाव ५-बासी रोटी ६-अंध-विशवास
khObsurat badhaai
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी रचना ...बधाई ...
ReplyDeleteअनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति