ग़ज़ल
अपने घरों में, मंदिर ओ मस्जिद बनाइए,
अपने सरों पे, धर्म और मज़हब सजाइए.
उस सब्ज़ आसमान के, नीचे न जाइए,
इस भगुवा कायनात से, खुद को बचाइए.
सड़कों पे हो नमाज़, न फुटपाथ पर भजन,
जो रह गुज़र अवाम है, उस पर न छाइए.
बचिए ज़ियारतों से, दर्शन की दौड़ से,
थोडा वक़्त बैठ के खुद में बिताइए.
परिक्रमा और तवाफ़ के हासिल पे गौर हो,
मत ज़िन्दगी को नक़ली सफ़र में गंवाइए.
बच्चों का इम्तेहान है, बीमार घर पे हैं,
मीलाद ओ जागरण के ये भोपू हटाइए.
अरबों की सर ज़मीन है, जंगों से बद नुमा,
'मुंकिर' वतन की वादियों में घूम आइए.
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अपने घरों में मंदिर ओ मस्जिद बनाइये
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
और कैसा रहे अगर ये लाइन जोड़ दी जाए
दिलों में इंसान को सजाइए
जुनैद भाई एक शेर मैने भी लिखा है।
ReplyDeleteकोई ग़लतफहमी अक्सर नहीं पूजते।
हम अपने घर में पत्थर नहीं पूजते।