Saturday, November 30, 2013

Junbishen 109


रुबाइयाँ 


ज़ालिम के लिए है तेरी रस्सी ढीली,
मजलूम की चड्ढी रहे पीली  गीली,
औतार ओ पयम्बर को, दिखाए जलवा,
और हमको दिखाए, फ़क़त छत्री नीली.


है रीश रवाँ, शक्ल पे गेसू है रवां,
हँसते हैं परी ज़ाद सभी, तुम पे मियाँ, 
मसरूफ इबादत हो, मशक्क़त बईद,
करनी नहीं शादी तुम्हें? कैसे हो जवान.


जब तक नहीं जागोगे दलित और पिछडो,
आपस में लड़ोगे यूं ही शोषित बंदो,
ग़ालिब ही रहेंगे तुम पे ये मनुवादी,
ऐ अक्ल के अन्धो! और करम के फूटो !!

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Friday, November 29, 2013

Junbishen 108


ग़ज़ल 

सुममुम बुक्मुम उमयुन कह के, फ़हेम के देते हो ताने,
दिल में मरज़ बढा के मौला, चले हो हम को समझाने।

लम यालिद वलं यूलद, तुम हम जैसे मख्लूक़ नहीं,
धमकाने, फुसलाने की ये चाल कहाँ से हो जाने?

कभी अमन से भरी निदाएँ, कभी जेहादों के गमज़े,
आपस में खुद टकराते हैं, तुम्हरे ये ताने बाने।

कितना मेक अप करते हो तुम, बे सर पैर की बातों को,
मुतरज्जिम, तफ़सीर निगरो! "बड़ बड़ में भर के माने।

आज नमाजें, रोजे, हज, ख़ेरात नहीं, बर हक़ ऐ हक़!
मेहनत, ग़ैरत, इज़्ज़त, का युग आया है रब दीवाने।

बड़े मसाइल हैं रोज़ी के, इल्म बहुत ही सीखने हैं,
कहाँ है फ़ुरसत सुनने की अब, फ़लक़ ओ हशर के अफ़साने।

कैसे इनकी, उनकी समझें, अपनी समझ से बाहर है,
इनके उनके सच में "मुंकिर" अलग अलग से हैं माने।

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नोट-पहले तीन शेरों में शायर सीधा अल्लाह से मुखातिब है , चौथे में उसके एजेंटों से और आखिरी तीन शेरों में आप सब से. अर्थ गूढ़ हैं, काश कि कोई सच्चा इस्लामी विद्वान् आप को समझा सके.

Wednesday, November 27, 2013

Junbishen 107

ग़ज़ल 

मक्का सवाब है, न मदीना सवाब है,
घर बार की ख़ुशी का, सफ़ीना सवाब है।

बे खटके हो हयात, तो जीना सवाब है,
बच्चों का हक़ अदा हो, तो पीना सवाब है।

माथे पे सज गया तो, पसीना सवाब है,
खंता उठा के लाओ, दफ़ीना सवाब है।

भूलो यही है ठीक, कि बद तर है इन्तेक़ाम,
बुग्ज़ ओ, हसद, निफ़ाक़, न क़ीना सवाब है।

जागो ऐ नव जवानो! क़नाअत हराम है,
जूझो, कहीं, ये नाने शबीना सवाब है?

