ग़ज़ल
हक्कुल इबाद से ये, लबरेज़ है न छलके,
राहे अमल में थोड़ा, मेरे पिसर संभल के।
ऐ शाखे गुल निखर के, थोड़ा सा और फल के,
अपने फलों को लादे, कुछ और थोड़ा ढल के।
अपने खुदा को ख़ुद मैं, चुन लूँगा बाबा जानी,
मुझ में सिने बलूगत, कुछ और थोड़ा झलके।
लम्हात ज़िन्दगी के, हरकत में क्यूँ न आए,
तुम हाथ थे उठाए, चलते बने हो मल के।
कहते हो उनको काफिर, जो थे तुम्हारे पुरखे,
है तुम में खून उनका, लोंडे अभी हो कल के।
मेहनत कशों की बस्ती, में बेचो मत दुआएं,
"मुंकिर" ये पूछता है, तुम हो भी कुछ अमल के।
हक्कुल इबाद =मानव अधिकार
बहुत खूबसूरत ख्यालात का मुजाहिरा किया है आपने अपने इस गजल में..
ReplyDeleteमेहनत कशों की बस्ती, में बेचो मत दुआएं,
"मुंकिर" ये पूछता है, तुम हो भी कुछ अमल के।
वाह! इरशाद्. एक काम और कर देते तो हुजूर बहुत अच्छा होता. बस ई भर्ड भेरीफिकेशन का लोचा हटा देते!
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