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काँटों की सेज पर, मेरी दुन्या संवर गई,
फूलों का ताज था वहाँ, इक गाए चर गई.
रूहानी भूक प्यास में, मैं उसके घर गया,
दूभर था सांस लेना, वहां नाक भर गई.
वोह साठ साठ साल के, बच्चों का था गुरू,
सठियाए बालिग़ान पे, उस की नज़र गई.
लड़ कर किसी दरिन्दे से, जंगल से आए हो?
मीठी जुबान, भोली सी सूरत, किधर गई?
नाज़ुक सी छूई मूई पे, क़ाज़ी के ये सितम,
पहले ही संग सार के, ग़ैरत से मर गई.
सोई हुई थी बस्ती, सनम और ख़ुदा लिए,
"मुंकिर" ने दी अज़ान तो, इक दम बिफर गई.
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،کانٹوں کی سیج پر، میری دُنیا سنوار گئی
پھولوں کا تاج تھا وہاں، اِک گاۓ چر گئی٠
،روحانی بھوک پیاس میں، میں اُسکے گھر گیا
دوبھر تھا سانس لینا، وہاں ناک بھر گئی٠
،وہ ساٹھ ساٹھ سال کے، بچوں کا تھا گرو
سٹھیاے بالغان پہ، اُسکی نظر گئی٠
لڑ کر کسی درندے سے، جنگل سے آے ہو؟
میٹھی زبان، بھولی سی صورت کِدھر گئی٠
،نازک ترین صِنف پر، قاضی کے یہ سِتم
پہلے ہی سنگ ساری کے، غیرت سے مر گئی٠
،سوئی ہوئی تھی بستی، صنم اور خدا لئے
منکر نے دی اذان تو، یک دم بپھر گئی٠
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
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शुक्रवार 27 अप्रैल 2018 को प्रकाशनार्थ 1015 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।