"मुंकिर" को कह रहे हो, दहेरया है दोजखीदोज़खी  ,
आदाब ओ एहतराम, क़रीना सवाब है।

*बुग्जो, हसद, निफाक, कीना =बैर भावः *कनाअत=संतोष *नाने शबीना =बसी रोटी

Friday, November 22, 2013

Junbishen 106


ग़ज़ल 

अनसुनी सभी ने की, दिल पे ये मलाल है,
मैं कटा समाज से, क्या ये कुछ ज़वाल है।

कुछ न हाथ लग सका, फिर भी ये कमाल है,
दिल में इक क़रार है, सर में एतदाल है।

जागने का अच्छा फ़न, नींद से विसाल है,
मुब्तिला ए रोज़ तू  , दिन में पाएमाल है।

ख्वाहिशों के क़र्ज़ में, डूबा बाल बाल है,
ख़ुद में कायनात मन, वरना मालामाल है।

है थकी सी इर्तेक़ा, अंजुमन निढाल है,
उठ भी रह नुमाई कर, वक़्त हस्बे हाल है।

पेंच ताब खा रहे हो, तुम अबस जुनैद पर ,
खौफ़ है कि किब्र? है कैसा ये जलाल है


Wednesday, November 20, 2013

Junbishen 105

muskaan 

मुस्कान 

नसीहतें 

मत आना इन के जाल में ऐ मेरे भतीजे ,
अक्साम ए खुदा सब हैं क़यासों के नतीजे .

जो बात तुझे लगती हो फ़ितरत के मुखालिफ़ ,
उस बात पे हरगिज़ न मेरे लाल पसीजे .

जालों को बिछाए हैं ये रिश्तों के शिकारी ,
बहनें हों कि भाई हों कि साले हों कि जीजे .

मिट्टी को निजी चाक के तू  कर दे हवाले ,
माँ बाप की मुट्ठी तो रहेगी तुझे मींजे .

दिखला दे ज़माने को तेरा रंग ही जुदा है ,
टक्कर में तेरे कोई भी दूजे हैं न तीजे .

Monday, November 18, 2013

Junbishen 104

Qataat

अजीब बन्दा 

सर झुकाए हुए ही चलता है ,
कुछ इबारत ज़मीं की पढता है ,
उस से भिड़ना बड़ा ही मुश्किल है ,
सारे इलज़ाम खुद पे मढ़ता है . 


डिजाइन 

मायूस हुवा मुंकिर तब उनको हँसी आई ,
मह्जूज़ हुवा मुंकिर तब उनको हँसी आई ,
टाइम का डिज़ाइन है पल भर के तवक़्क़ुफ़ में ,
मारूफ हुवा मुंकिर तब उनको हँसी आई .


ठूंठ 

बातिल की बाग़ में हूँ किसी ठूंठ की तरह ,
हर सांस पी रहा हूँ कड़े घूँट की तरह ,
लादे हुए हूँ पीठ पर, सच्चाइयों का बोझ ,
वीरान दश्त में हूँ , किसी ऊँट की तरह .

Saturday, November 16, 2013

Junbishen 103




रुबाइयाँ

कुछ जीने उरूजों के हैं, लोगो चढ़ लो,
रह जाओगे पीछे, जरा आगे बढ़ लो, 
चश्मा है अकीदत का उतारो इसको , 
मत उलटी किताबें पढो, सीधी पढ़ लो.


है मुक्ति का अनुमान, जनम अच्छा है,
जन्नत के है इमकान, भरम अच्छा है, 
कहते हैं सभी मेरा धरम अच्छा है,
आमाल हैं अच्छे, न करम अच्छा है. 


बतलाई हुई राह, बसलना है तुम्हें,
सांचा है कदामत का, न ढलना है तुम्हें,
ये दुन्या बहुत आगे निकल जाएगी,
अब्हाम के आलम से निकलना है तुम्हें.

Thursday, November 14, 2013

Junbishen 102


नज़्म 

मुस्लिम राजपूतों के नाम

ख़ुद को कहते हो, गुलामान ए रसूले-अरबी1,
हैसियत दूसरे दर्जे के लिए हैं अजमी2,
तीसरा दर्जा हरब, रखता है 'मुंकिर', हरबी.
और फ़िर दर्जा-ऐ-जिल्लत4 पे हैं हिन्दी मिस्कीं5,
बरतरीको लिए, मग़रूर हैं काबा के अमीं,
सोच है कैसी तुम्हारी ? भला कैसा है यकीं ?

