Sunday, June 29, 2014

Junbishen 307



मुस्कुराहटें 

दोहा-तीहा-चौहा
दोहा

 तुलसी बाबा की कथा, है धारा प्रवाह, 
राम लखन के काल के, जैसे होएँ गवाह. 

तीहा
हे दो मन की बालिके ! देहे पर दे ध्यान।
चलत ,फिरत,डोलत तुझे,पल पल होत थकान,
पर मुँह ढोवे न थके, तन यह ढोल समान॥

चौहा
सात नवाँ तिरसठ भया, तीन औ छ चुचलाएँ,
तीन नवाँ छत्तीस हुआ , तीन औ छ टकराएँ,
छत्तीस का यह आकड़ा , अकड़े बीच बजार,
तिरसठ की है आकडी , गलचुम्मी कर जाएँ॥
*

Friday, June 27, 2014

Junbishen 306



गज़ल

ये जम्हूरियत बे असर है,
संवारे इसे, कोई नर है?

बहुत सोच कर खुद कशी कर,
किसी का तू ,नूरे नज़र है.

दिखा दे उसे क़ौमी दंगे,
सना ख्वान मशरिक, किधर हैं.

बहुत कम है पहचान इसकी,
रिवाजों में डूबा बशर है.

नहीं बन सका फर्द इन्सां,
कहाँ कोई कोर ओ कसर है.

है ऊपर न जन्नत, न दोज़ख,
खला है, नफ़ी है, सिफ़र है.

इबादत है, रोज़ी मशक्क़त,
अज़ान ए कुहन, पुर ख़तर है.

ये सोना है, जागने की मोहलत,
जागो! ज़िन्दगी दांव पर है.

है तक़लीद बेजा ये 'मुंकिर',
तेरे जिस्म पर एक सर है.
*****
*जम्हूरियत=गण-तन्त्र *नूरे नज़र=आँख का तारा *सना ख्वान मशरिक=पूरब का गुण-गण करने वाले*खला, नफ़ी=क्षितिज एवं शून्य * तकलीद=अनुसरण.

Wednesday, June 25, 2014

Junbishen 305


गज़ल

मुतालेआ करे चेहरों का, चश्मे नव ख़ेज़ी ,
छलक न जाए कहीं यह, शराब ए लब्रेजी.

हलाकतों पे है माइल, निज़ामे चंगेजी,
तरस न जाए कहीं, आरजू ए खूँ रेज़ी .

अगर है नर तो, बसद फ़िक्र शेर पैदा कर,
मिसाले गाव, बुज़, ओ ख़र है तेरी ज़र ख़ेज़ी.

तू अपनी मस्त ख़ेरामी पे, नाज़ करती फिर,
लुहा, लुहा से न डर, ए जबाने अंग्रेजी.

नए निज़ाम के जानिब क़दम उठा अपने,
ये खात्मुन की सदा छोड़, कर ज़रा तेज़ी .

बचेगी मिल्लत ख़ुद बीं, की आबरू 'मुंकिर',
अगर मंज़ूर हों  मंसूर, शम्स ओ तबरेज़ी.
*****
*मुतलेआ= अद्ध्य्यन *निजामे=व्योवस्था *गाव, बुज़, खर=भेडें,बकरियां,गधे *उपजता *मिल्लत खुद बीन =इशारा वर्ग विशेष की ओर

Monday, June 23, 2014

Junbishen 304


गज़ल

इस शहरी आबादी को, जंगल में बोया जाए,
परबत के दामन हैं खाली, चलो वहीँ सोया जाए.

जीवन भर के सृजित हीरे, आँख खुली तो पत्थर थे,
चुन कर लाए जहाँ से इनको, वहीँ कहीं खोया जाए.

आहें निकलें, आंसू बरसें, हस्ती का कुछ बोझ कटे,
मन भारी है, तन है बोझिल, फूट फूट रोया जाए.

ऐ फ़ातेह! यह तेरा जिगरा, बस्ती है वीरान पड़ी,
तौबा का साबुन ले कर आ, दागे जिगर धोया जाए.

