Sunday, June 9, 2019

जुंबिशें - ग़ज़ल



ग़ज़ल  

हक्क़ुल इबाद से ये, लबरेज़ है न छलके,
राह ए अमल में थोड़ा, मेरे पिसर संभल के.

ऐ शाख़ ए गुल निखर के, थोड़ा सा और फल के,
अपने फलों को लादे, कुछ और थोड़ा ढल के.

अपने ख़ुदा को ख़ुद मैं, चुन लूँगा बाबा जानी,
मुझ में सिन ए  बलूग़त, कुछ और थोड़ा झलके.

लम्हात ज़िन्दगी के, हरकत में क्यूँ न आए,
तुम हाथ थे उठाए, चलते बने हो मल के.

कहते हो उनको काफ़िर  जो थे तुम्हारे पुरखे,
है तुम में ख़ून उनका, लोंडे अभी हो कल के.

मेहनत कशों की बस्ती, में बेचो मत दुआएँ,
"मुंकिर" ये पूछता है, तुम हो भी कुछ अमल के.

हक्कुल इबाद =मानव अधिकार

حق العباد سے یہ، لبریزہے، نہ چھلکے 
گامِ عمل میں تھوڑا، میرے پِسر سنبھل کے٠ 

ائے شاخِ گل سنبھل کے، تھوڑااور پھل کے 
اپنے پھلوں کو لادے، رہنا زرہ سا ڈھل کے٠ 

اپنے خدا کو خود میں، چُن لونگا بابا جانی 
مجھ میں سنِ بلوغت، تھوڑا سا اور جھلکے٠ 

لمحاتِ زندگی کے، حرکت میں کیوں نہ آے؟ 
تم ہاتھ تھے اُٹھاۓ، چلتے بنے ہو مل کے٠ 

ہے تم میں خون اُنکا، لونڈے ابھی ہو کل کے٠ 

محنت کشوں کی بستی، میں بیچو مت دعا ئیں 
منکر یہ پوچھتا ہے، تم ہو بھی کچھ عمل کے ٠ 

No comments:

Post a Comment