Friday, October 30, 2015

Junbishen 706



 ग़ज़ल

काँटों की सेज पर, मेरी दुन्या संवर गई,
फूलों का ताज था वहां, इक गए चार गई।

रूहानी भूक प्यास में, मैं उसके घर गया,
दूभर था सांस लेना, वहां नाक भर गई।

वोह साठ साठ साल के, बच्चों का था गुरू,
सठियाए बालिगान पे, उस की नज़र गई।

लड़ के किसी दरिन्दे से, जंगल से आए हो?
मीठी जुबान, भोली सी सूरत, किधर गई?

नाज़ुक सी छूई मूई पे, क़ाज़ी के ये सितम,
पहले ही संग सार के, ग़ैरत से मर गई।

सोई हुई थी बस्ती, सनम और खुदा लिए,
"मुंकिर" ने दी अज़ान तो, इक दम बिफर गई,


Monday, October 26, 2015

Junbishen 705



 ग़ज़ल

तोहमत शिकस्ता पाई की, मुझ पर मढ़े हो तुम,
राहों के पत्थरों को, हटा कर बढ़े हो तुम?

कोशिश नहीं है, नींद के आलम में दौड़ना,
बेदारियों की शर्त को, कितना पढ़े हो तुम?

बस्ती है डाकुओं की, यहाँ लूट के ख़िलाफ़ ,
तक़रीर ही गढे, कि जिसारत गढ़े हो तुम?

अलफ़ाज़ से बदलते हो, मेहनत कशों के फल,
बाज़ारे हादसात में, कितने कढ़े हो तुम।

इंसानियत के फल हों? धर्मों के पेड़ में,
ये पेड़ है बबूल का, जिस पे चढ़े हो तुम।

"मुंकिर" जो मिल गया, तो उसी के सुपुर्द हो,
खुद को भी कुछ तलाशो,लिखे और पढ़े हो तुम.

शिकस्ता पाई=सुस्त चाल

Sunday, October 25, 2015

Junbishen 704



 ग़ज़ल

पश्चिम हंसा है पूर्वी, कल्चर को देख कर,
हम जिस तरह से हंसते हैं, बंदर को देख कर.

चेहरे पे नातवां के, पटख देते हैं क़ुरआन ,
रख देते हैं क़ुरआन, तवंगर को देख कर।

इतिहास मुन्तज़िर है, भारत की भूमि का,
दिल खोल के नाचे ये किसी नर को देख कर।

धरती का जिल्दी रोग है, इन्सान का ये सर,
फ़ितरत पनाह मांगे है, इस सर को देख कर।

यकता है वह, जो सूरत बातिन में है शुजअ,
डरता नहीं है ज़ाहिरी, लश्कर को देख कर।

झुकना न पड़ा, क़द के मुताबिक हैं तेरे दर,
"मुंकिर" का दिल है शाद तेरे घर को देख कर।

नातवां=कमज़ोर *तवंगर= ताक़तवर *फ़ितरत=पराकृति * बातिन=आंतरिक रूप में *शुजअ=बहादुर

Friday, October 23, 2015

Junbishen 703




 ग़ज़ल

काँटों की सेज पर, मेरी दुन्या संवर गई,
फूलों का ताज था वहां, इक गए चार गई।

रूहानी भूक प्यास में, मैं उसके घर गया,
दूभर था सांस लेना, वहां नाक भर गई।

वोह साठ साठ साल के, बच्चों का था गुरू,
सठियाए बालिगान पे, उस की नज़र गई।

लड़ के किसी दरिन्दे से, जंगल से आए हो?
मीठी जुबान, भोली सी सूरत, किधर गई?

नाज़ुक सी छूई मूई पे, क़ाज़ी के ये सितम,
पहले ही संग सार के, ग़ैरत से मर गई।

सोई हुई थी बस्ती, सनम और खुदा लिए,
"मुंकिर" ने दी अज़ान तो, इक दम बिफर गई,

Tuesday, October 20, 2015

Junbishen 702



 ग़ज़ल

तोहमत शिकस्ता पाई की, मुझ पर मढ़े हो तुम,
राहों के पत्थरों को, हटा कर बढ़े हो तुम?

कोशिश नहीं है, नींद के आलम में दौड़ना,
बेदारियों की शर्त को, कितना पढ़े हो तुम?

