Thursday, June 28, 2012

Rubaiyan



रुबाइयाँ  

नन्हीं सी मेरी जान से जलते क्यों हो,
यारो मेरी पहचान से जलते क्यों हो,
तुम खुद ही किसी भेड़ की गुम शुदगी हो, 
मुंकिर को मिली शान से जलते क्यों हो. 
*
आजमाइशें हुईं, करीना आया,
चैलेंज हुए कुबूल, जीना आया.
शम्स ओ कमर की हुई पैमाइश,
लफ्फाज़ के दांतों पसीना आया. 
*
मुमकिन है कि माज़ी में ख़िरद गोठिल हो, 
समझाने ,समझने में बड़ी मुश्किल हो, 
कैसा है ज़ेहन अब जो समझ लेता है, 
मज़मून में मफ़हूम अगर मुह्मिल हो. 
ये ईश की बानी, ये निदा की बातें, 
आकाश से उतरी हुई ये सलवातें , 
इन्सां में जो नफ़रत की दराडें डालें, 
पाबन्दी लगे ज़प्त हों इनकी घातें. 
कहते हैं कि मुनकिर कोई रिश्ता ढूंढो, 
बेटी के लिए कोई फ़रिश्ता ढूंढो, 
माँ   बाप के मेयर पे आएं पैगाम, 
अब कौन कहे , अपना गुज़िश्ता ढूंढो. 

Friday, June 22, 2012

rubaiyaan


रुबायाँ 


 हदों के टट्टू  
इक उम्र पे रुक जाए, जूँ बढ़ना क़द का,
कुछ लोगों में हश्र है, इसी तरह खिरद का,
मुजमिद खिरद को ढोते हैं सारी उम्र,
रहता है सदा पास मुसल्लत हद का.
*
सोई हुई उम्मत

कुछ रुक तो ज़माने को जगा दूं तो चलूँ,
मैं नींद के मारों को हिला दूं तो चलूँ,
मौत किसी मूज़ी को जप कर आजा,
सोई हुई उम्मत को उठा दूं तो चलूँ.
*
औरतें तुम्हारी खेतियाँ हैं

औरत को गलत समझे कि आराज़ी है,
यह आप के ज़ेहनों में बुरा माज़ी है,
यह माँ भी, बहन बेटी भी, शोला भी है,
पूछो कि भला वह भी कहीं राज़ी है.
*
फुसफुसा फुसफुसा ईमान

क्यों तूने बनाया इन्हें बोदा यारब!
ज़ेहनों को छुए इनका अकीदा यारब,
पूजे जो कोई मूरत, काफ़िर ये कहें,
खुद क़बरी सनम पर करें सजदा यारब.

Thursday, June 14, 2012

Rubaaiyan


तुम भी जो अगर सोचो, विचारो तो सुनो, 
अब्हाम के शैतान को मरो तो सुनो,
कुछ लोग बनाते हैं तुम्हें अपना सा ,
खुद अपना सा बनना है जो यारो तो सुनो.
*
बच्चे को बसद शान ही बनने न दिया,
बस साहिबे इमान ही बनने नदिया,
पैदा होते ही कानों फूंक दिया झूट,
इन्सान को इन्सान ही बनने न दिया. 
*
ये लाडले, प्यारे ये दुलारे मज़हब,
धरती पे बड़ा झूट हैं सारे मज़हब, 
मंसूर हों, तबरेज़ हों या फिर सरमद,
इंसान को हर हाल में मारे मज़हब. 
*
हैवान हुवा क्यों न भला तख्ताए मश्क़,
इंसान का होना है रजाए अहमक़, 
शैतान करता फिरे इंसान से गुनाह,
अल्लाह करता रहे उठ्ठक बैठक.
*

Friday, June 8, 2012

ग़ज़ल - - - जिस तरह से तुम दिलाते हो खुदाओं का यकीन




जिस तरह से तुम दिलाते हो खुदाओं का यकीन,
उस तरह से और बढ़ जाती है शुबहों की ज़मीं.

है ये भारत भूमि फूलो और फलो पाखंडियो,
मिल नहीं सकती शरण संसार में तुम को कहीं.

नंगे, गूंगे संत के मैले कुचैले पाँव पर,
हाय रख दी है तुम ने क्यूँ ये इंसानी जबीं.

