ग़ज़ल
मख़लूक़ ए ज़माने1 की ज़रूरत को समझ ले,
बेहतर है इबादत से, तिजारत को समझ ले.
ऐ मर्द ए जवान साल, तू अब सीख ले उड़ना,
माँ-बाप की मजबूर किफ़ालत२ को समझ ले.
हुजरे3 में मसाजिद के, अज़ीज़ों को मत पढ़ा,
ग़िलमा४ के तलब गारों की, ख़सलत को समझ ले.
बारातों, ज़नाज़ों के लिए, चाहिए इक भीड़,
नादाँ तबअ५ उनकी, सियासत को समझ ले.
मनवा के "उसे" अपने को मनवाएगा वह शेख़,
यह दूर कि कौड़ी है, नज़ाक़त को समझ ले.
'मुंकिर' हो फ़िदा ताकि बक़ा6 हाथ हो तेरे,
मशरूत7 वजूदों की, शहादत को समझ ले.
१-जन साधारण २ -पालन-पोषण ३-कमरों
४-सेवक बालक ५-सरल-स्वभाव ६-स्थायित्व ७- सशर्त
مخلوقِ زمانہ کی، ضرورت کو سمجھ لے
بہتر ہے تجارت کو، عبادت تو سمجھ لے٠
اے مرد جواں سال، تو اب سیکھ لے اڑ نا
ماں باپ کی مجبور، کفالت کو سمجھ لے٠
حجرے میں مساجد کے، عزیزوں کوپڑھا مت
غلمہ کی طلب گاروں کی، خصلت کو سمجھ لے٠
منوا کے 'اُسے'، اپنے کو منواے گا وہ شیخ
یہ دور کی کوڑی ہے، نزاقت کو سمجھ لے٠
منکر ہو فنا، تاکہ بقا ہاتھ ہو تیرے
مشروط وجودوں کی شہادت کو سمجھ لے٠
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