हज से लौटे हुए हाजी से हक़ीक़त पूछो,
एक हस्सास से कुछ, क़र्ब ए हिक़ारत पूछो।

है वतन जो भी तुम्हारा, है तुम्हें उसकी क़सम,
खून में पुरखो की धारा है ?तुम्हें उसकी क़सम,
नुत्फ़े१० की आन गवारा है? तुम्हें उसकी  क़सम,
ज़ेहन का कोई इशारा है ? तुम्हें उसकी क़सम,

अपने पुरखों की ख़ता क्या थी भला, हिदू थे ?
क़बले इस्लाम सभी, हस्बे ख़ुदा हिन्दू थे।
ज़ेब११ देता ही नहीं, पुरखो की अज़मत१२ भूलो,
उनको कुफ़्फ़र१३ कहो, और ये बुरी गाली दो।

क़ौमे होती हैं नसब14 की, कोई बुनियाद लिए,
अपने मीरास१५ से पाई हुई, कुछ याद लिए,
तुम बहुत ख़ुश हो, बुरे माज़ी१६ की बेदाद१७ लिए,
अरबों की ज़ेहनी गुलामी18 की, ये तादाद लिए।

अपने खूनाब19 की, नुत्फ़े की तहारत20 समझो,
जाग जाओ, नई उम्मत21 की ज़रूरत समझो।

अज़ सरे नव22, नया एहसास जगाना होगा,
इक नए बज़्म२३ का, मैदान सजाना होगा।
इक नई फ़िक्र24 का, तूफ़ान उठाना होगा,
मादरे हिंद में ही, काबा बनाना होगा।

राम और श्याम से भी, हाथ मिलाना होगा,
नानको-बुद्ध को, सम्मान में लाना होगा,
दूर तक माज़िए नाकाम25 में जाना होगा,
इस ज़मी का बड़ा इन्सान बनाना होगा।

१-मुहम्मद-दास 2-अरब गैर अरब मुस्लिम देशों को अजम कहते हैं ,वहां के रहने वालों को अजमी अर्थात गूंगा कहते हैं जोकि हीन माने जाते हैं .ठीक ऐसा ही हिंदू शब्द अरबों का दिया हुआ है जिसके माने अप शब्द हैं जिस पर कुछ लोग गर्व करते हैं .३-सभी गैर मुस्लिम देश को मुस्लिम हरब कहते हैं ।वहां के बाशिंदों को हरबी यानी हरबा (चल बाज़ी )करने वाला. ४- अपमानित श्रेणी ५-भारतीय भिखारी (ये हमारे लिए अरबियों का संबोधन है ) ६-श्रेष्टता ७-न्यास धारी ८-सच्चाई १०-शुक्र ,वीर्य ११-शोभा १२-मर्यादा १३-मूर्ति-पूजक १४-पीढी १५-दाय १६-अतीत १७-ज़ुल्म १८-मानसिक दासता 19-मर्यादित रक्त २०-पवित्रता २१-वर्ग २२-नए सिरे से २३-सभा २४-चिंतन २५-असफल २६-अत

Tuesday, November 12, 2013

junbishen 101

nazm 

सर-गर्मी

आ तुझे चोटियों पे दिखलाएं,
घाटियों में अजीब मंज़र है,
साफ़ दिखते हैं बर्फ़ के तोदे,
हैं पुराने हज़ारों सालों के,

बर्फ़ में मुन्जमिद सी हैं लाशें,
मगर पिंडों में कुलबुलाहट है,
बस कि सर हैं, जुमूदी आलम में,
अजब जुग़राफ़ियाई है घाटी,

आओ चल कर ये बर्फ़ पिघलाएं,
उनके माथे को थोड़ा गरमाये
उनके सर में भरा अक़ीदा है,
आस्थाओं का सड़ा मलीदा है।

१-जमी हुई २-भौगोलिक

Sunday, November 10, 2013

junbishen100


ग़ज़ल 

इस्तेंजाए ख़ुश्क की, इल्लत में लगे हैं,
वह बे नहाए धोए, तहारत में लगे हैं.