बस्ती है डाकुओं की, यहाँ लूट के ख़िलाफ़ ,
तक़रीर ही गढे, कि जिसारत गढ़े हो तुम?

अलफ़ाज़ से बदलते हो, मेहनत कशों के फल,
बाज़ारे हादसात में, कितने कढ़े हो तुम।

इंसानियत के फल हों? धर्मों के पेड़ में,
ये पेड़ है बबूल का, जिस पे चढ़े हो तुम।

"मुंकिर" जो मिल गया, तो उसी के सुपुर्द हो,
खुद को भी कुछ तलाशो,लिखे और पढ़े हो तुम.

शिकस्ता पाई=सुस्त चाल


Sunday, October 18, 2015

Junbishe n 701




 ग़ज़ल

अपने ही उजाले में, जिए जा रहा हूँ मैं,
घनघोर घटाओं को, पिए जा रहा हूँ मैं.

होटों को सिए, हाथ उठाए है कारवां,
दम नाक में रहबर के, किए जा रहा हूँ मैं।

मज़हब के हादसात, पिए जा रहे हो तुम,
बेदार हक़ायक़ को, जिए जा रहा हूँ मैं।

इक दिन ये जनता फूंकेगी, धर्मों कि दुकानें,
इसको दिया जला के, दिए जा रहा हूँ मैं।

फिर लौट के आऊंगा, कभी नई सुब्ह में,
तुम लोगों कि नफ़रत को, लिए जा रहा हूँ मैं।

फिर चाक न कर देना, सदाक़त के पैरहन,
"मुंकिर" का ग़रेबान सिए जा रहा हूँ मैं.

Friday, October 16, 2015

Junbishen 700



 ग़ज़ल

रहबर ने पैरवी का जुनूं ,यूँ बढा लिया,
आखें जो खुली देखीं तो, तेवर चढा लिया।

तहकीक़ ग़ोर  ओ फ़िक्र, तबीअत पे बोझ थे,
अंदाज़ से जो हाथ लगा, वह उठा लिया।

शोध और आस्था में, उन्हें चुनना एक था,
आसान आस्था लगी, सर में जमा लिया।

साधू को जहाँ धरती के, जोबन ज़रा दिखे,
मन्दिर बनाया और, वहीँ धूनी रमा लिया।

पाना है गर ख़ुदा को, तो बन्दों से प्यार कर,
वहमों कि बात थी ये, ग़नीमत कि पा लिया।

"मुकिर" की सुलह भाइयों से, इस तरह हुई,
खूं पी लिया उन्हों ने, ग़म इस ने खा लिया

Wednesday, October 14, 2015

Junbishen 699



 ग़ज़ल
दो चार ही बहुत हैं, गर सच्चे रफ़ीक़ हैं,
बज़्मे अज़ीम से, तेरे दो चार ठीक हैं।

तारीख़ से हैं पैदा, तो मशकूक है नसब,
जुग़राफ़िया ने जन्म दिया, तो अक़ीक़ हैं।

कांधे पे है जनाज़ा, शरीके हयात का,
आखें शुमार में हैं कि,  कितने शरीक हैं?

ईमान ताज़ा तर, तो हवाओं पे है लिखा,
ये तेरे बुत ख़ुदा तो, क़दीम ओ दक़ीक़ हैं।

इनको मैं हादसात पे, ज़ाया न कर सका,
आँखों की कुल जमा, यही बूँदें रक़ीक़ हैं।

रहबर मुआशरा तेरा, तहतुत्सुरा में है,
"मुंकिर" बक़ैदे सर, लिए क़ल्बे अमीक़ हैं.

रफीक़=दोस्त *मशकूक=शंकित * नसब=नस्ल *जुगराफ़िया=भूगोल *दकीक़=पुरातन *तहतुत्सुरा=पाताल *क़ल्बे अमीक़ गंभीर ह्र्दैय के साथ

Monday, October 12, 2015

Junbishen 698

क़तआत

मिठ्ठू मियाँ 
पढ़ते हो झुकाए हुए सर क़िस्सा कहानी,
अंजान जुबां में है लिखी देव की बानी ,
यूँ लूट के ले जाते हो अंबार ए सवाब ,
दर पे हैं अज़ाबों के ये हालात जहानी .


