Sunday, January 18, 2009

हिदी ग़ज़ल



ग़ज़ल

स्वार्थ की भाषा ड्योढा बांचे, लालच पढ़े सवय्या,
रिश्तों में जब गांठ पड़े, तो कोई बहेन न भय्या।

घूर घूर के जुरुवा देखे, टुकुर टुकुर ऊ मय्या,
दो फाडों में चीरे हम को, घर की ताता थय्या।

दूध पूत से छुट्टी पाइस, भूखी खड़ी है गय्या,
इस के दुःख को कोई न देखे, देखै खड़ा क़सय्या।

गुरू गोविन्द की पुडिया बेचे, कबर कमाए रुपय्या,
पाखंड और कलाकारी की, ईश चलाए नय्या।

गिरजा और गुरुद्वारे बोलें, ज़ोर लगा के हय्या!
मन्दिर, मस्जिद इक दूजे की, काटे हैं कंकय्या।

किसके लागूं पाँव खड़े हैं गाड, खुदा और दय्या,
'मुंकिर' को ये कोई न भाएँ, सब को रमै रमय्या




2 comments:

  1. बहुत बढिया गज़ल है।बधाई।

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  2. गिरजा और गुरुद्वारे बोलें, ज़ोर लगा के हय्या!
    मन्दिर, मस्जिद इक दूजे की काटे हैं कंकय्या।
    'मुंकिर' भाई सलाम...क्या दोहे या ग़ज़ल लिख डाली है आपने...कमाल जी बस कमाल...एक एक शेर या दोहा...लाजवाब है...बहुत आनंद आया पढ़ कर....वाह.
    नीरज

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