Sunday, January 11, 2009

महा जननी भवः


महा  जननी भवः

ठहरो, वर-माला मत डालो, दो इक सदियाँ टालो,
बधू , तुम्हारा वर कैसा हो? खोजो और खंगालो।

संस्कार की जड़ता देखो, भूल चूक स्वीकारो,
नव दर्शन की की महिमा समझो, अंधी सोच निकालो।

मिथ्या,पाखंड,भेद भाव और दीन धरम के मारे,
हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौध, जैन मत पालो।

जिस ने जीत लिया हो जग को, मर्यादा रच ली हो,
ऐसा सरल, सबल, शुभ, साथी मिले तो शीश नवा लो।

स्मारक बना जाएँ तुम्हारी संताने छित्जों पर,
एक महा मानव को जन्मो, उसमे सबको ढालो।

डावांडोल है धरती माता, नीच हीन हाथों में,
धरती जननी तुम भी जननी, धरती तुम ही संभालो।

ठहरो वर-माला मत डालो ----




2 comments:

  1. भावपूर्ण रचना!
    दीपक भारतदीप

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  2. लाजवाब रचना...बहुत गहरी और सार्थक बात कहती हुई...बधाई...
    नीरज

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