मुज़ब्ज़ब 
इकबाल बग़ावत लिए लगते हैं ग़ज़ल में,
डरते हैं, सदाक़त को छिपाए हैं, हमल में,
बातिन में हैं कुछ और, निभाए हैं खुद को,
जैसे थे मुसलमाँ नए, बुत दाबे बग़ल में .


मिठ्ठू मियाँ 
पढ़ते हो झुकाए हुए सर क़िस्सा कहानी,
अंजान जुबां में है लिखी देव की बानी ,
यूँ लूट के ले जाते हो अंबार ए सवाब ,
दर पे हैं अज़ाबों के ये हालात जहानी .

Friday, October 9, 2015

Junbishen 697



रुबाइयाँ 

रुबाइयाँ 

है रीश रवाँ, शक्ल पे गेसू है रवां,
हँसते हैं परी ज़ाद सभी, तुम पे मियाँ, 
मसरूफ इबादत हो, मशक्क़त बईद,
करनी नहीं शादी तुम्हें? कैसे हो जवान.


जब तक नहीं जागोगे दलित और पिछडो,
आपस में लड़ोगे यूं ही शोषित बंदो,
ग़ालिब ही रहेंगे तुम पे ये मनुवादी,
ऐ अक्ल के अन्धो! और करम के फूटो !!


क्या शय है मनुवाद तेरा खोटा निजाम,
महफूज़ बरहमन के लिए हर इक जाम,
मैं ने है पढ़ा तेरी मनु स्मृति में,
सर शर्म से झुकता है तेरा पढ़ के पयाम.


मूसा सा अड़ा मैं तो क़बा खोल दिया, 
सदयों से पड़ी ज़िद की गिरह खोल दिया,
रेहल रख दिया, उसपे किताबे महशर,
पढने के लिए उसने नदा खोल दिया.


मिम्बर पे मदारी को अदा मिलती है,
मौज़ूअ पे मुक़र्रिर को सदा मिलती है,
रुतबा मेरा औरों से ज़रा हट के है,
हम पहुंचे हुवों को ही नदा मिलती है. 


Wednesday, October 7, 2015

Junbishen 696



रुबाइयाँ 

औलादें बड़ी हो गईं, अब उंगली छुडाएं , 
हमने जो पढाया है इन्हें, वो हमको पढ़ें, 
हो जाएँ अलग इनकी नई दुनया से, 
माँ बाप बचा कर रख्खें, अपना खाएँ. 


कुछ जीने उरूजों के हैं, लोगो चढ़ लो,
रह जाओगे पीछे, जरा आगे बढ़ लो, 
चश्मा है अकीदत का उतारो इसको , 
मत उलटी किताबें पढो, सीधी पढ़ लो.


कुछ जीने उरूजों के हैं, लोगो चढ़ लो,
रह जाओगे पीछे, जरा आगे बढ़ लो, 
चश्मा है अकीदत का उतारो इसको , 
मत उलटी किताबें पढो, सीधी पढ़ लो.


बतलाई हुई राह, बसलना है तुम्हें,
सांचा है कदामत का, न ढलना है तुम्हें,
ये दुन्या बहुत आगे निकल जाएगी,
अब्हाम के आलम से निकलना है तुम्हें.


ज़ालिम के लिए है तेरी रस्सी ढीली,
मजलूम की चड्ढी रहे पीली  गीली,
औतार ओ पयम्बर को, दिखाए जलवा,
और हमको दिखाए, फ़क़त छत्री नीली.

Monday, October 5, 2015

Junbishen 695



नज़्म 

ईमान की कमज़ोरी

मेरा ईमान1 यक़ीनन, है अधूरा ही अभी,
बर्क़ रफ़्तार2 है, मशगूल ए सफ़र३ ,
हुक्म ए रब्बानी४ को, 
ख़ुद सुन के ये क़ायल५ होगा,
क़ुर्रा ए अर्ज़ ओ फ़िज़ा६ नाप चुका,
क़ुर्रा ए बाद७ के, काँधों पे चढा,
शम्सी हलक़ो ८ से बढ़ गया आगे,
डेरा डाले है ख़लाओं९ में अभी,

रौशनी साल१० से भी तेज़ क़दम,
सर पे तकमील११ की शिद्दत१२ को लिए,
है बड़े अज़्म१३ से सर-गर्म ए सफ़र,
पाने वाला है, ख़ुदाओं का पता,
मैं भी कह पाऊँगा, ईमान के साथ,
मेरा ईमान भी मुकम्मल है।

