ग़ज़ल
देखो पत्थर पे घास उग आई, अच्छे मौसम की सर परस्ती है,
ऐ क़यादत1 कि बाद कुदरत के, मेरी आंखों में तेरी हस्ती है।
भाग्य को गर न कर तू बैसाखी, तुझ को छोटा सा एक चिंतन दूँ,
सर्व संपन्न के बराबर ही, सर्वहारा की एक बस्ती है।
दहकाँ2 मोहताज दाने दाने का, और मज़दूर भी परीशाँ है,
सुनता किसकी दुआ है तेरा रब, उसकी रहमत कहाँ बरसती है।
ज़िन्दा लाशों में एक को खोजो, जिस में सुनने का होश बाक़ी हो,
उस से कह दो कि नींद महंगी है, उस से कह दो कि जंग सस्ती है।
मेरे हिन्दोस्तां का ज़ेहनी सफ़र, दूर दर्शन पे रोज़ है दिखता,
किसी चैनल पे धर्म कि पुड़िया, किसी चैनल पे मौज मस्ती है।
ज़ब्त बस ज़हर से ज़रा कम है, सब्र इक ख़ुद कुशी कि सूरत है,
इन को खा पी के उम्र भर 'मुंकिर' ज़िन्दगी मौत को तरसती है।
१-सरकार २-किसान
behad khoobsurat ghazal hai bahut bahut mubarak.aapke followers ki list men shamil hona chahta hun aapke blog par ye suvidha nahin hai.
ReplyDeleteजिन्दगी की तलाश है जिनको,
ReplyDeleteढूँढ लेना जहाँ वो बसती है।
जिन्दगी हाट में नही मिलती-
सिर्फ गाँवों में ही वो बसती है।
खोजता क्यों नगर की गलियों मे-
इनमें फूहड़ सी एक मस्ती है।
जिन्दगी ठाठ में नही मिलती-
फाकेमस्तों में ही वो बसती है।