Monday, February 29, 2016

Junbishen 757



हिंदी ग़ज़ल 

स्वार्थ की भाषा ड्योढा बांचे, लालच पढ़े सवय्या,
रिश्तों में जब गांठ पड़े, तो कोई बहेन न भय्या।

घूर घूर के जुरुवा देखे, टुकुर टुकुर ऊ मय्या,
दो फाडों में चीरे हम को, घर की ताता थय्या।

दूध पूत से छुट्टी पाइस, भूखी खड़ी है गय्या,
इस के दुःख को कोई न देखे, देखै खड़ा क़सय्या।

गुरू गोविन्द की पुडिया बेचे, कबर कमाए रुपय्या,
पाखंड और कलाकारी की, ईश चलाए नय्या।

गिरजा और गुरुद्वारे बोलें, ज़ोर लगा के हय्या!
मन्दिर, मस्जिद इक दूजे की, काटे हैं कंकय्या।

किसके लागूं पाँव खड़े हैं गाड, खुदा और दय्या,
'मुंकिर' को ये कोई न भाएँ, सब को रमै रमय्या

Friday, February 26, 2016

Junbishen 756



 ग़ज़ल

ला इल्मी का पाठ पढाएँ, अन पढ़ मुल्ला योगी,
दुःख दर्दों की दवा बताएँ, ख़ुद में बैठे रोगी.

तन्त्र मन्त्र की दुन्या झूठी, बकता भविश्य अयोगी,
अपने आप में चिंतन मंथन, सब को है उपयोगी.

आँखें खोलें, निंद्रा तोडें, नेता के सहयोगी,
राम राज के सपन दिखाएँ, सत्ता के यह भोगी.

बस ट्रकों में भर भर के, ये भेड़ बकरियां आईं,
ज़िदाबाद का शोर मचाती, नेता के सहयोगी.

पूतों फलती, दूध नहाती, रनिवास में रानी,
अँधा रजा मुकुट संभाले, मारे मौज नियोगी.

"मुकिर' को दो देश निकला, चाहे सूली फांसी,
दामे, दरमे, क़दमे, सुखने, चर्चा उसकी होगी.
*****
दामे,दरमे,क़दमे,सुखने=हर अवसर पर

Wednesday, February 24, 2016

Junbishen 755



 ग़ज़ल

मन को लूटे धर्म की दुन्या , धन को लूटे नेता,
देश को लूटे नौकर शाही, गुंडा इज्ज़त लेता।

आटोमेटिक प्रोडक्शन है, श्रम को कोई न टेता,
तन लूटे सरमायादारी,जतन को घूस का खेता।

चैन की सांस प्रदूषण लूटे, गति लूटे अतिक्रमण,
उन्नत भक्षी जन संख्या ने, अपना गला ही रेता।

प्रतिभा देश से करे पलायन, सिस्टम को गरियाती,
आरक्षन का कोटा सब, को दूध भात है देता।

प्रदेशिकता देश को बाटे, कौम को जाति बिरादर,
भारत माता भाग्य को रोए, कोई नहीं सुचेता।

सब के मन का चोर है शंकित, मुंह देखी बातें हैं,
"मुंकिर" शब्द का लहंगा चौडा, मन का घेर सकेता।

*****

Monday, February 22, 2016

Junbishen 754




 ग़ज़ल

मन को भेदे, भय से गूथे, विश्वासों का जाल,
अंधियारे में मुझे सताए, मेरा ही कंकाल।

तन सूखा, मन डूबा है, तू देख ले मेरा हाल,
रोक ले शब्दों कोड़ों को, खिंचने लगी है खाल।

सास ससुर हैं लोभी मेरे, शौहर है कंगाल,
नन्द की शादी रुकी है माँ, मत भेज मुझे ससुराल।

इच्छाएँ बैरी हैं सुख की, जी की हैं जंजाल,
जितनी कम से कम हों पूरी, बस उतनी ही पाल।

जब जब बाढ़ का रेला आया, जब जब पडा अकाल,
जनता दाना दाना तरसी, बनिया हुवा निहाल।

वाह वाह की भूख बढाए, टेट में रक्खा माल,
'मुंकिर' छोड़ डगर शोहरत की, पूँजी बची संभाल।

Friday, February 19, 2016

Junbishen 753



 ग़ज़ल

रिश्ता नाता कुनबा फ़िर्क़ा, सारा जग ये झूठा है,
जुज्व की नदिया मचल के भागी, कुल का सागर रूठा है।

ज्ञानेश्वर का पत्थर है, और दानेश्वर की लाठी है,
समझ की मटकी बचा के प्यारे, भाग्य नहीं तो फूटा है।

बन की छोरी ने लूटा है, बेच के कंठी साधू को,
बाती जली हुई मन इसका, गले में सूखा ठूठा है।

