Monday, January 30, 2012

ग़ज़ल - - - दो चार ही बहुत हैं गर सच्चे रफीक़ हैं


दो चार ही बहुत हैं गर सच्चे रफीक़ हैं,
बज़्मे अज़ीम से तेरे दो चार ठीक हैं।


तारीख़ से हैं पैदा तो मशकूक है नसब,
जुगराफ़िया ने जन्म दिया तो अकीक़ हैं।


कांधे पे है जनाज़ा शरीके हयात का,
आखें शुमार में हैं कि कितने शरीक हैं?


ईमान ताज़ा तर तो हवाओं पे है लिखा,
ये तेरे बुत खुदा तो क़दीम ओ दकीक़ हैं।


इनको मैं हादसात पे ज़ाया न कर सका,
आँखों की कुल जमा यही बूँदें रक़ीक़ हैं।


रहबर मुआशरा तेरा तहतुत्सुरा में है,
"मुंकिर" बक़ैदे सर लिए क़ल्बे अमीक़ हैं.
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रफीक़=दोस्त *मशकूक=शंकित * नसब=नस्ल *जुगराफ़िया=भूगोल *दकीक़=पुरातन *तहतुत्सुरा=पाताल *क़ल्बे अमीक़ गंभीर ह्र्दैय के साथ

Wednesday, January 25, 2012

ग़ज़ल - - - सुब्ह उफुक़ है शाम शिफ़क़ है



सुब्ह उफुक़ है शाम शिफ़क़ है,
देख ले उसको एक झलक है.


बात में तेरी सच की औसत,
दाल में जैसे यार नमक है।


आए कहाँ से हो तुम ज़ाहिद?
आंखें फटी हैं चेहरा फ़क है।


उसकी राम कहानी जैसी,
बे पर की
ये सैर ए फ़लक है।


माल ग़नीमत ज़ाहिद खाए,
उसकी जन्नत एक नरक है।


काविश काविश, हासिल हासिल,
दो पाटों में
जान बहक़ है।


धर्मों का पंडाल है झूमा,
भक्ति की दुन्या मादक है।


हिंद है पाकिस्तान नहीं है,
बोल बहादर जो भी हक है।


कुफ्र ओ ईमान टेढी गलियां,
सच्चाई की सीध सड़क है।


फितरी बातें एन सहीह हैं,
माफौकुल फ़ितरत पर शक है।


कितनी उबाऊ हक की बातें,
"मुंकिर" उफ़! ये किस की झक है.

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उफुक़=प्रातः क्षितिज लालिमा *शिफ़क़=शाम की क्षितिज लालिमा *काविश=जतन *फितरी=लौकिक *माफौकुल=अलौकिक
ग़ज़ल - - - दो चार ही बहुत हैं गर सच्चे रफीक़ हैं

Wednesday, January 18, 2012

ग़ज़ल - - - तुम तो आदी हो सर झुकने के


 
तुम तो आदी हो सर झुकने के,
बात सुनने के, लात खाने के।
 
क्या नक़यास हैं पास आने के,
फ़ायदे क्या हैं दिल दुखाने के?
 
क़समें खाते हो बावले बन कर,
तुम तो झूटे हो इक ज़माने के।
 
लब के चिलमन से मोतियाँ झांकें,
ये सलीका है घर दिखाने के।
 
ले के पैगाम ए सुल्हा आए हो,
क्या लवाजिम थे तोप खाने के।
 
मैं ने पूछी थी खैरियत यूं ही,
आ गए दर पे काट खाने के।
 
जिन के हाथों बहार बोई गईं,
हैं वह मोहताज दाने दाने के।
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Friday, January 13, 2012

ग़ज़ल - - - आबला पाई है दूरी है बहुत


 
 
आबला पाई है दूरी है बहुत,
है मुहिम दिल की ज़रूरी है बहुत.
 