मीरास की बला, ये बुजुर्गों से है मिली,
तामीर छोड़ कर वह, अदावत में लगे हैं.

वह गिर्द मेरे, अपनी ग़रज़  ढूँढ रहा है,
हम बंद किए आँख, मुरव्वत में लगे हैं.

दोनों को सर उठाने की, फुर्सत ही नहीं है,
ख़ालिक़ से आप, हम है कि खिल्क़त से लगे हैं.

तन्हाई चाहता हूँ , तड़पने के लिए मैं,
ये सर पे खड़े, मेरी अयादत में लगे हैं.

'मुंकिर' ने नियत बांधी है, अल्लाह हुअक्बर,
फिर उसके बाद, आयते ग़ीबत में लगे हैं.
*****
# इस शेर का मतलब किसी मुल्ला से दरयाफ्त करें.*मीरास=पैत्रिक सम्पत्ति *तामीर=रचनात्मक कार्य *खालिक=खुदा 
*अयादत =पुरसा हाली $=कहते हैं की नमाज़ पढ़ते समय शैतान विचारो में सम्लित हो जाता है.

Friday, November 8, 2013

Junbishen 99

ग़ज़ल 

चेहरे यहाँ मुखौटे हैं, और गुफ्तुगू  हुनर,
खाते रहे फ़रेब हम, कमज़ोर थी नज़र।

हैं फ़ायदे भी नहर के, पानी है रह पर,
लेकिन सवाल ये है, यहाँ डूबे कितने घर।

पाले हुए है तू इसे, अपने ख़िलाफ़ क्यूँ ,
ये खौफ़ दिल में तेरे, है अंदर का जानवर।

होकर जुदा मैं खुद से, तुहारा न बन सका,
तुम को पसंद जुमूद था, मुझ को मेरा सफ़र।

पुख्ता भी हो, शरीफ भी हो , और जदीद भी,
फिर क्यूँ अज़ीज़ तर हैं, तुम्हें कुहना रहगुज़र।

हस्ती का मेरे जाम, छलकने के बाद अब,
इक सिलसिला शुरू हो, नई रह हो पुर असर।

जुमूद=ठहराव *जदीद=नवीन *कुहना रहगुज़र=पुरातन मार्ग

Thursday, November 7, 2013

Junbishen 98


ग़ज़ल 

उनकी हयात, उसकी नमाज़ों के वास्ते,
मेरी हयात, उसके के ही राज़ों के वास्ते।

मुर्शिद के बांकपन के, तक़ाज़ों को देखिए,
नूरानियत है, जिस्म गुदाज़ों के वास्ते।

मंज़िल को अपनी, अपने ही पैरों से तय करो,
है हर किसी का कांधा, जनाज़ों के वास्ते।

सासें तेरे वजूद की, नग़मो की नज़र हों,
जुंबिश बदन की हों, तो हों साज़ों के वास्ते।

गाने लगी है गीत वोह, नाज़िल नुज़ूल की,
बुलबुल है आसमान के, बाज़ों के वास्ते।

"मुंकिर" वहां पे छूते, छुवाते हैं पैर को,
बज़्मे अजीब, दो ही तक़ाज़ों के वास्ते।

Saturday, November 2, 2013

junbishen 97


मुस्कान 
पंडितो-मुल्ला -----

पंडितो-मुल्ला दो गहरे दोस्त थे इक चाल में,
खूब बनती, खूब छनती दोनों की हर हाल में,

एक दिन मुल्ला ये बोला , सुन कि ऐ पंडित महान!
बाँधता तू है ग़लत , पेशाब में बेचारे कान ?

सुन के पंडित ने कहा और वज़ू तेरा मियाँ,
गंध करता है कहाँ से ? साफ़ करता है कहाँ ?

तेरे मेरे आस्थाओं में ज़रा सा फ़र्क़ है,
मेरी कश्ती नर्क में है, तेरा बेडा ग़र्क़ है।
*