Friday, January 16, 2009

मुस्कुराहटें




फ़क़ीर का ज़मीर

कम बख्त इक फ़कीर जो दफ्तर में आ घुसा,
बोला कि बेटा जीता रहे, लिख दे ख़त मेरा।

कागज़, कलम था हाथ में, बढ़ कर थमा दिया,
मैं ने भी कारे-खैर यह फ़ैसला किया।

कहने लगा कि जोरू को लिख दे मेरा सलाम,
लिख दे कि आज कल ज़रा ढीला है अपना काम।

माहे-रवाँ में लिख दे कि गर्दिश मेहरबां,
इस वजह सिर्फ़ साठ सौ रपया है कुल रवां।

अगले महीने काकाफ़ी बचत की उम्मीद है, 

हिन्दू की दीवाली है , मुसलमाँ की ईद है। 

मैंने कहा कि लो ये, बुरे हाल लिख दिया ,
कहने लगा कि बेटा ! अब हो जाए कुछ भला .

यह सुनके मेरा ज़ेहनी तवाज़ुन* बिगड़ गया,
मुंह से निकल गया कि, तेरी - - - - - - -- -- .


*-संतुलन

1 comment: