Tuesday, September 29, 2015

Junbishen 693

  

नज़्म

तारीख़ी  सानेहे

खंडहरों में नक्श हैं माज़ी1की शरारतें,
लूटने में लुट गई हैं ज़ुल्म की इमारतें।

देख लो सफ़ीर तुम, उस सफ़र में क्या मिला,
थोड़ा सा सवाब2 था, ढेर सी हिक़ारतें3.

बात क़ायदे की है, अपनी ही ज़ुबाँ में हो,
मज़हबी किताबों की, तूल४ तर इबारतें।

है अज़ाबे-जरिया५ ज़ालिमों की क़ौम पर,
मिट गईं तमद्दुनी६ दौर की इमारतें।

क़ाफ़िला गुज़र गया नक्शे-पा पे धूल है,
पा सकीं न रहगुज़र सिद्क़७ की हरारतें।

शर्मसार है खुदा, उम्मातें८ ज़लील हैं,
साज़िशी मुहिम९ वह थी, बेजा थीं जिसारतें१० ।

१-अतीत २- पुण्य ३-अपमान ४-लम्बी ५-जरी रहने वाला प्रकोप ६-सभ्यताओं की ७-सत्य ८-अनुपालक ९-वर्ग १०-साहस

Sunday, September 27, 2015

Junbishen 692



नज़्म 
रोड़े फ़रोश 

दूर पंडितों से रह,मुर्शिदों से बच के चल,
हट के इनकी राह से अपनी रहगुज़र बदल।

धर्मों के दलाल हैं, ये मज़हबों के जाल हैं,
शब्द बेचते हैं यह, और मालामाल हैं .

इनके दर पे ग़ार है , रास्तों में ख़ार है, 
बाहमी ये एक हैं, देव बे शुमार हैं .

घुन हैं यह समाज के,खा रहे हैं फ़स्ल को .
कातिलान ए मोहतरम, जप रहे हैं नस्ल को .

इनकी महफ़िलों में हैं, बे हिसी की लअनतें,
खोखली हैं आज तक, बज़्म की सदाक़तें .

इर्तेक़ा के पांव में, डाले हैं यह बेड़ियाँ ,
इनकी धूम धाम में, गुम सी हैं तरक़्क़ियाँ  

मज़हबी इमारतें, हासिल ए मुआश हैं,
मकर की ज़ियारतें, झूट की तलाश हैं।

खा के लोग मस्त हैं, पुर फरेब गोलियाँ ,
पढ़ रहे हैं सब यहाँ, तोते जैसी बोलियाँ .

खैर कुछ नहीं यहाँ, गर है कुछ शर ही शर,
खुद में बस कि ऐ बशर, तू ज़रा सा सज संवर।

इनके आस्ताँ पे तू , बस कि मह्व ख़ाब है,
न कहीं सवाब है , न कहीं अज़ाब है।

इन से दूर रह के तू , सच की राह पाएगा ,
इनके हादसात से, अपने को बचाएगा .

मुंकिरी निसाब बन, अपनी इक किताब बन,
खुद में आफ़ताब बन, खुद में माहताब बन।

Friday, September 25, 2015

Junbishen 691



ताज़ियाने १

एहसासे कम्तरो२ तुम, ज़ेहनी गदागरो3तुम,
पैरों में रह के देखा, अब सर में भी रहो तुम।

इनकी सुनो न उनकी, ऐ मेरे दोस्तों तुम,
अपनी खिरद4 की निकली, आवाज़ को सुनो तुम।

दुनिया की गोद में तुम, जन्में थे, बे-ख़बर थे,
ज़ेहनी बलूग्तों5 में, इक और जन्म लो तुम।

अंधे हो गर, सदाक़त, कानों से देख डालो,
बहरे हो गर, हकीक़त, आखों से अब सुनो तुम।

ख़ुद को संवारना है, धरती संवारनी है,
दुन्या संवारने तक, इक दम नहीं रुको तुम।

मैं खाक लेके अपनी, पहुँचा हूँ पर्वतों तक,
ज़िद में अगर हो क़ायम, पाताल में रहो तुम।

१-कोड़े २-हीनाभासी3-तुच्छाभास ४-बुद्धि -बौधिक 5-ब्यासकता

Wednesday, September 23, 2015

Junbishen 690




 ग़ज़ल

ज़ेहनी दलील, दिल के तराने को दे दिया,
इक ज़र्बे तीर इस के, दुखाने को दे दिया।

तशरीफ़ ले गए थे, जो सच की तलाश में,
इक झूट ला के और, ज़माने को दे दिया।

तुम लुट गए हो इस में, तुम्हारा भी हाथ है,
तुम ने तमाम उम्र, ख़ज़ाने को दे दिया।

अपनी ज़ुबां, अपना मरज़, अपना ही आइना,
महफ़िल की हुज्जतों ने, दिवाने को दे दिया।

आराइशों की शर्त पे, मारा ज़मीर को,
अहसास का परिन्द, निशाने को दे दिया।

"मुंकिर" को कोई खौफ़, न लालच ही कोई थी,
सब आसमानी इल्म, फ़साने को दे दिया.

