Friday, February 27, 2009

ग़ज़ल - - - मैं अकेला, तू अकेला, सब अकेले हैं यहाँ


ग़ज़ल

मैं अकेला, तू अकेला, सब अकेले हैं यहाँ,
दे रहा उपदेश स्वामी, भीड़ में बैठा वहाँ।

जन हिताय उपवनों के, शुद्ध पावन मौन में,
धर्म की जूठन परोसे, हैं जुनूनी टोलियाँ।

जज्बा ऐ शरदेखिए, उस मर्द ए मोमिन में ज़रा,
या शहीदे जंग होगा, या तो फिर गाज़ी मियां।

बिक गया है कुछ नफ़े के साथ, वह तेरा हबीब,
बाप की लागत थी उस पे, माँ का क़र्ज़े आस्मां।

मैं समझता हूँ नवाहो-गिर्द2 पे ग़ालिब हूँ मैं,
ग़लबा ए रूपोश जैसा गिर्द3 है मेरे जहाँ।

हर तरफ़ *बातिल हैं छाए, और जाहिल की पकड़,
कैसे "मुंकिर" इल्म अपना, झेले इनके दरमियाँ।


१-दुष्ट-भाव मीठी-आस-पास ३-चहु ओर *बातिल =मिथ्य





3 comments:

  1. बढ़िया रचना बधाई . लिखते रहिये.

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  2. दे रहा उपदेश स्वामी, भीड़ में बैठा वहाँ।

    धर्म की जूठन परोसे हैं जुनूनी टोलियाँ।

    हर तरफ़ *बातिल हैं छाए और जाहिल की पकड़,
    कैसे "मुंकिर" इल्म अपना, झेले इनके दरमियाँ।
    Bahut khub. Is sahas ke liye aapko dheroN shabashi. Buck-up. Jeete rahiye.

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