मेरा ईमान यक़ीनन, है अधूरा ही अभी,
बर्क रफ़्तार है, मशगूले-सफर,

मैं क़यासों१४ के मनाज़िल१५ पे, नहीं ठहरूंगा,
हार मानूंगा नहीं, हद्दे-ख़ेरद१६ के आगे,
आतिशे-जुस्तुजू१७ में जलता हुवा,
पैकरे-शाहिदी१८ में ढलता हुवा,
हर्फ़ ए आखीर१९ को लिखूंगा मैं,
हक़ को पाने की क़सम खाई है,

चाँद तारों पे वजू२० करते हुए,
अर्शे-आला२१ पे पहुँच जाऊंगा,
देखना है कहाँ छुपा है 'वह',
उससे थोडी सी गुफ़्तुगू होगी,

मौज़ूअ२२, यह फ़लक़ी२३ 'डाकिए' होंगे,
उनके पैग़ाम पर जिरह होगी,
लेके ईमान ए ज़मीं लौटूंगा,
मेरा ईमान यक़ीनन है अधूरा ही अभी,
इसकी तकमील२४ मेरी मंज़िल है।।

१-धार्मिक-विश्वाश २-विद्युत् गति ३-यात्रा-रत ४-ईशादेश ५-मान्य ६-धरती एवं छितिज मंडल ७-वायु मंडल ८-सौर्य-मंडल ९-ब्राम्हाण्ड १०-प्रकाश वर्ष ११-परिपूर्णता १२-आतुरता १३-उत्साह १४-अनुमान १५ -मंजिलें१६-बुद्धि-सीमा १७-खोज की गरिमा १८-साक्छी-रूप १९-आखरी लेख २०-नमाज़ से पहले मुंह धोना २१-बड़ा आकाश २२-विषय २३-आसमानी पैगम्बर २४-परिपूर्णता

Friday, October 2, 2015

Junbishen 694


नज़्म 
बदबूदार ख़ज़ानें

माज़ी1 का था समंदर, देखा लगा के ग़ोता,
गहराइयों में उसके, ताबूत कुछ पड़े थे,
कहते हैं लोग जिनको, संदूकें अज़मतों2 की,
बेआब जिनके अंदर, रूहानी मोतियाँ थीं.
आओ दिखाएँ तुमको रूहानी अज़मतें कुछ ----

अंधी अक़ीदतें३ थीं, बोसीदा४ आस्थाएँ,
भगवान राजा रूपी, शाहान कुछ ख़ुदा वंद,
मुंह बोले कुछ पयम्बर, अवतार कुछ स्वयम्भू ,
ऋषियो मुनि की खेती, सूखी पडी थी बंजर।

शरणम कटोरा गच्छम, खैरात खा रहे थे।
रूहानियत के ताजिर, नोटें भुना रहे थे।

उर्यानियत5 यहाँ पर देवों की सभ्यता थी ,
डाकू भी करके तौबा, पुजवा रहे हैं ख़ुद को,
कितने ही ढलुवा चकनट, मीनारे-फ़लसफ़ा६ थे।
संदूक्चों में देखा, आडम्बरों के नाटक,

करतब थे शोबदों७ के, थे क़िज़्ब८ के करश्में,
कुछ बेसुरी सी तानें, कुछ बेतुके निशाने,
फ़रमान ए आसमानी9, दर् असल हाद्सती10 ,
आकाश वानिया कुछ, छलती, कपटती घाती।

थीं कुछ कथाएँ कल्पित, दिल चस्प कुछ कहानी,
कुछ किस्से ईं जहानी11 , कुछ किस्से आंजहानी12।
जंगों की दस्तावेज़ें, जुल्मों की दास्तानें,
गुणगान क़ातिलों के, इंसाफ़ के फ़सानें।

पाषाण युग की बातें, सतयुग पे चार लातें,
आबाद हैं अभी भी, माज़ी की क़ब्र गाहें,
हैरत है इस सदी में, ये बदबू दार लाशें,
कुछ लोग सर पे लेके अब भी टहल रहे हैं।

1 -अतीत 2 -मर्यादाएं 3 -आस्था 4-जीर्ण 5-नागापन 6-दार्शनिकता के स्तम्भ 7-तमाशा 8- मिथ्या 9-आकाश वाणी 10-दुखद 11-इस जहान के 12 उस जहान के।