ग़ज़ल
वहम् का परदा उठा क्या, हक़ था सर में आ गया,
दावा ऐ पैग़म्बरी, हद्दे बशर में आ गया।
खौफ़ के बेजा तसल्लुत1, ने बग़ावत कर दिया,
डर का वो आलम जो ग़ालिब था, हुनर में आ गया।
यादे जानाँ तक थी बेहतर, आक़बत2 की फ़िक्र से,
क्यूं दिले नादाँ, तू ज़ाहिद के असर में आ गया।
जितनी शिद्दत से, दुआओं की सदा कश्ती में थी,
उतनी तेज़ी से सफ़ीना, क्यूँ भंवर में आ गया।
छोड़ कर हर काम, मेरी जान तू लाहौल3 पढ़,
मन्दिरो मस्जिद का शैतान, फिर नगर में आ गया।
एक दिन इक बे हुनर, बे इल्म और काहिल वजूद,
लेके पुडिया दीन की "मुंकिर" के घर में आ गया।
१-लदान २ -परलोक ३-धिक्कार मन्त्र
बहुत उम्दा गज़ल है।बधाई।
ReplyDeleteसुंदर ग़ज़ल, बधाई
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