Tuesday, February 3, 2009

ग़ज़ल-----मख़लूक़ ए ज़माने1 की ज़रूरत को समझ ले,


ग़ज़ल 

मख़लूक़ ए ज़माने1 की ज़रूरत को समझ ले,
बेहतर है इबादत से, तिजारत को समझ ले।

ऐ मरदे-जवान साल, तू अब सीख ले उड़ना,
माँ-बाप की मजबूर किफ़ालत को समझ ले।

हुजरे3 में मसाजिद के, अज़ीज़ों को मत पढ़ा,
गिलमा के तलब गारों की, ख़सलत को समझ ले।

बारातों, जनाजों के लिए, चाहिए इक भीड़,
नादाँ तबअ उनकी, सियासत को समझ ले।

मनवा के "उसे" अपने को मनवाएगा वह शेख़ ,
यह दूर कि कौडी है, नज़ाक़त को समझ ले।

'मुंकिर' हो फ़िदा ताकि बक़ा6 हाथ हो तेरे,
मशरूत7 वजूदों की, शहादत को समझ ले।


१-जन साधारण २ -पालन-पोषण ३-कमरों ४-सेवक बालक ५-सरल-स्वभाव ६-स्थायित्व ७- सशर्त


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