Sunday, September 20, 2015

Junbishen 689



 ग़ज़ल

बेखटके जियो यार, कि जीना है ज़िन्दगी,
निसवां1 है हिचक ,खौफ़ , नरीना2 है ज़िन्दगी।

खनते को उठा लाओ, दफ़ीना है ज़िन्दगी,
माथे पे सजा लो, कि पसीना है ज़िन्दगी।

घर, खेत, सड़क, बाग़ की, राहें सवाब हैं,
काबा न मक्का और न मदीना, है ज़िन्दगी।

नेकी में नियत बद है, तो मजबूर है बदी,
देखो कि किसका कैसा,  क़रीना है ज़िन्दगी।

जिनको ये क़्नाअत3 की नफ़ी4, रास आ गई,
उनके लिए ये नाने-शबीना5 है ज़िन्दगी।

अबहाम6 की तौकों से, सजाए वजूद हो,
'मुंकिर' जगे हुए पे, नगीना है ज़िन्दगी।

१-स्त्री लिंग २-पुल्लिग़ ३-संतोष ४-आभाव ५-बासी रोटी ६-अंध-विशवास

Friday, September 18, 2015

Junbishen 688



 ग़ज़ल

दाग़ सारे धुल गए तो, इस जतन से क्या हुवा,
थोड़ा सा पानी भी रख, ऐ दूध का धोया हुवा।

ज़ेहनी बीमारी पे शक करना है, जैसे फ़र्दे जुर्म,
अंधी और बहरी अकीदत, पे है हक़ रोया हुवा।

थी सदा पुर जोश कि, जगते रहो, जगते रहो,
डाकुओं की सरहदों पर, होश था खोया हुवा।

लगजिशों की परवरिश में, पनपा काँटों का शजर,
बच्चों पर इक दिन गिरेगा, आप का बोया हुवा।

उसकी आबाई किताबों, से जो नावाक़िफ़ हुवा,
देके जाहिल का लक़ब, उस से ख़फ़ा मुखिया हुवा।

भीड़ थामे था अक़ीदत, का मदारी उस तरफ़,
था इधर तनहा मुफ़क्किर* इल्म पर रोया हुवा।
*बुद्धि जीवी

Wednesday, September 16, 2015

Junbishen 687



 ग़ज़ल

बज़ाहिर मेरे हम नवा पेश आए,
बड़े हुस्न से, कज अदा पेश आए।

मेरे घर में आने को, बेताब हैं वह,
रुके हैं, कोई हादसा पेश आए।

हजारों बरस की, विरासत है इन्सां ,
न खूने बशर की, नदा1 पेश आए।

ये कैसे है मुमकिन, इबादत गुज़ारो!
नवलों को लेकर, दुआ पेश आए।

मुझे तुम मनाने की, तजवीज़ छोडो,
जो माने न वह, तो क़ज़ा2 पेश आए।

खुदा की मेहर ये, वो सैतान शैतां की हरकत,
कि "मुंकिर" कोई, वाक़ेआ पेश आए।

१-ईश-वाणी २-मौत

Monday, September 14, 2015

Junbishen 686




 ग़ज़ल
दुश्मनी गर बुरों से पालोगे,
ख़ुद को उन की तरह बना लोगे।

तुम को मालूम है, मैं रूठूँगा,
मुझको मालूम है,  मना लोगे।

लम्स1 रेशम हैं, दिल है फ़ौलादी ,
किसी पत्थर में, जान डालोगे।

मेरी सासों के डूब जाने तक,
अपने एहसान, क्या गिना लोगे।

दर के पिंजड़े के, ग़म खड़े होंगे,
इस में खुशियाँ, बहुत जो पालोगे।

सूद दे पावगे, न "मुंकिर" तुम,
क़र्ज़े ना हक़, को तुम बढ़ा लोगे।
1-स्पर्श

Thursday, September 10, 2015

Junbishen 685



 ग़ज़ल

ज़ाहिद में तेरी राग में, हरगिज़ न गाऊँगा,
हल्का सा अपना साज़, अलग ही बनाऊँगा।

तू मेरे हल हथौडे को, मस्जिद में लेके चल,
तेरे खुदा को अपनी, नमाज़ें दिखाऊँगा।

सोहबत भिखारियों की, अगर छोड़ के तू आ,
मेहनत की पाक साफ़ गिज़ा, मैं खिलाऊँगा।

तुम खोल क्यूँ चढाए हो, मानव स्वरूप के,
हो जाओ वस्त्र हीन, मैं आखें चुराऊँगा।

ए ईद! तू लिए है खड़ी, इक नमाज़े बेश,
इस बार छटी बार मैं, पढने न जाऊँगा।

खामोश हुवा, चौदह सौ सालों से खुदा क्यूँ,
अब उस की जुबां, हुस्न ए सदाक़त पे लाऊंगा .

