Thursday, February 26, 2009

ग़ज़ल - - है नहीं मुनासिब ये आप मुझ को तडपाएँ



ग़ज़ल 

है नहीं मुनासिब ये, आप मुझ को तडपाएँ,
ज़लज़ला न आने दें, मेह भी न बरसाएं।

बस कि इक तमाशा हैं, ज़िन्दगी के रोज़ ओ शब,
सुबह हो तो जी उठ्ठें, रात हो तो मर जाएँ।

आप ने ये समझा है ,हम कोई खिलौने हैं,
जब भी चाहें अपना लें, जब भी चाहें ठुकराएँ।

भेद भाव की बातें, आप फिर लगे करने,
आप से कहा था न, मेरे धर पे मत आएं।

वक़्त के बडे मुजरिम, सिर्फ धर्म ओ मज़हब हैं,
बेडी इनके पग डालें, मुंह पे टेप चिपकाएँ।

तीसरा पहर आया, हो गई जवानी फुर्र,
बैठे बैठे "मुंकिर" अब देखें, राल टपकाएं.




1 comment:

  1. वक़्त के बडे मुजरिम, सिर्फ धर्म ओ मज़हब हैं,

    बेडी इनके पग डालें, मुंह पे टेप चिपकाएँ।

    तीसरा पहर आया, हो गई जवानी फुर्र,

    बैठे बैठे "मुंकिर" अब देखें, राल टपकाएं.
    अच्छा लिखा है।

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