Wednesday, February 11, 2009

ग़ज़ल---कहीं हैं हरम की हुकूमतें, कहीं हुक्मरानी-ऐ-दैर है


ग़ज़ल

कहीं हैं हरम1 की हुकूमतें, कहीं हुक्मरानी-ऐ-दैर2 है,
कहाँ ले चलूँ ,तुझे हम जुनूँ, कहाँ ख़ैर शर3 के बगैर है।


बुते गिल4 में रूह को फूँक कर, उसे तूने ऐसा जहाँ दिया,
जहाँ जागना है एक ख़ता, जहाँ बे ख़बर ही बख़ैर है।


बड़ी खोखली सी ये रस्म है, कि मिलो तो मुँह पे हो ख़ैरियत?
ये तो एक पहलू नफ़ी5 का है, कहाँ इस में जज़्बाए ख़ैर है।


मुझे ज़िन्दगी में ही चाहिए , तेरी बाद मरने कि चाह है,
मेरा इस ज़मीं पे है कारवाँ, तेरी आसमान की सैर है।


सभी टेढे मेढ़े सवाल हैं कि समाजी तौर पे क्या हूँ मैं,
मेरी ज़ात पात से है दुश्मनी, मेरा मज़हबों से भी बैर है।


१-काबा २-मन्दिर ३-झगडा ४-माटी की मूरत ५-नकारात्मक

2 comments:

  1. सभी टेढे मेढ़े सवाल हैं कि समाजी तौर पे क्या हूँ मैं,
    मेरी ज़ात पात से है दुश्मनी, मेरा मजहबों से भी बैर है

    बेहतरीन ....वाह....बहुत खूबसूरत बात कही है आपने...बधाई

    नीरज

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  2. aapki rachnayein mujhe bahut bhati hain lekin urdu bahut mushkil likhte hain aap , oopar se nikal jaati hai. khair urdu men likhna hi to aapki khasiyat hai likhte rahen hum padhte rahenge is bahane urdu aur achchi seekh jayenge. shukriya.

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