चिंताओं का चिता है मानव, मंसूबों का बंधन है,
बिरला पंछी फुदके गाए, रस्सी है न खूटा है।

सुनता है वह सारे जग की, करता है अपने मन की,
सीने के भीतर रहता है, मेरा यार अनूठा है।

लिखवाई है हवा के हाथों, माथे पर इक राह नई,
"मुंकिर" सब से बिछड़ गया है, सब से रिश्ता टूटा है।

Wednesday, February 17, 2016

Junbishen 752




 ग़ज़ल

बहुत दुखी है जीता है वह, बस केवल अभिलाषा में,
सांस ऊपर की आशा में ले, नीचे जाए निराशा में.

बड़ी तरक्की की है उसने, लोगों की परिभाषा में,
पाप कमाया मन मन भर, और पुन्य है तोला माशा में.

अय्याशी में कटी जवानी, पाल न पाए बच्चों को,
अंत में गेरुवा बस्तर धारा, पल जाने की आशा में.

महशर के इन हंगामों को, मेरे साथ ही दफ़ना दो,
अमल ने सब कुछ खोया पाया, क्या रक्खा है लाशा में.

ज्ञानी, ध्यानी, आलिम, फ़ाज़िल, श्रोता गण की महफ़िल में,
'मुंकिर' अपनी ग़ज़ल सुनाए, टूटी फूटी भाषा में.

*****

Monday, February 15, 2016

Junbishen 751

क़तआत


मौत के राग 
तबलीग है कि मौत को हर वक़्त याद कर ,
मैं कहता हूँ कि मौत की कोई ख़बर न रख ,
इक लम्हा मौत का है , मुसलसल है जिंदगी ,
हर रोज़ खुद सरी हो, तो हर रोज़ बे सरी .



साँच की ताप 
कुछ अगर ख़ाहिश न हो, तो है अधूरी ज़िन्दगी ,
ख़ाहिशें अंधी हैं, गर हस्ती में हो नाख़ान्दगी ,
इल्म भी बेकार है , इन्सां अगर है बेअमल ,
सच नहीं मुंकिर तो है , इल्मो ओ हुनर शर्मिदगी .



रिआयत 
इम्कानी गिरावट हो कि अखलाक़ी बुलंदी ,
हों आप की या मेरी , इक हद हैं सभी की ,
हैरत से हिक़ारत से, यूँ मुजरिम को न देखो ,
लगती है दिल आज़ारी , कहीं उसमें छिपी सी . 

Friday, February 12, 2016

Junbishen 750

रुबाईयाँ 

फ़िरऔन मिटे, ज़ार ओ सिकंदर टूटे,
अँगरेज़ हटे नाज़ि ओ हिटलर टूटे,
इक आलमी गुंडा है उभर कर आया,
अल्लाह करे उसका भी ख़जर टूटे.

हलकी सी तजल्ली से हुआ परबत राख,
इंसानी बमों से हुई है बस्ती ख़ाक,
इन्सान ओ खुदा दोनों ही यकसाँ ठहरे,
शैतान गनीमत है रखे धरती पाक.

हम लाख संवारें , वह संवारता ही नहीं,
वह रस्म ओ रिवाजों से उबरता ही नहीं,
नादाँ है, समझता है दाना खुद को,
पस्ता क़दरें लिए, वह डरता ही नहीं. 


हों यार ज़िन्दगी के सभी कम सहिह, 
देते हैं ये इंसान को आराम सहिह 
है एक ही पैमाना, आईना सा,
औलादें सहिह हैं तो है अंजाम सहिह.

मज़दूर थका मांदा है देखो तन से, 
वह बूढा मुफक्किर भी थका है मन से, 
थकना ही नजातों की है कुंजी मुंकिर, 
दौलत का पुजारी नहीं थकता धन से. 

Wednesday, February 10, 2016

Junbishen 749



महा  जननी भवः

ठहरो, वर-माला मत डालो, दो इक सदियाँ टालो,
बधू , तुम्हारा वर कैसा हो? खोजो और खंगालो।

संस्कार की जड़ता देखो, भूल चूक स्वीकारो,
नव दर्शन की की महिमा समझो, अंधी सोच निकालो।

मिथ्या,पाखंड,भेद भाव और दीन धरम के मारे,
हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौध, जैन मत पालो।

जिस ने जीत लिया हो जग को, मर्यादा रच ली हो,
ऐसा सरल, सबल, शुभ, साथी मिले तो शीश नवा लो।

स्मारक बना जाएँ तुम्हारी संताने छित्जों पर,
एक महा मानव को जन्मो, उसमे सबको ढालो।

डावांडोल है धरती माता, नीच हीन हाथों में,
धरती जननी तुम भी जननी, धरती तुम ही संभालो।

