Thursday, February 26, 2009

ग़ज़ल - - - उन की मुट्ठी में कभी मेरे पर आते नहीं



ग़ज़ल

उन की मुट्ठी में कभी, मेरे पर आते नहीं ,
हम पे पीरे ख़ुद नुमाँ, के असर आते नहीं।


है तग़य्युर जुर्म तुम, ये सबक पढ़ते रहो,
राह में अपने ये, ज़ेरो ज़बर आते नहीं।


है लताफत जिंस में, वह भला बचते हैं क्यूं,
यह ब्रहमचारी हैं क्या? गौर फ़रमाते नहीं।


आज दीवाना तो बस, इस लिए दीवाना है,
छेड़ने वाले उसे क्यूँ नज़र आते नहीं।


मेरे मुजरिम यूँ भुला बैठे हैं, अपने जुर्म को,
सामने आ जाते हैं, अब वह कतराते नहीं।




5 comments:

  1. मेरे मुजरिम यूँ भुला बैठे हैं अपने जुर्म को,
    सामने आ जाते हैं, अब वह कतराते नहीं।

    वाह...क्या बात है...बेहतरीन ग़ज़ल....हमेशा की तरह.
    नीरज

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  2. मेरे मुजरिम यूँ भुला बैठे हैं अपने जुर्म को,सामने आ जाते हैं, अब वह कतराते नहीं। बहुत सुन्दर लगा यह ..शुक्रिया

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  3. बहुत खूब लिखा आपने

    है तगय्युर जुर्म तुम, ये सबक पढ़ते रहो,
    राह में अपने ये, ज़ेरो ज़बर आते नहीं।
    .....सच है आम आदमी को दुनिया के दांव पेच से क्या लेना

    मेरे मुजरिम यूँ भुला बैठे हैं अपने जुर्म को,
    सामने आ जाते हैं, अब वह कतराते नहीं।

    ...आजकल चोरी और सीना जोरी का जमाना जो है

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  4. सुन्दर शेर लिखे हैं।

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