 
कुन कहा तूने हुवा दन से वजूद,
दुन्या ये तेरी अधूरी है बहुत।
 
 
रहनुमा अपनी सुजाअत में निखर,
निस्फ़ मर्दों की हुजूरी है बहुत।
 
 
देवताओं की पनाहें बेहतर,
वह खुदा नारी ओ नूरी है बहुत।
 
 
तेरे इन ताज़ा हिजाबों की क़सम,
तेरा यह जलवा शुऊरी है बहुत।
 
 
इम्तेहान तुम हो नतीजा है वजूद,
तुम को हल करना ज़रूरी है बहुत।
 
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Wednesday, January 4, 2012

ग़ज़ल - - - बुल हवस को मौत तक हिर्स ओ हवा ले जाएगी


 
बुल हवस को मौत तक हिर्स ओ हवा ले जाएगी,
जश्न तक हमको किनाअत की अदा ले जाएगी।
 
बद खबर अख़बार का पूरा सफह ले जाएगा,
नेक खबरी को बलाए हाशिया ले जाएगी।
 
बाँट दूँगा बुख्ल अपने खुद गरज़ रिश्तों को मैं,
बाद इसके जो बचेगा दिल रुबा ले जाएगी।
 
रंज ओ गम, दर्द ओ अलम, सोज़ ओ खलिस हुज़्न ओ मलाल,
"ज़िन्दगी हम से जो रूठेगी तो क्या ले जाएगी"।
 
मेरा हिस्सा ना मुरादी का मेरे सर पे रखो,
अपना हिस्सा ऐश का वह बे वफा ले जाएगी।
 
गैरत "मुंकिर" को मत काँधा लगा पुरसाने हाल,
क़ब्र तक ढो के उसे उसकी अना ले जाएगी।

ज़ुल्म से सिरजी ये दौलत दस गुना ले जाएगी,
लूट कर फानी ने रक्खा है फ़ना ले जाएगी।
 
है तआक़ुब में ये दुन्या मेरे नव ईजाद के,
मैं उठाऊंगा क़दम तो नक्शे पा ले जाएगी।
 
तिफ्ल के मानिंद अगर घुटने के बल चलते रहे,
ये जवानी वक़्त की आँधी उड़ा ले जाएगी।
 
बा हुनर ने चाँद तारों पर बनाई है पनाह,
मुन्तज़िर वह हैं उन्हें उन की दुआ ले जाएगी।
 
सारे खिलक़त का अमानत दार है "मुंकिर" का खू,
ए तमअ तुझ पर नज़र है कुछ चुरा ले जाएगी।
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*बद रवी =दूर व्योहार *तआक़ुब=पीछा करना *तिफ्ल=बच्चा *तमअ=लालच

Sunday, January 1, 2012

ग़ज़ल - - - ज़मीं पे माना है खाना ख़राब का पहलू


 
ज़मीं पे माना है खाना ख़राब का पहलू,
मगर है अर्श पे रौशन शराब का पहलू ।
 
 
ज़रा सा गौर से देखो मेरी बगावत को,
छिपा हुआ है किसी इंक़लाब का पहलू।
 
 
नज़र झुकाने की मोहलत तो देदे आईना,
सवाल दाबे हुए है जवाब का पहलू।
 
 
पड़ी गिजा ही बहुत थी मेरी बक़ा के लिए,
बहुत अहेम है मगर मुझ पे आब का पहलू।
 
 
खता ज़रा सी है लेकिन सज़ा है फ़ौलादी,
लिहाज़ में हो खुदाया शबाब का पहलू।
 
 
खुली जो आँख तो देखा निदा में हुज्जत थी,
सदाए गैब में पाया हुबाब का पहलू।
 
 
तुम्हारे माजी में मुखिया था कोई गारों में,
अभी भी थामे हो उसके निसाब का पहलू।
 
 
बड़ी ही ज्यादती की है तेरी खुदाई ने,
तुझे भी काश हो लाजिम हिसाब का पहलू।
 
 
ज़बान खोल न पाएँगे आबले दिल के,
बहुत ही गहरा दबा है इताब का पहलू।
 
 
सबक लिए है वोह बोसीदा दरस गाहों के ,
जहाने नव को सिखाए सवाब का पहलू।
 
 
तुम्हारे घर में फटे बम तो तुम को याद आया,
अमान ओ अम्न पर लिक्खे किताब का पहलू।
 
 
उधम मचाए हैं "मुंकिर" वोह दीन ओ मज़हब का,
जुनूँ को चाहिए अब सद्दे बाब का पहलू..