Thursday, January 22, 2009

गीत बनाम ख़लील जिब्रान


गीत 

बहुत थके ऐ हमराही अब, आओ ज़रा सा सुस्ताएँ,
तुम भी प्यासे, हम भी प्यासे, चलो थकावट पीजाएँ।




अरमानो के बीज दबे हैं, बर्फ़ीली चट्टानों में,
बरखा रानी हिम पिघला, अंकुर फूटें, हम लहराएं।




कुछ न बोलें, होंट न खोलें, शब्दों की परछाईं तले,
चारों नयनों के दरपन को, सारी छवि दे दी जाएँ।




तेरे तन की झीनी चादर, मेरे देह की तंग क़बा,
आओ दोनों परिधानों को, उतन पुतन कर सी जाएँ।




सूरज के किरनों से बंचित, नर्म हवाओं से महरूम,
काया क़ैदी कपडों की है, आओ बगावत की जाएँ।


2 comments:

  1. सूरज के किरनों से बंचित, नर्म हवाओं से महरूम,
    काया क़ैदी कपडों की है, आओ बगावत की जाएँ।
    achcha likha hai

    ReplyDelete
  2. बहुत बढिया रचना है।बधाई।

    ReplyDelete