दुःख को ढूंढो बाती लेकर, मिले कहीं तो बतलाना,
सुख की गठरी नहीं है सर पे, इस पर क्यों रोया जाए.

जुल दे कर भागी है "मुंकिर" उम्र जवानी हाय रे अब,
बूढी पीठ पे इस की करनी, किस बल से ढोया जाए.
*****

Saturday, June 21, 2014

Junbishen 303

नज़्म 


बड़ा सलाम
जिंदगी इतनी कीमती भी नहीं,
यार कि, जितना तुम समझते हो।
यह रवायत1 के नज़्र होती है,
आधी जगती है, आधी सोती है।
तन का ढकना, है पेट का भरना,
धर्म ओ मज़हब की घास को चरना।
यह कभी क़र्ब से गुज़रती है,
कभी काटे नहीं, ये कटती है।
इसका अपना कोई निशाना हो,
ज़िन्दगी जश्न हो, तराना हो।
इसको मौके पे, काम आने दो,
जंगे-हक़ पर, महाज़ पाने दो।
इसका अंजाम, बालातर५ आए,
आख़िरी वक़्त में निखर जाए।
सच एलान कर के मर जाओ,
आख़िरी वक़्त में संवर जाओ।
मियां 'मुंकिर'! ज़रा सा काम करो,
ज़िंदगी को बड़ा सलाम करो।

१-कही सुनी बातें २-पीडा ३-सच्ची लडाई ४-मोर्चा ५-श्रेष्ट

Thursday, June 19, 2014

Junbishen 802



नज़्म 

 ताखीर के अंदेशे 

खोल दो दिल के दरीचे को, तुम पूरा पूरा, 
मैं भी पर पूरे समेटूँ तो कोई बात बने, 
मुन्तज़िर तुम भी हो इक ख़ाली मकाँ के दर पे,
मैं भी उतरा हूँ ख़लालों से फ़ज़ा की छत पर. 

ज़ेहनी परवाज़ का पंछी था हुमा से आगे ,
हुस्न परियों का, फरिश्तों की तबअ थी चाहत ,
ढूँढता फिरता था, ये नादिर ए मुतलक़ कोई ,
तुम शायद हो पश ओ पेश में, मेरी ही तरह।

इनको गर ढूँढा किए, फिर तो जवानी दोनों ,
सूखे गुल बन के,किताबों में सिमट जाएंगे ,
दिल के दहके हुए आतिश कदे बुझ जाएँगे ,
आख़िरत की ये बहुत ही बुरी पामाली है .

पहली दस्तक के तकल्लुफ़ में हैं दोनों शायद ,
आओ इस धुंध की वादी में, क़दम बढ़ जाएं ,
और फिर आलम ए राहत में हो कुर्बत इतनी ,
मसलहत साज़ बनी बंदिशों की गाँठ खुलें ,

मेरे पेशानी पे तुम होटों से पैगाम लिखो ,
मैं सियह ज़ुल्फ़ पे तकमील के पैगाम पढूं .

Tuesday, June 17, 2014

Bedariyan 301

रूबाइयाँ 


सब कुछ यहीं ज़ाहिर है, खुला देख रहे हो,
क़ुदरत लिए हाज़िर है, खुला देख रहे हो,
बातिन में छिपाए है, वह इल्मे- नाक़िस,
वह झूट में माहिर है खुला देख रहे हो,


छाई है घटाओं की बला, आ जाओ,
हल्का सा तबस्सुम ही सही, गा जाओ,
गर चाहो तो, हो जाओ ज़रा दरया दिल,
प्यासों पे घटाओं की तरह छा  जाओ.

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77
लोगों के मुक़दमों में पड़े रहते हो,
नज़रों को नज़ारों को तड़े रहते हो,
खुद अपने ही हस्ती से नहीं मिलते कभी,
और ताज में ग़ैरों के जड़े रहते हो.