ठहरो वर-माला मत डालो ----

Monday, February 8, 2016

जुन्बिशें


नज़्म

सुब्ह की पीड़ा

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,
लेटे-लेटे, मैं बैठ जाता हूँ ,
ध्यान,चिंतन के यत्न करता हूं,
ग़र्क़ होना भी फिर से सोना है,
कुछ भी पाना, न कुछ भी खोना है।

सुब्ह फूटी है, नींद टूटी है,
सैर करने मैं चला जाता हूँ,
तन टहलता मन ,पे बोझ लिए,
याद आते हैं ख़ल्क़ के शैतां,
रूहे-बद साथ साथ रहती है,
मेरी तन्हाइयाँ कचरती है।

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,
चीख उठता है भोपू मस्जिद का,
चीख उठती है नवासी मेरी,
बस अभी चार माह की है वह,
यूँ नमाज़ी को वह जगाते है,
सोए मासूम को रुलाते हैं।

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,
पत्नी टेलिविज़न को खोले है,
ढोल ताशे पे बैठा इक पंडा,
झूमता,गाता और रिझाता है।
आने वाले हमारे सतयुग को,
अपने कलि युग में लेके जाता है।

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,
किसी मासूम का करूँ दर्शन,
वरना आ जायगा मिथक बूढा,
और पूछेगा खैरियत मेरी,
घंटे घडयाल शोर कर देंगे,
रस्मी दावत अजान देदेगी.

Friday, February 5, 2016

Junbishen 747




नज़्म 

महा  जननी भवः

ठहरो, वर-माला मत डालो, दो इक सदियाँ टालो,
बधू , तुम्हारा वर कैसा हो? खोजो और खंगालो।

संस्कार की जड़ता देखो, भूल चूक स्वीकारो,
नव दर्शन की की महिमा समझो, अंधी सोच निकालो।

मिथ्या,पाखंड,भेद भाव और दीन धरम के मारे,
हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौध, जैन मत पालो।

जिस ने जीत लिया हो जग को, मर्यादा रच ली हो,
ऐसा सरल, सबल, शुभ, साथी मिले तो शीश नवा लो।

स्मारक बना जाएँ तुम्हारी संताने छित्जों पर,
एक महा मानव को जन्मो, उसमे सबको ढालो।

डावांडोल है धरती माता, नीच हीन हाथों में,
धरती जननी तुम भी जननी, धरती तुम ही संभालो।

हरो वर-माला मत डालो ----

Wednesday, February 3, 2016

Junbishen746

नज़्म

पतझड़ के पात

हूँ मुअल्लक़1 इन्तेहा-ओ-ख़त्म शुद2 के दरमियाँ।
ऐ जवानी! अलविदा!! अब आएगी दिल पर खिज़ाँ3।

ज़ेहन अब बहके गा जैसे पहले बहके थे क़दम,
कूए-जाना4 का मुसाफिर जायगा अब आश्रम।

यह वहां पाजाएगा टूटा हुवा कोई गुरू,
ज़ख्म खुर्दा5 मंडली होगी, यह होगा फिर शुरू।

धर्मो-मज़हब की किताबें फिर से यह दोहराएगा,
नव जवानो को ब्रम्ह्चर और फिकः6 समझाएगा।

फिर यह चाहेगा कोई पहचान बन जाए मेरी,
दाढ़ी,चोटी,और जटा ही शान बन जाए मेरी।

फिर ये अपना बुत तराशेगा गुरू बन जाएगा,
ये समझता है ब़का7 में आबरू बन जाएगा।

१-बीचअटका हुवा २-इतिऔर समाप्ति ३-प्रेमिका की गली ५-घायल ६-धर्म-शास्त्र ७-शेष .

Monday, February 1, 2016

Junbishe 745

नज़्म 


घुट्ती रूहें

हाय ! लावारसी में इक बूढ़ी,
तन से कुछ हट के रूह लगती है।
रूह रिश्तों का बोझ सर पे रखे ,
दर-बदर मारी मारी फिरती है।
सब के दरवाज़े  खटखटाती है,
रिश्ते दरवाज़े  खोल देते हैं,
रूह घुटनों पे आ के टिकती है,
रिश्ते बारे-गरां को तकते हैं,
वह कभी बोझ कुछ हटाते हैं,
या कभी और लाद देते हैं।

रूह उठती है इक कराह के साथ,
अब उसे अगले दर पे जाना है.
एक बोझिल से ऊँट के मानिंद,
पूरी बस्ती में घुटने टेकेगी,
रिश्ते उसका शिकार करते हैं,
रूह को बेकरार करते हैं।
साथ देते हैं बडबडाते हुए,
काट खाते हैं मुस्कुराते हुए।