Thursday, April 9, 2009

ग़ज़ल - - - है कैसी कशमकश ये, कैसा या वुस्वुसा है


ग़ज़ल

है कैसी कशमकश ये, कैसा या वुस्वुसा है,
यकसूई चाहता है, दो पाट में फँसा है।

दिल जोई तेरी की थी, बस यूँ ही वह हँसा है,
दिलबर समझ के जिस को, तू छूने में लसा है।

बकता है आसमा को, तक तक के मेरी सूरत,
पागल ने मेरा बातिन, किस ज़ोर से कसा है।

सच बोलने के खातिर, दो आँख ही बहुत थीं,
अलफ़ाज़ चुभ रहे हैं, आवाज़ ने डंसा है।

कैसी है सीना कूबी? भूले नहीं हो अब तक,
बहरों का फ़ासला था, सदियों का हादसा है।

है वादियों में बस्ती, आबादी साहिलों पर,
देखो जुनून ए 'मुंकिर' गिर्दाब में बसा है.

*****
*बातिन=अंतरात्मा *सीना कूबी=मातम *बहरों=समन्दरों *गिर्दाब=भंवर

5 comments:

  1. असारों के गुलदस्ते से सजी,
    बेहतरीन गजल।
    मुबारकबाद।

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  2. जुनैद भाई वाह! कमाल की ग़ज़ल है।

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  3. बहुत बढिया गज़ल है।बधाई।

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