Saturday, June 14, 2014

Junbishen 300



गज़ल

अपने घरों में, मंदिर ओ मस्जिद बनाइए,
अपने सरों पे, धर्म और मज़हब सजाइए.

उस सब्ज़ आसमान के, नीचे न जाइए,
इस भगुवा कायनात से, खुद को बचाइए.

सड़कों पे हो नमाज़, न फुटपाथ पर भजन,
जो रह गुज़र अवाम है, उस पर न छाइए.

बचिए ज़ियारतों से, दर्शन की दौड़ से,
थोडा वक़्त बैठ के खुद में बिताइए.

परिक्रमा और तवाफ़ के हासिल पे गौर हो,
मत ज़िन्दगी को नक़ली सफ़र में गंवाइए.

बच्चों का इम्तेहान है, बीमार घर पे हैं,
मीलाद ओ जागरण के ये भोपू हटाइए.

अरबों की सर ज़मीन है, जंगों से बद नुमा,
'मुंकिर' वतन की वादियों में घूम आइए.

Monday, June 9, 2014

Junbishen 299


गज़ल

जितना बड़ा है क़द तेरा, उतना अज़ीम है,
ऐ पेड़! तू भी राम है, तू भी रहीम है.

ईमान दार लोगों के, ज़ानों पे रख के सर,
बे खटके सो रहे हो, ये अक़्ले सलीम है.

तेरह दिलों की धड़कनें, तेरह दलों का बल,
जम्हूर का मरज़ ये, वबाल ए हकीम है.

अलक़ाब में आदाब के, अम्बार मत लगा,
बालाए ताक कर इसे, क़द्रे क़दीम है.

खूं का लिखा हुवा, मेरा दिल में उतार लो,
ये आसमानी कुन, न अलिफ़,लाम, मीम है.

'मुंकिर' खिला रहा है, जो कडुई सी गोलियां,
इंकार की दवा है, ये तासीर नीम है.
*****

Saturday, June 7, 2014

Junbishen 198



गज़ल



जहान ए अर्श का बन्दा है, बार ए अन्जुमन होगा,
मसाइल पेश कर देगा, नशा सारा हिरन होगा.

मुझे दो गज़ ज़मीन दे दे अगर शमशान में अपने,
मज़ार ए यार पे अर्थी जले तेरी, मिलन होगा.

मिले हैं पेट पीठों से, तलाशी इनकी भी लेना,
कहीं कुछ अन्न मिल जाए, तो बाक़ी है हवन होगा.

वो जिस दिन से ग़लाज़त साफ़ करना बंद कर देगा,
कोई सय्यद न होगा, और न कोई बरहमन होगा.

अपीलें सेक्स करता हो, तो ऐसा हुस्न है बरतर,
अजब मेयार लेके हुस्न का, यह बांक पन होगा.

फिरी के, गिफ्ट के, और मुफ़्त के, हमराह हैं सौदे,
खरीदो मौत गर 'मुंकिर' तो तोहफ़े में कफ़न होगा.
*****


Thursday, June 5, 2014

Junbishen 297



नज़्म 

मौसम का चितेरा 

बाहर निकल के देखो, मौसम का रंग क्या है ?
तूफ़ान थम चुका है ? आसार ए जिंदगी है ?
छूकर बताओ मुझको , कुछ नाम हुई ज़मीं क्या ?
फ़सलों के चरिन्दे वह, क्या दूर जा चुके हैं ?
बीजों के चोर चूहे, क्या कर गए हैं रुखसत ?
बेदार हो चुके हैं , क्या लोग इस ज़मीं के ? 
इंसानियत की फसलें, क्या रोपी जा सकेंगी ?
पौदों को सर पे रख्खे, रख्खे मैं थक गया हूँ।
मुरझा न जाएं खुशियाँ, मैं इनको रोप डालूँ।

Tuesday, June 3, 2014

Jubishn 296



नज़्म 

जवाब बराय जवाब 

गौरव का सफ़र अब वह, इस उम्र में कर गुज़रा,
अपना तो कबीला ही, मसरूफ़ ए सफ़र गुज़रा।