गर है माजी के तअल्लुक़ से ये माथे की शिकन,
तब कहाँ बच पाएँगे इमरोज़ ओ फ़र्दा के अमीं.

नन्हीं नन्हीं नेक्यों, कमज़ोर सी बादियों के साथ,
कट गई यह जिंदगी इन पे लगाए दूरबीं.

हो अमल जो भी हमारा दिल भी इस के साथ हो,
है दुआ तस्बीहे "मुंकिर" क्यूं मियाँ लेते नहीं।

*जबीं=सर *इमरोज़ ओ=आज और कल *तस्बीहे=माला

Thursday, June 7, 2012

रुबाइयाँ



रुबाइयाँ  

बेग़ैरत   ज़िन्दगी 

हिस्सा है खिज़िर का इसे झटके क्यों हो, 
आगे भी बढ़ो राह में अटके क्यों हो,
टपको कि बहुत तुमने बहारें देखीं,
पक कर भी अभी शाख में लटके क्यों हो.
*

फ़िकरे-गलीज़  

दिल वह्यी ओ इल्हाम से मुड जाता है, 
हक शानासियों से जुड़ जाता है,
देख कर ये पामालिए सरे-इंसान,
'मुंकिर' का दिमाग़ भक्क से उड़ जाता है. 
*
तौबः तौबः
मुंकिर की ख़ुशी जन्नत ? तौबा तौबा, 
दोज़ख से डरे गैरत तौबा तौबा, 
बुत और खुदाओं से ता अल्लुक़ इसका, 
लाहौल वला कूवत तौबा तौबा.
*

लाइलाज घुट्टी 

हो सकता है ठीक दमा, मिर्गी ओ खाज,
बख्श सकता है जिस्म को रोगों का राज,
तार्बियतों की घुट्टी पिए है माहौल, 
मुश्किल है बहुत मुंकिर ज़ेहनों का इलाज.
*

Sunday, June 3, 2012

रुबाइयाँ


रुबाइयाँ  


मेरा दीन
साइंस की सदाक़त पे यकीं रखता हूँ,
अफकार ओ सरोकार का दीं रखता हूँ, 
सच की देवी का मैं पुजारी ठहरा, 
बस दिल में यही माहे-जबीं रखता हूँ.
*
मुल्ला
ना ख्वान्दा ओ जाहिल में बचेंगे मुल्ला,
नाकारा ओ काहिल में बचेगे मुल्ला,
बेदार के क़ब्जे में समंदर होगा, 
सीपी भरे साहिल पे बचेगे मुल्ला.
*
अल्ला मियाँ  
इन्सान के मानिंद हुवा उसका मिज़ाज , 
टेक्सों के एवज़ में ही चले राजो-काज,
है दाद-ओ-सितद में वह बहुत ही माहिर,
देता है अगर मुक्ति तो लेता है खिराज.
*
पिदरम सुल्ताँ बूद 
अल्फाज़ के मीनारों में क्या रख्खा है, 
सासों भरे गुब्बारों में क्या रख्खा है,
इस हाल को देखो कि कहाँ है मिल्लत,
माज़ी के इन आसारों में क्या रख्खा है. 

Friday, June 1, 2012

ग़ज़ल - - - कम ही जानें कम पहचानें बस्ती के इंसानों को




कम ही जानें कम पहचानें बस्ती के इंसानों को,
वक़्त मिले तो आओ जानें जंगल के हैवानों को.


अश्के गराँ जब आँख में   आएँ मत पोछें मत बहने दें,
घर में फैल के रहने दें, पल भर के मेहमानों को.


भगवन तेरे रूप हैं कितने, कितनी तेरी राहें हैं,
कैसा झूला झुला रहा है, लोगों के अनुमानों को.


मुर्दा बाद किए रहती हैं, धर्म ओ मज़ाहिब की जंगें,
क़ब्रस्तनों की बस्ती को, मरघट के शमशानों को.


सेहरा के शैतान को कंकड़, मारने वाले हाजी जी!
इक लुटिया भर जल भी चढा, दो वादी हे भगवानो को.


बंदिश हम पर ख़त्म हुई है, हम बंदिश पर ख़त्म हुए,
"मुंकिर" कफ़न की गाठें खोलो रह करो बे जानो को.