Tuesday, September 8, 2015

Junbishen 684





 ग़ज़ल

जिस तरह से तुम दिलाते हो, खुदाओं का यकीं ,
उस तरह से और बढ़ जाती है, शुबहों की ज़मीं.

है ये भारत भूमि, फूलो और फलो पाखंडियो,
मिल नहीं सकती शरण, संसार में तुम को कहीं.

नंगे, गूंगे संत के, मैले कुचैले पाँव पर,
हाय रख दी है, तुम ने क्यूँ ये इंसानी जबीं.

गर है माज़ी के तअल्लुक़ से ये माथे की शिकन,
तब कहाँ बच पाएँगे, इमरोज़ ओ फ़र्दा के अमीं.

नन्हीं नन्हीं नेक्यों, कमज़ोर सी बादियों के साथ,
कट गई यह जिंदगी इन पे लगाए दूरबीं.

हो अमल जो भी हमारा, दिल भी इस के साथ हो,
है दुआ तस्बीहे "मुंकिर" क्यूं मियाँ लेते नहीं।

*जबीं=सर *इमरोज़ ओ फ़र्दा =आज और कल *त

Monday, September 7, 2015

Junbishen 683



 ग़ज़ल
बात नाज़ेबा तुम्हारे मुंह की पहुंची यार तक,
अब न ले कर जाओ इसको, मानी ओ मेयार तक।

पहले आ कर खुद में ठहरो, फिर ज़रा आगे बढो,
ऊंचे, नीचे रास्तों से, खित्ताए हमवार तक।

घुल चुकी है हुक्म बरदारी, तुम्हारे खून में,
मिट चुके हैं ख़ुद सरी, ख़ुद्दारी के आसार तक।

इक इलाजे बे दवा अल्फ़ाज़ की तासीर है,
कोई पहुंचा दे मरीज़े दिल के, गहरे ग़ार तक।

रब्त में अपने रयाकारी की आमेज़िश लिए,
पुरसाँ हाली में चले आए हो इस बीमार तक।

मैं तेरे दौलत कदे की, सीढयों तक आऊँ तो,
तू मुझे ले जाएगा, अपनी चुनी मीनार तक।

कुछ इमारत की तबाही, पर है मातम की फ़ज़ा,
हीरो शीमा नागा शाकी, शहर थे यलग़ार तक।

उम्र भर लूतेंगे तुझ को, मज़हबी गुंडे हैं ये,
फ़ासला बेहतर है इनसे, आलम बेदार तक।

Friday, September 4, 2015

Junbishen 682



 ग़ज़ल
थीं बहुत कुछ सूरतें अहदों उसूलों से भली,
जान लेने जान देने में ही तुम ने काट दी।

भेडिए, साँपों, सुवर, के साथ ही यह तेरे लब,
पड़ चुके किस थाल में हैं,ऐ मुक़द्दस आदमी।

नेक था सरवन मगर,सीमित वो होकर रह गया,
सेवा में माँ बाप के ही, काट डाली ज़िन्दगी।

ढूंढो मत इतिहास के, जंगल में शेरों का पता,
ऐ चरिन्दों! क्या हुवा, जो पा गए सींगें नई।

आप ने देखा नहीं, क्या न मुकम्मल था ख़ुदा ,
ख़ैर छोडो, अब चलो खोजें, मुकम्मल आदमी।

करता है बे चैन "मुंकिर" देके कुछ सच्ची ख़बर,
सच का वह मुख़बिर बना है, इस लिए है दुश्मनी.

Tuesday, September 1, 2015

Junbishen 681



 ग़ज़ल

मैं अकेला, तू अकेला, सब अकेले हैं यहाँ,
दे रहा उपदेश स्वामी, भीड़ में बैठा वहाँ।

जन हिताय उपवनों के, शुद्ध पावन मौन में,
धर्म की जूठन परोसे, हैं जुनूनी टोलियाँ।

जज्बा ऐ शर१ देखिए, उस मर्द ए मोमिन में ज़रा,
या शहीदे जंग होगा, या तो फिर गाज़ी मियां।

बिक गया है कुछ नफ़े के साथ, वह तेरा हबीब,
बाप की लागत थी उस पे, माँ का क़र्ज़े आस्मां।

मैं समझता हूँ नवाहो-गिर्द2 पे ग़ालिब हूँ मैं,
ग़लबा ए रूपोश जैसा गिर्द3 है मेरे जहाँ।

हर तरफ़ *बातिल हैं छाए, और जाहिल की पकड़,
कैसे "मुंकिर" इल्म अपना, झेले इनके दरमियाँ।

१-दुष्ट-भाव मीठी-आस-पास ३-चहु ओर *बातिल =मिथ्य