न देश कोई इसका, न वंश कोई इसका,
अपना ही बना डाला, हर शू को जिधर गुज़रा।

परहेज़ नहीं करता, बेवाओं यतीमों से, 
मज़लूम पनाहों का, मंज़ूर नज़र गुज़रा।

मस्जिद में जगह दे दी,दलितों को अछूतों को,
पैदाइशी पापी के, विश्वास से दर गुज़रा।

ये राह ए सफ़र इसकी, सदियों की पुरानी है,
तक़लीद में उसके, जो लेके नए पर गुज़रा।

इंसान बना , ख़ुद बन, हिन्दू  बना न मुस्लिम,
इक्कीसवीं सदी है, दसवीं में किधर गुज़रा।

Monday, June 2, 2014

Sunday, June 1, 2014

Junbishen 295



नज़्म 
वजूद के औराक़ 

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
लाखों सालों का सफ़र है मेरा,
हादसों और वबाओं से बचाता खुद को ,
अरबों सालों की विरासत हूँ मैं।

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
जानते हो मुझे तुम लाल बुझक्कड़ की तरह,
नाप देते हो मुझे तुम कभी कुछ सालों में ,
तो कभी पाते हो कुछ सदियों की तारीख़ों में,
मेरे आग़ाज़ का पुतला बनाए फिरते हो,
कुंद ज़ेहनों से गढ़ा धरती का पहला इन्सां ,
जा बजा उसकी कहानी सुनाए रहते हो ,
मेरे माज़ी के वकीलान ओ गवाहान ए वजूद ,
तुमको लाहौल के शैतान नज़र आते हैं।

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
मेरे माज़ी में नहीं है, कहीं भी कुफ़्र कोई,
नक़्श फ़ितरत हूँ , सदा मुंकिर ओ इक़रारी हूँ,
लड़ते भिड़ते हों ख़ुदा जब तो खुला मुल्हिद हूँ,
दहरी गोदों का हूँ पर्वर्दा, दहरिया हूँ मैं।

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
मेरी तहजीब तो ज़ीने बज़ीने चढ़ती है , 
अपने बुन्याद के पत्थर का पास रखते हुए ,
वक़्त को रोज़ नए रूप का पैकर देकर,
आलम ओ बूद को कुछ नक़्श ए क़दम देती है।
मेरी तहज़ीब रवाँ रहती है आगे के लिए,
वादी में बस्ती हुई, पर्बतों पे चढ़ती हुई 
देवियाँ रचती हुई, देवता रचाती हुई ,
नित नई खोज नए इल्म ओ फ़न को पाती हुई ,
जनती रहती है अजंता, एलोरा, खजुराहो ,
मिस्र को क़ल्ब ए पिरामेड अता करती है,
रुक भी जाती है पडाओं पे कभी थक कर ये, 
जिसको कुछ लोग ये कहते हैं की मंजिल है यही,

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
रखने आते हैं सफ़र में मेरे अक्सर यूँ ही,
और आती है गुबारों की फ़िज़ा राहों में,
मैं ज़रा देर को रुक जाता हूँ,
उनकी गिरदान हुवा करती है उलटी गिनती,
वह तवाज़ुन को तहो बाला किया करते हैं ,
ज़ाया कर देते हैं बरसों की जमा पूँजी को ,
ज़ेर ए पा ज़ीने हटाते हैं, मेरे हासिल के ,
करते रहते हैं मुअल्लक़ मेरी मीनारों को,
बरसों लगते हैं मुझे फिर से सतह पाने में,

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
मेरी तक्मीली हकीक़त ये है - - -
" वादी मख़लूक़ की है और गुल ए इन्सां मैं हूँ ,
मेरे खुशबू को नज़रिए की ज़रुरत ही नहीं 
बनने वाला हूँ मुकम्मल इन्सां 
मेरी रंगत को नहीं चाहिए कोई मज़हब"