ग़ज़ल
देखो पत्थर पे घास उग आई, अच्छे मौसम की सर परस्ती है,
ऐ क़यादत1 कि बाद क़ुदरत के, मेरी आंखों में तेरी हस्ती है.
भाग्य को गर न कर तू बैसाखी, तुझ को छोटा सा एक चिंतन दूँ,
सर्व संपन्न के बराबर ही, सर्वहारा की एक बस्ती है.
दहकाँ2 मोहताज दाने दाने का, और मज़दूर भी परीशाँ है,
सुनता किसकी दुआ है तेरा रब, उसकी रहमत कहाँ बरसती है.
ज़िन्दा लाशों में एक को खोजो, जिस में सुनने का होश बाक़ी हो,
उस से कह दो कि नींद महंगी है, उस से कह दो कि जंग सस्ती है.
मेरे हिन्दोस्तां का ज़ेहनी सफ़र, दूर दर्शन पे रोज़ है दिखता,
किसी चैनल पे धर्म कि पुड़िया, किसी चैनल पे मौज मस्ती है.
ज़ब्त बस ज़हर से ज़रा कम है, सब्र इक ख़ुद कुशी कि सूरत है,
इन को खा पी के उम्र भर 'मुंकिर' ज़िन्दगी मौत को तरसती है.
१-सरकार २-किसान
دیکھو پتّھر پہ گھاس اُگ آی، اچھے موسم کی سر پرستی ہے
ائے قیادت! کہ بعد قدرت کے، میری آنکھوں میں تیری ہستی ہے٠
بھا گیہ کو گر نہ کر تو بیساکھی، تُجھ کو چھوٹا ساایک چنتن دوں
سرو سنپنن کے برابر ہی، سرو ہارا کی ایک بستی ہے٠
دہقاں محتاج دانہ دانہ ہے، اور مزدور بھی پریشاں ہے
سُنتا کس کی دعا ئیں ہے یارب! تیری رحمت کہاں برستی ہے٠
زندہ لاشوں میں ایک کو ڈھونڈھو، جو سماعت کا ہوش رکھتی ہو
اس سے کہہ دو کہ نیند مہنگی ہے، اس سے کہہ دو کہ جنگ سستی ہے٠
اپنے ہندوستان کا ذہنی سفر، دور درشن پہ روز دکھتا ہے
کسی چینل پہ دھرم کی پُڑیہ، کسی چینل پہ موج مستی ہے
ضبط بس زہر سے زرہ کم ہے، صبر اک خود کشی کی صورت ہے
جسکو کھا پی کے عمر بھر منکر، زندگی موت کو ترستی ہے٠
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