Sunday, February 15, 2009

ग़ज़ल --- उफ़! दामे मगफिरत में बहुत मुब्तिला था ये



ग़ज़ल

उफ़! दामे मग्फ़िरत 1 में, बहुत मुब्तिला था ये,
नादाँ था दिल, तलाशे खुदा में पड़ा था ये।

महरूम रह गया हूँ, मैं छोटे गुनाह से ,
किस दर्जा पुर फ़रेब, यक़ीन जज़ा2 था ये।

पुर अमन थी ज़मीन ये, कुछ रोज़ के लिए ,
तारीख़ी वाक़ेओं में, बड़ा वक़िआ का था ये।

मानी सभी थे द्फ़्न समाअत की क़ब्र में,
अल्फ़ाज़ ही न पैदा हुए, सानेहा था ये।

हर ऐरे गैरे बुत को, हरम से हटा दिए,
तेरा4 लगा दिया था, कि सब से बड़ा था ये।

'मुंकिर' पडा है क़ब्र में , तुम ग़म में हो पड़े,
तिफ़ली5 अदावतों का नतीजा मिला था ये।


१-मुक्ति का भ्रम जाल २-मुक्ति का विशवास ३-श्रवण शक्ति ४-अर्थात अल्लाह का ५-बचकाना.

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