दोहे
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कित जाऊं किस से मिलूँ, नगर-नगर सुनसान,
हिन्दू-मुस्लिम लाख हैं, एक नहीं इंसान.
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कृषक! राजा तुम बनो, श्रमिक बने वज़ीर,
शाषक जाने भाइयो, बहु संख्यक की पीर.
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सन्यासी सूफ़ी बने, तो माटी पाथर खाए,
दूजी पीस पिसान को, काहे मांगन जाए.
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माटी के तन पर तेरे, चढत है चादर पीर,
बिन चादर के सहित में, मानव तजें शरीर.
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पानी की कल कल सुने, सुन ले राग बयार,
ईश्वर वाणी है यही, अल्ला की गुफ़तार.
वाह
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