Sunday, March 31, 2019

ग़ज़ल--- किताब सर से उतारा है, कहे देता हूँ,


ग़ज़ल 

किताब सर से उतारा है, कहे देता हूँ,
हमारे सर में भी पारा है, कहे देता हूँ.

फ़क़त नहीं वह तुम्हारा है, कहे देता हूँ,
सभी का उस पे इजारा है, कहे देता हूँ.

सवाब पढ़ के पढ़ा के मिले, तो लानत है,
सवाब जीना गवारा है, कहे देता हूँ.

हिफ्ज़ ए रूदाद ऐ हाफ़िज़ है तज़ीउल वक़ती,
यह सर का भारी ख़सारा1 है, कहे देता हूँ.

दिमाग माने, कोई धर्म या कोई मज़हब,
लहू में पुरखों की धारा है, कहे देता हूँ.

यही इनकार तो 'मुंकिर'की जमा पूँजी है,
इसी ने उसको संवारा है, कहे देता हूँ.

हिफ्ज़ ए रूदाद =दास्तान कंठस्त , तज़ीउल वक़ती=समय की बर्बादी १-हानि 

کتاب سر سے اُتارا ہے، کہے دیتا ہوں 
ہمارے سر میں بھی، پارہ ہے کہے دیتا ہوں. 

فقط نہیں وہ تمہارا ہے کہے دیتا ہوں 
سبھی کا اُس پہ اِجارہ ہے کہے دیتا ہوں. 

ثواب پڑھ کے پڑھا کے ملے تو لعنت ہے
ثواب جینا گوارہ ہے کہے دیتا ہوں. 

حفظِ روداد ائےحافظ! ہےتضیع الوقتی 
یہ سر کا بھاری خسارہ ہے کہے دیتا ہوں. 

دماغ مانگے کوئی دھرم، یا کوئی مذہب 
لہو میں پُرکھوں کی دھارا ہے کہے دیتا ہوں. 

یہی انکار تو منکر کی جمع پونجی ہے 
اِسی نے اُسکو سنوارا ہے کہے دیتا ہوں٠

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